सुकन्या
ये कहानी समकालीन उभरती मनोवृत्ति को उजागर करती है. स्त्री-पुरुष की सत्ता बराबर की है. पुरुष स्त्री नहीं बन सकता, ठीक उसी तरह स्त्री पुरुष नहीं बन सकती. वैसे शक्तियाँ सबमें बराबर रहती हैं लेकिन गुला नाम की किरदार अपनी बेटी को बेटा बना देने पर आमादा है.
नवम्बर का पहला रविवार। सुकन्या के आने से गुला का घर खुशियों से भर गया।
बेटियाँ जीवन की रौनक होती हैं। सुकन्या की माँ गुला ने कहते हुए बेटी को गले लगा
लिया। बहू मुस्कुराकर देख रही थी। उसे इशारा किया तो पग-प्रच्छालन हेतु वह थाली
में जल ले आई। केतकी अर्थात नाउन बुआ, पहले से बिराजी थीं।
सुकन्या के पाँव धोने लगीं।
“कैसन अबहूं फूल नामा
पांय धरे हैं बिटेऊ के। लिआव छुटकी के पाँव ऊ पखार देवें।” सुकन्या
की बेटी का पांव थाली में खींचते हुए केतकी बोली।
“केतकी!
तुम भूल गयीं? मालिश तुमने ही की है सुकू की। कल से इसकी
बेटी की मालिश के लिए भी आना है तुम्हें।” गुला ने कहा। आने
की हामी भरते। अशीषते। नेग लेकर केतकी चली गयी।
बेटी
सुकन्या और नातिन का रूप-रंग देखकर गुला को आत्मसंतोष ही नहीं, गुरूर भी हो रहा था। बड़े-घर बेटी ब्याहने का रुआब मन को हिलोर रहा था।
माँ से ध्यान
हटता तो बार-बार घर के रख-रखाव पर सुकन्या का ध्यान जाने लगा।
ड्राइंगरूम
की खिड़की जो वर्षों से नहीं खुली, वह खुली ही नहीं, सुंदर परदे भी लगे हैं। हैंगिंग गमलों में दसबजिया के फूल गमक रहे हैं।
लान में लगे हरसिंगार,अशोक, केले,
पपीते के पेड़ हवा में डोल रहे हैं। कैसी तो खुनक सर्द हवा के झोंके,
कमरे का कोना-कोना महका रहे हैं। सुकन्या खुश है या असहज? समझ नहीं पा रही थी। एक पल को लगा वह अपने घर में नहीं, किसी और के घर बैठी है।
“माँ, ये घर अपना है? दादी ऐसा ही कुछ चाहती थीं लेकिन आप
कहाँ…? दादी, कितना हम दोनों पर
बड़बड़ाती थीं। याद है न?” सुकन्या ने आँखें, माँ की आँखों में डालते हुए कहा।
“ये सब तुम्हारी भाभी
का जादू है। बड़े गुण हैं, इसके हाथ में।”
“सुरभि तो जॉब वाली है,फिर भी..?”
“हाँ, है तो मगर कहती है—घर-परिवार उसकी प्राथमिकता में सबसे ऊपर हैं।”
“माने ?”
“माने शाम को जब वह घर
लौटे तो उसे सुकून मिलना चाहिए। इसलिए सब कुछ व्यवस्थित रखती है। घर को आरामगाह
मानती है।”
“देखने में सुरभि कितनी
आधुनिक लगी थी तब.?”
“हाँ, अभी भी है। चाहे कपड़ों से देखो या उठने-बैठने से।”
“फिर ये सब कैसे कर
लेती है…?”
गुला,
सुरभि की कार्यवाहियाँ बताते हुए बलिहारी जा रही थी। सुकन्या का मन
अनपहचानी हीन भावना से भरता जा रहा है, वह नहीं जान पा रही
थी। माँ के मन पर सुरभि का कब्ज़ा देख, सुकन्या को अच्छा
नहीं लगा।
सुकन्या,
सुरभि से अपनी और माँ से सास की तुलना करती जा रही थी।
“एक मेरी माँ हैं— बहू
पर कितना नाज़ करती हैं! और एक मेरी सास..! कभी मुँह सीधा नहीं होता।”
सुकन्या,
गुला की बड़ी संतान है। माँ ने बेटी का लालन-पालन बेटे से बढ़कर
किया। पूरी पौरुषी बादशाहत से सुकन्या बड़ी हुई। यूनिफोर्म से लेकर घर के कपड़े तक
गुला ने लड़कों वाले ही पहनाये। ‘टॉम ब्यॉय’ सम्बोधन माँ-बेटी दोनों को हमेशा लुभाता रहा।
एक
दिन सुकन्या सोकर उठी। देखा, सुरभि दफ्तर जा चुकी थी। नाश्ता
मेज़ पर लगा था। गुला स्नान-ध्यान में मग्न थीं।
गुला
पास आकर बैठी तो सुकन्या ने भड़कना शुरू किया—“क्या माँ..!
हर समय आप सुरभि की तारीफ़ करती रहती हो? पापा के मुँह में
जबान कभी थी ही नहीं। उनसे क्या ही कहूँ? आप देखो, जबकि घर की सारी व्यवस्था उसने इधर से उधर कर डाली। फिर भी सुरभि आपको
गुणी लगती है। क्या जरूरत थी, दादी के समय से रखा ड्रेसिंग
हटाने की? ये खिड़की खोलने की? किचन में
नया प्लेटफ़ॉर्म बनवाने की?”
गुला समझ नहीं पा रही थी कि वह बेटी को समझाये कैसे। कैसे बताये कि उसकी
भाभी ने जो किया,घर के लिए उपयुक्त ही नहीं, सुंदर भी है।
सुकन्या फिर से
घर को ध्यान से देखने लगी।
हर चीज़ व्यवस्थित। खूंटियाँ खाली। डोरियाँ हटा दी गयीं। दरवाज़ों के पीछे
से कीलें उखाड़ दी गयीं। दादी की आराम कुर्सी की लदावन हट गई। उसमें रखे दो कुशन को
देख उसने सोचा ये घर है या होटल। घर तो अस्त व्यस्त ही अच्छा लगता है।
“माँ..! मेरी ससुराल में सुरभि जैसे ही लोग हैं। हर काम समय पर। समय पर
खाना, पीना, सोना, उठना। मैं तो सुबह से ही थक जाती हूँ। मशीन थोड़े ही हूँ। मुझे तो ऐसे लोग
सनकी लगते हैं, जो हमेशा सिपाही की तरह अलर्ट रहते हैं।
मुझसे नहीं उठा जाता जल्दी। न ही उठते ही नहाने का मन होता है। आप तो जानती हो–
मैंने नहाकर कभी अपने कपड़े नहीं धोये, तो दूसरों के क्या ही
धोऊँगी ?
लेकिन वहाँ मेरी
परेशानी कोई समझता ही नहीं?
गुला
को अंजान-सा धक्का लगा। कुछ देर मौन रहकर बेटी को समझाने लगी—”अब सुरभि खुद थोड़े ही करती है सारे काम। बेला और पिंटू की सहायता से घर
सम्हालती है। तेरे घर भी कई सहायक हैं। मैं जानती हूँ।”
“माँ, मुझे समझ ही नहीं आता, कब क्या काम किससे करवाने के
लिए कहूँ।”
गुला
जब कुछ नहीं बोली। तो सुकन्या उठकर ऊपर कमरे में चली गयी। आश्चर्य, वहाँ भी उसका इन्तजार कर रहा था। सुकन्या के सोलहवें साल के जन्मदिन की
बड़ी-सी तस्वीर दीवार पर अब भी लगी थी। कमरे का इंटीरियर बदल चुका था। जो नहीं बदला
था उसे री-अरेंज कर दिया गया था।
सुरभि
दीवाली की छुट्टी पर थी। बेला के साथ मिलकर खाना तैयार किया। सब लोग खाने की मेज़
पर थे लेकिन सुकन्या अभी नहीं पहुँची थी। सुरभि उसे बुलाने चली गयी।
“जीजी, चलिए…खाना खा लीजिये। सब इन्तजार कर रहे हैं।”
“बेटी को सुलाकर आती
हूँ। तुम लोग शुरू करो…।”
“चलो न जीजी! गुड़िया
अभी तो सोकर उठी है।” सुरभि ने स्नेह से कहा। तो सुकन्या का
मन तरल हो आया। हाथ पकड़ उसे बिठा लिया।
“एक बात बताओ सुरभि!
तुम इतना सब कैसे मैनेज करती हो ? और खुश भी बनी रहती हो?”
“मैं समझी नहीं जीजी?”
“घर और नौकरी की सारी
कठिनाई समझ लेती हो, मेरी बात समझ नहीं आई..?” सुकन्या ने तंज़ कसा।
“अरे नहीं जीजी! वो बात
नहीं। यहाँ कुछ काम नहीं। काम तो मेरे मायके में होते थे। आप देखती तो दंग रह
जातीं।”
“फिर पढ़ाई-लिखाई कैसे
की? तुम तो अच्छा ख़ासा कमाती हो?”
“मेरी माँ कहती थीं—
स्त्री कितना भी पढ़-लिख जाए,उसकी मुक्ति घर से नहीं होती। न
ही होनी चाहिए।”
“मतलब..?”
“यानी स्त्री, घर में नहीं, घर, स्त्री में
रहता है। इसलिए उसकी देख-रेख स्त्री को खुद को सहेजने जैसी करनी चाहिए। माँ मानती
थीं। अब मैं भी…।”
“बेतुकी पाबंदियों में
घुटन नहीं होती थी…?”
“बचपन, माँ के अधीन होता है। जैसा माँ ने कहा– हँसकर-रोकर करना पड़ा। माँ की
आइडियोलोजो के आगे, मेरी सायकोलोजी कभी काम ही नहीं आई।”
“गलत किया तुम्हारी माँ
ने…?”
“नहीं
जीजी! माँ की परवरिश ही है, जो आज सब कुछ सम्हाल पा रही हूँ।
अब दिन पर दिन माँ की कही हर बात और अनुशासन में रहना, ठीक
लगता जा रहा है। कितना भी बड़ा और उलझा काम क्यों न हो, कोई न
कोई युक्ति सूझ जाती है। उसी के दम पर ऑफिस और घर दोनों को मैनेज कर पाती हूँ। और
ये भी—जब-जब ऐसा कर पाती हूँ—सबसे पहला थैंक्यू अपनी माँ के लिए ही होता है।
उन्होंने ये सब न सिखाया होता, तो कुछ भी नहीं कर पाती।”
सुरभि
की बातों से ही नहीं,आँखों से भी माँ के प्रति कृतज्ञता झर
रही थी। सुकन्या को अपनी माँ के थोथले-खोखले दुलार और बचपन की अपनी मनमानियों पर
गुस्सा आने लगा।
“तुम चलो, मैं अभी आती हूँ।” सुकन्या ने फिर से कहा। सुरभि चली
गई।
सुरभि के जाने के बाद जो आँसू पिछले दिनों से रुके थे, भरभरा पड़े। थोड़ी देर रोने के बाद जब मन हल्का हुआ तो मुँह धोकर मेज़ पर
पहुँच गयी। अपनी पसंद का खाना देखकर फिर हैरान रह गयी। माँ, बहू
की तारीफ़ करते थक नहीं रही थी। भाई और पिता चुपचाप मुस्कान छोड़ रहे थे। बेला,
सुरभि के आगे पीछे दौड़ रही थी।
सुकन्या को चिढ़
आने लगी। वह चुपचाप खाना खाकर बाहर चली गयी। माँ समझ गई लेकिन उठकर उसके पीछे नहीं
गई।
दीपावली
की तैयारियों से लेकर पूजा-पाठ तक सुरभि को हँसते-बोलते देख सुकन्या हतप्रभ थी।
भाई दूज के लिए सुरभि को मायके जाना था। खाने की तैयारी कर भाई-भाभी निकल
गये। बेला और पिंटू रसोई में लगे थे। फिर भी काम, उस तरह से
नहीं निपटा जैसा सुरभि सम्हाल लेती थी। शाम के तीन बजे जब माँ-बेटी फुर्सत हुई तो
गुला इनडायरेक्टली बेटी को सुरभि के पदचिह्नों पर चलने की समझाइश देने लगी। बेटी
इनडायरेक्टली माँ को बताने लगी कि अगर बचपन में उसे उसकी माँ ने टॉम ब्यॉय न बनाया
होता, तो शायद आज वह भी सुरभि की तरह कमयाब और सम्मानित जीवन
जी रही होती।
कुछ सोचते हुए
सुकन्या बोली।
“माँ,
आपने तो सिर्फ मेरा नाम ही सुकन्या रखा। सुरभि की माँ ने तो उसे
सुकन्या बनाया है। आप क्या कहती हो…?”
सुकन्या ने तंज भरा कुछ बोला था। माँ को लगा तो ज़ोर से लेकिन वह बेटी की
मनोदशा समझकर भी अपनी खामियाँ, उसके आगे स्वीकार नहीं करना
चाहती थी।
अपनी
जीवनशैली पर पछताने की बजाय, गुला कोई ऐसी युक्ति सोच रही थी,
जिसे आत्मारक्षा हो सके।
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