गवईं ठसक, कसक और विचारों की कहानियाँ : गुलाबी नदी की मछलियाँ



समीक्ष्य पुस्तक- “गुलाबी नदी की मछलियाँ”

लेखिका – सिनीवाली शर्मा

समीक्षक: कल्पना मनोरमा

साहित्यिक परिदृश्य में रचयिता जब स्त्री होती है तो मुझे लगता है कि संवेदनाएँ थोड़ी और गझिन और तरल हो उठती हैं। कहानियों का कथ्य अपने दीर्घ और व्यथित मन को उघार देता है, याकि स्त्री लेखक की आँख से जीवन के वे विन्यास छिप नहीं पाते हैं जो देखने में लगते छोटे हैं पर पीर गहरी देते हैं। समय की दृष्टि और सृष्टि दोनों बदली है लेकिन गाँव में मानव जीवन की भूमिकाएँ इतनी नहीं बदली हैं कि उनको अनदेखा कर दिया जाए। ये विचार तब और गहन हो जाता है जब सिनीवाली शर्मा का कथा संग्रह ‘गुलाबी नदी की मछलियाँ’ पढ़ती हूँ।

 

   अंतिका प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड से प्रकाशित इस कथा संग्रह में कुल नौ कहानियाँ हैं, जिनके कथ्य और तथ्य भिन्न होने के कारण कहानी पढ़ते हुए ऊब नहीं होती है। एक बात और — कथाकार ने गाँव की कहानियाँ कहने के लिए अपनी भाषा को गाँव की बोली, मुहावरों, लोकोक्तियों के इर्दगिर्द रखा है। किरदार तो गाँव के हैं ही कहीं-कहीं नरेटर भी अपने किरदारों के मन की बातें कहते हुए उनकी बोली-वानी में बोलने लगता है।

 

कहानी में नरेटर यानी सूत्रधार ही कथाकार को ग्रामीण या नागरीय बनाता है।

 

   निश्चित ही इस संग्रह की कहानियाँ पढ़ते हुए ग्रामीण भाषा की खुशबू ने मुझे कथाकार रेणु और शिवमूर्ति जी की कहानियों की याद दिलाई। ये कार्य साधारण नहीं है। एक समर्थ लेखक की भाषाई तुनक और ताकत होती है कि वह जब चाहे अपने को जिस तरह प्रस्तुत कर सकता है।

 

‘रहौं कंत होशियार’ कहानी, संग्रह की पहली कहानी है। और मुझे भी लगा कि इसे पहले स्थान पर ही होना चाहिए था। अमूमन कहा जाता है कि स्त्री लेखक रोने-धोने वाले ही किरदारों को गढ़ती-रचती है। सिनीवाली शर्मा ने इस कहानी को ग्रामीण राजनीति के साथ गाँव तक विकास की पहुँच में ध्वस्त होते सीधे-सादे ग्रामवासियों के सपनों को अपनी ही तरह से उजागर किया है। मुहावरों और लोकोक्तियों के साथ किरदारों के उठते-गिरते मनोरथों को रच-रच लिखा कि पाठक का मन भींग जाता है।

 

‘अतिथि’ कहानी का ताना-बाना भले रात भर का हो लेकिन कहानी स्त्री के पूरे जीवन, डर,आशंकाएं, स्त्री अस्मिता-संकट और अपनी करुणा के हाथ छली जाती स्त्री की बात कहती है। कहानी उस ओर भी इंगित करती है, जहाँ भारतीय परंपराएँ अपने अस्तिव में दिखती हैं। लेकिन स्त्री-पुरुष के बीच विश्वास की कमी के कारण कहानी की स्त्री अपनी सद्भावनाओं को प्रदर्शित करते हुए छले जाने की आशंका से भरी रहती है। दरवाजे पर अगर कोई स्त्री आई होती तो शायद इतनी जद्दोजहद न करनी पड़ती। एक ऐसी झल्ली स्त्री के मन को लिख दिया है, जो विचारने में दिमागदार है लेकिन काम बेदिमाग स्त्री की तरह करती है और रात भर आँखों ही आँखों में काट देती है। स्त्री भावुक है। दरवाजे पर आये व्यक्ति को वह अतिथि समझती है। भारतीय संस्कृति में अतिथि भगवान होता है, मानती है। कथाकार ने शाम से सुबह के बीच स्त्री की दुश्चिंताओं का एक ऐसा वितान ताना है, जिसमें किरदार एक है लेकिन उसमें —एक माँ है। एक स्त्री है। एक पत्नी है। एक बेटी है। और एक वह गृहणी है जो अपने मायके और ससुराल को एक सूत्र में बाँधे रखने की अभिलाषी है। जो मायके के नाम पर अबोले प्राणी को भी हृदय के बीच जगह देना चाहती है।

 

‘अधजली’ कहानी को नहीं जानती किसने कैसे समझा, मैंने इस कहानी को स्त्री पीड़ा और स्त्री अशिक्षा के साथ पुरुषसत्ता में पिसती स्त्री के रूप में देखा। साथ में रिश्तेदारों और घर-खानदान में देखा-देखी में अपना काम बिगाड़ता भाई, अपनी सम्पत्ति को बेटे के लिए सहेजते पिता और एक ऐसी लड़की जो अपनी भाभी को ही दुश्मन की तरह देखने लगती है। एक वह स्त्री जो ननद के दुःख में घुलते-पिसते हुए बाँझ होने तक पहुँच जाती है। कहानी जितनी शिद्दत से चलते हुए अपने अंत की ओर बढ़ती है,पाठक-मन द्रवित होता है लेकिन अंत में भाभी का अचानक माँ बनना, ननद के द्वारा बच्चे के प्रति क्रूरता…थोड़ा नाटकीय लगा। इस कहानी की दोनों स्त्रियों में से अगर एक भी शिक्षित होती तो दूसरी की रंगत बदल जाती। कहानी ऊपरी तौर पर दो स्त्रियों के दुख की है। जिसमें एक माँ नहीं बन पाती है, दूसरी ससुराल नहीं जा पाती है। इतना ही नहीं,समाज में बढ़ती प्रतिस्पर्धा ‘तू बड़ा या मैं’ की भावना के साथ उस पुरुष की पीड़ा और मनमानी की बात भी कहती है, जिसे पकड़वा कर ब्याह दिया जाता है। जो लौटकर ससुराल नहीं जाता और एक लड़की पागल होने की कगार पर पहुँच जाती है। यह कहानी कई प्रश्न छोड़ती है। 

 

‘अपने लोग’ कहानी में गाँव के बिना पढ़े युवकों के कई रंग लिखे गये हैं। शहर की चमक-दमक में कैसे युवा अपने गाँव को छोड़ देते हैं। जबकि शिक्षा का नितांत अभाव होने के कारण उन्हें कोई अच्छी नौकरी नहीं मिलती। वे न गाँव के रहते हैं न शहर के। शिक्षा के अभाव में जकड़ा आदमी कैसे शहर में गार्ड की नौकरी कर लेता है और खाने,पीने, रहने, सोने आदि के लिए नर्क भोगता है। लेखिका ने आवारा और अशिक्षित ग्रामीण युवाओं के दोलन और आंदोलन के साथ उनकी लाचारी को खूब शब्द दिए हैं। कहानी पिता-पुत्र के बीच संवादहीनता से वायवीय होते रिश्तों की भी बात करती है। कथा का पिता पारंपरिक सोच रखने वाला, छोटी नौकरी में बड़े सपने देखने वाला गाँव का आदमी है। कहानी का युवा पिता की नौकरी, बचत, तनख्वाह सब जान लेना चाहता है। पिता जब उसके आगे खुलते नहीं तो वह उन्हें स्लो प्वाइजन देने लगता है। युवक, पिता के मरने की बात सोचने लगता है। लेकिन अंत में कहानी सकारात्मक ढंग से खत्म होती है तो पाठक को कथा-पाठ का संबल मिलता है।

 

‘इत्रदान’ कहानी दो बहनों की कहानी है। विधि के विधान को विस्तार देती कहानी बताती है कि पिता चाहे बेटी को सोने की मुहरों से क्यों न तौल दे लेकिन उसके भाग्य में गरीबी लिखी होगी तो उसे मिलेगी ही। मुक्ता और सुगंधा के माध्यम से लेखिका ने कहानी को तुलनात्मक ढंग से लिखा है।

 

‘करतब वायस’ कहानी शुरू से अपने अंदर डर, उत्कंठा, अय्यारी, धोखा, घबराहट, हादसा, प्रेम, जिम्मेदारी और रहस्य को लिए हुए आगे बढ़ती है। गाँवों में चुनाव प्रचार और राजनीतिक पार्टियों के हिमायतियों के बीच की उठा-पटक, उम्मीदवारों के चेले-चमचों की बात को खूब रोचकता के साथ लिखा है। कहानी में कुछ वाक्य तो बहुत ही सुंदर लगे जैसे—’कभी-कभी विनम्रता भी प्रतिस्पर्धा हो जाती है’ ‘दुश्मन की तारीफ कभी अच्छी नहीं लगती।’ आदि।

 

‘बंटवारा’ कहानी पढ़ते हुए पति-पत्नी के बीच संवाद और बंटवारे को झेलते माता-पिता जो एक घर में रहने के लिए अभिशप्त हैं लेकिन आँगन की दीवार को लाँघ नहीं पाते हैं। कहानी बाहरी तौर पर एक जीवन-साथी के बंट जाने की बात कहती है। बेटे क्रूर और पत्थर दिल लगते हैं। बहुओं पर गुस्सा आती है। कैसे सबने मिलकर अपने बूढ़े होते माता-पिता को बाँट लिया। जब एक दूसरे की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। मगर ऊपर वाली तस्वीर को तोड़कर अगर देखा जाए तो शायद सुभाषिनी और उसके पति पर भी ऊँगली उठ सकती है कि उन दोनों ने अपने बच्चों को क्या सिखाया। क्योंकि दोनों पति-पत्नी अपने दोनों के अलावा किसी और को याद नहीं करते। न भाई-बहनों को और न माता-पिता को। कहानी की अंतर्धारा इस ओर भी इंगित करती है कि करता सो भोगता।

 ‘दूल्हा बाबू’ कहानी समस्याओं का पूरा कोलाज है। इस कहानी में जीवन मृत्यु से लेकर दोस्त, पड़ोस, बूढ़े, बड़े, शादी, ब्याह, पंडित और पंडिताई के साथ रिश्तेदारों की तरकीबों के साथ शादी के महत्व को दिखाया गया है।

 

अंत में बात ‘गुलाबी नदी की मछलियाँ’ कहानी की।….यह कहानी प्रेम कहानी है। और लेखिका ने एक ऐसी लड़की के मन को लिखा है, जो गरीब है। बिना पढ़ी है। जो अभावों में जीवन काटती है। जिसने अपने जीवन में प्रेम को जिया नहीं है। लड़की को उस लड़के से प्रेम हो जाता है, जिसके बदले में उसके घर वालों को पैसा मिलेगा। याकि लड़की के घर के आदमियों ने एक रईस के लड़के को पकड़ लिया है। सिनीवाली ने प्रेम के महत्व को बहुत सुंदरता से लिखा है। जब प्रेम अपने उद्दात्य रूप में प्रकट होता है तो ऊंच-नीच, भेद-भाव, गोरा-कला, पढ़ा- अपढ़ आदि बातों पर ध्यान नहीं देता। गुलाबी नदी की मछलियाँ कहानी में जो लड़की है, उस अलबेली को भी प्रेम हो जाता है। वह उसे लड़के को भगा देती है। जिसके पैसे मिलने से उसे अच्छा घर, अच्छा वर, अच्छी शादी हो सकती थी। लेखिका ने प्रेम पगी आँखों को ‘गुलाबी नदी कहा और पुतलियों को मछलियाँ’। लेखिका ने अद्भुत बिम्ब गढ़ा है।

   इस संग्रह की कहानियाँ सिनीवाली शर्मा के मन की संवेदनशीलता, उनकी ऑब्जरवेशन पावर, पर-दुख को महसूस करने की शक्ति और भाषा के साथ उनके ताल्लुक को बयाँ करती हैं।

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