एक दिन का सफ़र
वह रविवार की ढलती हुई रात थी। सपना गहरी नींद में सो रही थी। “...भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करे….!” आरती के बोल,
घंटी की घनघनाहट, स्नान करने के लिए एक-दूसरे
की बुलाहट…। अचानक उसके कानों में गूँजने लगी। थकान से भरी नींद में सपना ने कसमसा
कर तकिए से कान दबा लिए। आवाज़ें फिर भी आती रहीं। उनींदा दिमाग़ अपनी वैचारिक रौ
में चलने लगा—
“कितनी
बार कहा— इस बस्ती को छोड़ दो…लेकिन नहीं….। जयंत साहब आलस के पुतले जो ठहरे। कौन
घर खोजेगा …? पड़े हैं बाप-दादाओं के घर में…। जहाँ न पार्क
हैं, न पार्किंग। सारे मकान कान से कान सटाए बैठे हैं। बच्चे
घर के अंदर गुल्ली डंडा खेलें या बंदरों की तरह लटके रहें खिड़कियों में…। परवाह
किसे है..? न जयंत को फर्क पड़ता है, और
पड़ोसी तो माशेअल्लाह हैं ही। रोज सुबह चार बजे से घंटी टनटनाने बैठ जाते हैं। भूल
जाते हैं कि बगल के घर में, कोई हारा-थका भी सोया होगा। जिसे
नींद की जरूरत–प्रार्थना से ज्यादा होगी। कोई पूछे उनके भगवान से, उनींदा वह भी होगा…।
सपना के अलसाए
मन में एक अजीब-सी कोफ़्त उठी। झुँझलाते हुए उसने धकेलते हुए पति से कहा—
“सुनो न जयंत! भगवंतलाल
की ओर वाली खिड़की बंद कर दो..।”
“ऊँहूँ….।”
“कर दो न बंद।रात बहुत
बाकी है।…पड़ोसी उतारने लगे देवता स्वर्ग से …।”
“खुद कर लो…। रात बहुत
बाकी है, डिस्टर्ब मत करो..।” जयंत ने
कानों पर हाथ रखकर करवट बदल ली।
सपना उठी। बदन दर्द से ऐंठ रहा था। खिड़की के पास जाकर उसने देखा— रात
बारिश और आँधी आई थी। आधे बने दुमंज़ली गीली छत की सफ़ाई में पड़ोसी धमाचौकड़ी मचाये
थे। जयंत को बारिश में गीली मिट्टी से उठती सौंधी गंध अच्छी लगती है।…उसी ने ही
खोली होगी खिड़की…। दो मिनट सोचते हुए सपना ने खिड़की बंद कर ली। आवाज़ें धीमी पड़
गयीं। सपना फिर से बेड पर पसर गयी। अल्साये बदन में नींद फिर से काबिज हो गयी।
सोते ही सपना की
नींद में एक स्वप्न चलने लगा—
“जयंत साहब अपनी कार
हटा लो…।” मेनगेट के बगल में बनी खिड़की में मुँह अड़ाकर वर्मा
बोला।
“सपना, तुमने कार फिर से गलत जगह खड़ी कर दी ?” जयंत खीजा।
“मैंने गलत जगह कार खड़ी
नहीं की है… वर्मा ने मेरी पार्किंग में अपनी कार अड़ाई है।”
“तो जाओ, अब हटाओ जाकर। वर्मा धरना देकर बैठा है।”
“नहीं जाऊँगी…।”
“जयंत साहब आओ न…!”
वर्मा ने फिर से बांग दी।
“अरे..! आ रहा हूँ
यार…! सपना, अब उठ भी जाओ… नहीं तो अब पानी डाल दूँगा…!”
“मैं बिल्कुल नहीं
जाऊँगी बस…। ये आदमी भी न..! सुबह से कार नहलाने बैठ जाता है।”
“तुम्हें क्या
मतलब…उसकी गाड़ी…. जो करे..?”
“है क्यों नहीं
मतलब…यहाँ बस्ती में सबको, सबसे मतलब है…। देखती नहीं हूँ
क्या?”
“तो फोन से बुलाना था
वर्मा को…।”
“पार्किंग तो जी का रोग
बन चुकी है…।”
“जाओ वर्मा जान खा
जायेगा। खड़ा है गेट पर…।” जयंत ने सपना का झिंझोड़ दिया।
“…जयंत... मान जाया
करो। मैं नहीं जाऊँगी। ज यं त…।” सपना तेज़-तेज़ बुदबुदाने
लगी।
“अरे
ओ देवी जी! चुप करो! नींद में तुम कब से बड़बड़ाने लगी…?अब ये
भी मुझे सहना पड़ेगा? कितनी भयानक लग रही हो..उठो…।”
जयंत
ने धकेलते हुए सपना को जगा ही दिया। सपना की चेतना
लौटी तो उसे तसल्ली हुई कि चलो वर्मा सपने में आया था।
“विडम्बना देखो जीवन की,
सपने भी किसके आने लगे..?”
सपना
ने मुड़कर देखा–जयंत फिर से सो गया। सपना ने भी दुसूती कानों पर लपेट ली। आँखें बंद
कर ही पायी थी कि साढ़े पाँच बजे का अलार्म घनघना उठा। सोमवार की सुबह थोड़ी-सी बड़ी
और मधुर चाहने वाली सपना, मन मारकर उठ गयी। पिछले सप्ताह की
थकान और रविवार रात की नींद ख़राब होने से, उसका मन चिढ़ चुका
था। मगर नौकरी को इस सबसे कुछ लेना देना नहीं। सपना ने बालों को ऐसे ठीक किया
जैसे—बचपन में माँ दुलराया करती थीं।
“रात
जयंत ने ही खिड़की खुली छोड़ी होगी। लेकिन मानेंगे नहीं। वाह रे मेरा जीवन…चलो लदो।
हो गया सोमवार का दिन शुरू!”
सपना का मन झुंझलाहट से ठसाठस भर गया। वैसे तो वह अपने हिस्से का बेड ठीक
कर, दोहर तहाकर तकिया के नीचे रखकर ही उठती थी, लेकिन उस दिन दोहर को लड्डू की तरह बनाकर जयंत के ऊपर फेंक, वह कमरे से बाहर निकल गयी।
“सोमवार को बेड से पाँव
नीचे धरो नहीं कि सीधे शनिवार रात को ही सुकून मयस्सर होता है….। उस पर ये पड़ोसी
और ये मेरा प्यारा पति…! तोबा तोबा!” सपना ने जयंत के चेहरे
को देखते हुए सोचा। मलाल की आँधी-सी उमड़ पड़ी। मन धूल-धूल हो उठा। जिसे बिस्तर पर
ढेर रहना था,अधूरी फाइलों की कतर-ब्योंत में मन लग गया।
बेसिन में जाकर पानी छपक- छपक पहले मुँह धोया। फिर रसोई में जाकर दालचीनी की चाय
चढ़ा दी। सपना बीमा कम्पनी में काम करती है। ऑफिस की ज़रूरी चीज़ें जुटाने लगी। सोफे
पर बैठ ही पायी थी—चाय पकने की महक आई। सपना सुबह की पहली चाय कॉफी मग में पीती
है। ज्यादा-सी। मग लेकर वह बालकनी की रेलिंग के पास खड़ी हो गयी। सुबह की नरमाहट ने
आदतन उसके मन को सुकून सौंपा। भवें तनी थी, कुछ ढीली पड़ गयीं।
उसकी चाय खत्म होने ही वाली थी, दरवाज़े की घंटी चीख़ उठी।
“निश्चित ही
वर्मा ही होगा…।” सपना ने गेट खोला। सामने कमली (हाउस हेल्प)
खड़ी थी।
“कमली…! तू..!
इतनी जल्दी क्यों चली आई ? तेरे चेहरे को क्या
हुआ..?”
“कुछ नहीं दीदी,
हमरी जिन्दगी की असल सूरत ये ही है।”
“तू पहेलियाँ कब से
बुझाने लगी? बता सही…।”
“कल हमरे मरद ने जेदा
(ज्यादा) पी रखी थी।”
“मतलब…! पीकर तुझे
मारेगा..?”
“.........”
“तूने कुछ कहा होगा…?”
“हमरी अक्कल दाढ़ पिराती
रही। अच्छा ये बताओ दीदी, मरद ऊ हमरा, तो
दवादारु ओही को करे के परी की नाहीं?”
“करना ही चाहिए,
एक दूसरे की फिकर।”
“नहीं करता है दीदी।
दवाई-गोली लाने को कहा… बस्स टूट पड़ा।”
“वाह..! तू भी टूट
पड़ती..?
“ऊ मरद है दीदी। ताकत
है उस में।”
“तुझ में ताकत नहीं…?
तू स्त्री है इसलिए मार खाती रहेगी ?”
“…….” कमली आँसू पोंछने
लगी।
“हक़ से रहा कर…।और
रोया-धोया मत कर। तू खुद चली जाती, ले आती दवा।”
“दिन भर मरती हूँ दीदी,
दूकान जाने का मन नहीं किया।”
“मुझे बता देती,
दर्द की गोलियाँ हमेशा रहती हैं मेरे पास।”
“नाहीं जानत रही।”
“चल,
आब काम कर। सुन, ऑफिस के मेरे डिब्बे में दो
रोटी, नींबू का अचार और एक बेसन का लड्डू ही पैक करना।”
“बस्स…! सब्ज़ी न ले
जाओगी दीदी ?” कमली ने पूछा जरूर मगर सपना कुछ बोली नहीं। तो
वह भी किचन में जुट गयी।
तौलिया
कंधे पर लिए सपना ने बच्चों की ओर रुख किया। दोनों सोये थे। अलसाए बच्चों को
अलसुबह जगाना, तब भी पसन्द नहीं था, जब
वे स्कूल जाते थे। अब तो दोनों बड़े हो चुके हैं। वह उलटे पाँव लौट आई। जयंत को
जाकर देखा– जयंत ऑफिस लिए दस बजे जाता है। सो रहा था। मोबाइल पर अरजित सिंह का
गाना–”जिंदगी यूँ गले आ लगी है…!” बजाकर
सपना स्नानघर में घुस गयी।
शावर से झर-झर झरती बूँदें और गीत की मधुर धुन में सपना गुनगुनाने लगी।
रात की बारिश में धुली-धुली सुबह खिड़की से झाँक रही थी। गीली देह पर हवा की छुअन
थरथराहट घोल रही थी। नहाते-नहाते उसका हाथ छातियों पर चला गया। मन काँप उठा। बीता
बुरा वक्त अपनी भयावहता के साथ प्रकट हुआ तो अंतिम दिनों में छीजती माँ से जुड़ी
बीमार यादों ने घेर लिया। उसे भी अपनी मेमोग्राफी रिपोर्ट लाना है। कई महीनों से
ये टलती जा रही थी। कभी बच्चे व्यस्त, कभी वह खुद व्यस्त।
“समय आज भी नहीं है
मेरे पास।” नहाकर जल्दी से सपना बाहर आ गयी। घर में चहल-पहल
से पता चला, सब उठ चुके थे। कमली सबको चाय-कॉफी दे चुकी थी।
उसे राहत मिली।
“मेरे पास
समय नहीं तो क्या..कोई न कोई रिपोर्ट कलेक्ट कर ही लाएगा।” भरोसे की ठंडी लहर सपना को तसल्ली से भर गयी। कंघी करते हुए वह सबसे पहले
बेटे के पास गयी।
”हॉस्पिटल से मेरी
मेमोग्राफी की रिपोर्ट लाना है गुड्डू…?” सपना ने बेटे से
कहा।
“मेरा वर्क फ्रॉम होम जरूर है…पर फ़ोर्नर क्लाइंट के साथ मीटिंग रख दी है
बॉस ने। सो टुडे आई एम् नॉट फ्री एट आल…!” बोलकर बेटा मोबाइल
से चिपका रहा। बेटे का रुखापन उसे चुभा तो, लेकिन अपना धैर्य
सहेजते हुए—“अच्छा ठीक है। आराम से उठकर अपना काम करना…मगर
खाना समय से खा लेना…।”
“.............”
“बुलबुल तू..! ला देगी…?”
सपना ने बेटी से पूछा।
“ओ मम्मा! आप क्या कह
रही हैं? सुबह से शुभ-शुभ बोलो यार…! कुछ नहीं होगा आपको।?
“मेरी रिपोर्ट लाना है
बाबू! आज कॉलेज जाते वक्त या लौटते वक्त तू कलेक्ट कर लेना…। अस्पताल तेरे कॉलेज
के रास्ते में पड़ता है। तीन महीनों से ऊपर हुआ। लैब वाले कबाड़ समझकर फेंक देंगे।”
“बात
तो ठीक है ममा। मुझे इम्पोर्टेंट असाइन्मेंट सम्मिट करना है..। बाई मिस्टेक जमा
करना भूलती जा रही थी..। आखरी डेट है आज…, उसके बाद अनाहिता
के बर्थडे में जाना है। समय से नहीं पहुँची तो देवीजी रूठ जाएँगी। विलीव मी ममा!
मैं बिल्कुल फ्री नहीं हूँ। फुल डे जेम पैक…फ़ारगिव मी..! डैड से बोलो न!.... नहीं
तो किसी और दिन पक्का ला दूँगी।”
बेटी ने शुगर
कोटेड प्यार माँ पर उड़ेल दिया।
“.....अच्छा ठीक है।
अपना असाइंमेंट ज़रूर जमा कर देना। अनाहिता को मेरी ओर से शुभाशीष कहना।”
“ओके..स्योर..लव यू…!
“टेक केयर..!”
सपना को अपनों
पर भरोसा था। प्रेम और सहारे की दरकार थी…। नहीं मिला। यथार्थ की चर्खी पर चढ़ी
जिन्दगी आगे बढ़ गयी।
“सुनो जयंत! हमारे
बच्चे तो बहुत व्यस्त हैं…। मेरी रिपोर्ट ला सकोगे…?”
“हूँ…रिपोर्ट ज़रूर आना
चाहिए..। एक काम करो…ख़ुद तुम कलेक्ट करते हुए ऑफिस निकल जाओ। या फिर ऑफिस से लौटते
हुए लेती आना। टुडे आय एम वेरी मच बिज़ी…!”
“अरे यार!
मैं क्या करूँ, क्या नहीं…? सिखाओ मत, जो कह रही हूँ…उसे बोलो।”
“बोला तो..! मेरे पास
टाइम नहीं है। वैसे भी नींद पूरी नहीं हुई…सुबह से खड़बड़ काट दी..।”
“और मेरी नींद…?
कहना था, टाल गयी।
पति और बच्चों
के इशारे पर नाचने वाली को, अपने जीवन की निस्सारता पर खेद हुआ। रोना चाहती थी
लेकिन पी गयी अवमाननाएँ अपनों की…।
“कमली, जरा इधर आकर मेरी साड़ी ठीक तो करो…बस अब निकलूँगी।” सपना
के मन में बढ़ते तापमान के बीच दरवाजे पर बेसब्र दस्तक हुई।
“महतो साहब अपनी कार
हटा लो…।” वर्मा की महीन आवाज गूँज उठी।
“जयंत…! जाकर मेरी गाड़ी
गली में निकाल दो। बस दस मिनट में निकल ही रही हूँ?”
“….मेरी दाड़ी में साबुन
लगा है। ऐसे ही चला जाऊँ…? जा तो रही हो… निकाल लेना।”
कुछ क्षणों तक
वह जिधर से जयंत की आवाज़ आई थी,अजनबियों की तरह देखती रह गई।
साँसें चढ़ गयीं। पर कुछ बोल न सकी मगर अंदर से जल-भुन गयी—
”क्यों
उठती है अपनत्व की चाहत..? साझेपन की तमन्ना…? सबकी आँखों में अपने लिए चिंता का अरमान..? किसी की
परवाह में अपना सुकून…। मेरे लिए दीदावर पैदा ही नहीं हुआ…। क्यों तड़पती हूँ किसी
का मन पाने को…? जो नहीं मिल सकता…उसकी सुलगती माँग क्यों
उठती है....?”
कनपटियों की आँच सपना की आँखों तक आने लगी। वह गाड़ी की चाबी और धूप का
चश्मा ख़ोज रही थी। वर्मा ने एक बार फिर से लम्बी बेल दबा दी। कमली नाश्ता के लिए
पुकारती रही वह नहीं रुकी।
“रहने दे कमली! आज मम्मा ऑफ़िस में कर लेंगी नाश्ता। मैं उन्हें याद दिला
दूँगी।” बेटी की आव़ाज पता नहीं क्यों सपना को अच्छी नहीं
लगी। वह अपने भीतर बिफर पड़ी।
“समझते क्या हैं ये लोग? बुद्धू हूँ क्या..? लापरवाही समझ नहीं आती इनकी …? जब ऑफिस में रहो तो
इनकी चिंता। घर में रहो तो इनका कम्फर्ट। ऑफिस में हर एडजेस्टमेंट में, इन्हीं सब के भविष्य की चिंता। इनकी अलमारियाँ सम्हालो। ओवर टाइम में
ड्यूटियाँ करो। डस्टिंग, मॉपिंग, वॉशिंग
बाई यदि ठीक न करे तो एक-दो छुट्टी हँसते-हँसते कुर्बान कर दो, ताकि ये स्वस्थ्य रहें…। इनको शॉपिंग कराओ। जिसमें इन्हें ख़ुशी मिले,
पिघली पीतल की तरह, इनके साँचों में ढलती जाओ।
समझ क्या रखा….?”
सपना ने चश्मा पहना। दरवाजे पर खड़े वर्मा को पीछे छोड़ते हुए खट खट खट
सीढ़ियाँ उतर गयी। वर्मा पहले से जल्दी में था…सरपट पीछे हो लिया।
”एक
बात बताएँ भाई साहब..! जहाँ आपने गाड़ी लगाई है, वह मेरी
पार्किंग है। या तो आप भी ध्यान रखा करें, नहीं तो सब्र
करें। ऑफिस सबको जाना होता है। सिर्फ आप ही नहीं जाते दफ्तर..! सुबह से दरवाजे पर
धरना देना ठीक नहीं।”
“...........”
वर्मा
बोलने के लिए शब्दों को नाप-तौल रहा था। सपना ने गाड़ी के शीशे चढ़ाए और पार्किंग से
निकल गयी।
गाड़ी
सड़क पर दौड़ने लगी। खिन्नता की पराकाष्ठा…! उसकी आँखें भर आने लगीं। चश्मा धुँधला
होने लगा। किनारे गाड़ी रोक कर सपना ने आँखें पोंछी। फिर भी दृश्य धुँधले ही दिख
रहे थे। धीमी ड्राइव करते हुए वह मैट्रो पार्किंग पहुँची, गाड़ी
पार्क की। पाँच मिनट पैदल रास्ता चलकर, वह प्लेटफॉर्म पर
पहुँच ही पाई थी…मेट्रो आकर रुकी।
महिला कोच में
उसे चढ़ना था, चढ़ गई।
आहत
मन, कभी न खत्म होने वाली जीवन-दौड़ और भागती-दौड़ती शहर की
स्त्रियाँ। “मेट्रो ने भले सफर को आसान बना दिया मगर जीवन
कहाँ सरल हुआ…? कहाँ कोई समझ पाया है स्त्री-मन को…?”
सीट
के एक किनारे पर सपना बैठ गयी। किताब आज भी उसके पास थी…पढ़ने का मन नहीं हुआ। वह
चारों ओर देखने लगी। मेकअप में टिपटॉप, लकदक, हँसते-मुस्कुराते चेहरों को देखते हुए, उसे अपने
जबड़े कसे और साँसें भारी होने का अहसास हुआ। संतुलित करने के प्रयास में खिड़की के
बाहर देखने लगी…। जहाँ हर दृश्य अस्थिर लेकिन सहज था। पलटकर वह फिर से कोच में
देखने लगी। जहाँ, ज्यादातर स्त्रियों के चेहरे से झरती हँसी,
उसे खोखली और उदास जान पड़ रही थी।
उसे लगा हर
स्त्री कुछ न कुछ अनकहा अपने कंधों पर लादे हुए सफ़र कर रही है। उसने एक पैर पर
दूसरा पैर चढ़ा लिया। पैर के ऊपर दाहिना हाथ टिका, हथेली पर ठुड्डी रख
ली।
स्टेशन-दर-स्टेशन
मेट्रो में चढ़ती स्त्रियों के रेवैये को देख सपना उनके मन का आँकलन करने लगी।
आतीं-जातीं स्त्रियों में कोई इतने हलके से मेट्रो में पाँव रखती कि मानो उसका
फर्श गंदा न हो जाए। उसे धक्का न लग जाए। कोई मेट्रो से होड़ करती हुई-सी जान
पड़तीं। कोई मेट्रो को ही कातर नजर से देखती और सोचती—”दौड़ना
ही किस्मत है। जब तक दौड़ती रहोगी,चाही जाती रहोगी।” कोई आभिजात्य का पुलिंदा लिए चढ़ती तो मेट्रो ही संकोच में आ जाती। सपना ने
आँखें झपकाईं और तब तक गाड़ी अगले स्टेशन पर जा खड़ी हुई। एक स्त्री आसमानी सिफोन की
साड़ी पहने, चेहरे पर संजीदापन लिए चढ़ी और मेट्रो को ऐसे
देखकर वह बैठ गयी। जैसे रेल, रेल नहीं, उसकी अपनी सहेली के पास वह बैठी हो।
सपना को कुछ
ठीक-सा लगा—-“एक वह जमाना था जब ऑफिस तक स्त्रियों का पहुँचना..
माने एक लड़ाई लड़ना था। जंग जीतना था। काम से पहले हारना-जीतना था। पुरुषों के
भद्दे इशारे,अपने शरीर पर उनकी लिजलिजी अभद्र छुअन…। और माथे
पर नौकरी का दबाव…। तौबा तौबा..!” ख़ासी जद्दोजहद को पार करते
हुए, यह मुकाम हासिल हुआ, हम स्त्रियों
को।”
गुजरे
वक्त के बाबत सपना ने भीगते हुए सोचा। वीतरागी में आँखें मूँद गईं। एसी की ठंडक
पहली बार गालों, कानों, बाहों पर महसूस
हुई। मेट्रो निर्धारित स्टेशनों पर रुकती और चलती रही। महिला आरक्षित डिब्बे में
स्त्रियाँ आतीं-जातीं, बोलती-बतियाती रहीं। अपने भीतर भभकते
अवहेलना के ज्वालामुखी पर ‘फॉरगिव मायसेल्फ’ का जल सपना भी छिड़कती रही।
मन को
शान्ति मिल भी जाती अगर महिला कोच में पल-पल बदलते भदेस स्त्रैण प्रसंगों में वह
कुछ अच्छा सुन पाती। कुछ अच्छा देख पाती, कुछ कह पाती।
नए-नए
स्टेशनों पर चढ़ने वालियाँ नईं-नईं।
गाड़ी रोहिणी स्टेशन पर रुकी। अब की चार भिखारिनें अपनी पोटलियों में जीवन
लेकर चढ़ आयीं। अपने अनुसार वे जमीन पर पसर गयीं। खाली सीटें उन्हें टेरती रहीं
लेकिन वे नहीं उठीं। दमकती नाकों ने महकते रूमाल खोजे,पाँव
समेटे। लगा भिखारिनें नहीं वे कुछ और ही थीं…। अगला स्टेशन…चढ़ने वालियों में एक
माँ…साथ में नाच दिखाकर पैसे की जुगाड़ करतीं दो लड़कियाँ चढ़ी। कई सोफिस्टिकेटेड
स्त्रैण आँखें टिक गईं, बच्चियों की अधउगीं छातियों, कूल्हों, नितम्बों पर…।
“हद है…” सामान्य होने की चाहत में अधिक असामान्य होती, सपना
नाटकीय दृश्यों में खोने लगी….। हर ओर आवाज़ों का बाज़ार, शिकायतें,
खिल्ली उड़ाने के नए-नए अंदाज के बीच मरियल निरीह आवाज़ें।
बॉस
की रंगीन मिज़ाजी में फँसी मित्र की हँसी उड़ाती लड़कियाँ…। ब्यॉय फ्रैंड्स से पैसे
ऐंठकर, सबक सिखाती युवतियाँ। बेवफ़ा पतियों की पत्नियों के
सिसकते किस्से। बच्चों को पाठ रटवाती माएँ। चेहरे से बेबसी-लाचारी टपकती हाउस
वाइफ़। ग्लानि और बेरंग धब्बों में लिसे-पुते चेहरे लिए कामवाली बाइयाँ। सब एक जगह।
सब सफ़र के मध्य बिंदु के इर्दगिर्द घिसटती हुईं…।
“कैसी-सी है ये दुनिया…?
जब-जब लगा कि मैंने इसे पूरा नहीं तो थोड़ा तो समझ ही लिया है,
ये पूरी नब्बे डिग्री पर घूमकर बैठ जाती।”
सपना को लगा,
कोई बिना धारदार चाकू लिए धीरे-धीरे छील रहा है उसे।
“किसी
लड़के को ब्यॉय फ्रेंड्स का तमगा देकर ठगना। सीधे-सादे लड़कों की जड़ों में नमक
डालना...। अपने जैसी दिखने वालियों का मज़ाक उड़ाना। क्या इसलिए जीवन के केद्र में
आने को छटपटा रही हैं स्त्रियाँ..? समानता की पैरबी करने
वालियों को अपनी अस्मिता की फ़िक्र है…, और दूसरे की
अस्मिता..? उसकी धज्जियाँ उड़ाकर मज़े लूटने की प्रवृत्ति …?
कब आकर पैठ गयी इनके भीतर?”
डिब्बा स्त्रैण गमक से गमक रहा था। राजीव चौक मेट्रो स्टेशन से कुछ
खुशमिजाज़ चेहरे नमूदार हुए। लगा कह रहे हों ‘जस्ट चिल यार..’
पर कैसे…? सपना ने बोतल से पानी पिया। चश्मा
उतार कर आँखें साफ की। तमतमाए गालों को ठंडी हथेलियों से सहलाया। धीरे-धीरे मन की
मलामत जब शांत हुई तो अनाउंसमेंट पर उसका ध्यान चला गया।
मंडी हाउस के बाद प्रगति मैदान फिर जैसे ही लक्ष्मीनगर आने की पुकार हुई।
उसे अटपटा-सा लगा। रोज तो लक्ष्मीनगर मिलता नहीं। उसने बगल में बैठी स्त्री से
पूछा।
“लक्ष्मीनगर के बाद
कौन-सा स्टेशन…?”
“निर्मल विहार…!”
“नोयडा इलेक्ट्रोनिक
सिटी..?”
“नहीं, ये वैशाली रूट है मैम?”
“ओ…! नो। मैं गलत
मेट्रो में चढ़ गयी थी? फिर से एक लेट…।”
“यमुना बैंक से आप
दूसरी मेट्रो ले सकती हैं। बस अगले स्टेशन पर उतर कर बदल लें…।”
“बहुत शुक्रिया..।”
“आप खड़ी हो जाएँ…आने
वाला हुआ …।”
“ओके स्योर! थैंक्स
वन्स अगेन।”
“बाय मैम! नो प्रोब्लम।”
यमुना बैंक से सपना ने मेट्रो बदली तो महिलाओं का डिब्बा खचाखच भरा मिला।
कहीं पाँव रखने की जगह नहीं। हर ओर स्त्री ही स्त्री। शरीर छूने, धक्का लगने से बेफिक्र होकर वह पोल पकड़कर खड़ी हो गयी। सुंदर स्त्रियाँ,
कम सुंदर स्त्रियाँ, पढ़ी स्त्रियाँ, गोरी स्त्रियाँ, साँवली स्त्रियाँ, कम पढ़ी स्त्रियाँ, शहर की स्त्रियाँ, गाँव की स्त्रियाँ, दिल्ली की स्त्रियाँ, विदेसी स्त्रियाँ…।
सब स्वतंत्र,सब
स्वावलंबी। सब निर्द्वंद्व। सब आत्मनिर्भर!
स्त्रैण
आवाज़ें अपनी तरह से सपना तक आवाजाही करने लगीं। स्त्री समृद्धि की एक पुलक ने उसे
भर दिया—“खुला आकाश अब स्त्री का है। जितना नाप सके ये धरती
उसकी अपनी है। दिशाएँ बाहें फैलाकर स्त्री को गले लगाने को तैयार हैं। सुहाना सफ़र!
अपना सफ़र! स्त्री-निजता से भरा सफ़र!”
उसने मचलकर
अपनी-सी दिखने वालियों को देखा–
किसी की
बोली में शहर मचल रहा था। किसी के मन में जिद्दी गाँव अब भी फँसा बैठा था। कोई
फर्राटेदार अंग्रेजी बोल रही थी। कोई हिंदी-इंग्लिश दोनों को साध रही थी। कोई
एलीटवर्ग से होने का दंभ लिए अकड़ी खड़ी थी। कोई नाक-भवें समेटे अपने आभिजात्य के
प्रदर्शन में अड़ी थी। कोई इसलिए अपनी शहरी सखी को ‘यस-नो’
में उत्तर दे रही थी क्योंकि समझा जाए, उसका
वास्ता दूर-दूर तक गाँव से नहीं है। अपने प्रति बॉन्डिंग प्रदर्शित करती स्त्रियों
की अपनी-अपनी कहानियाँ।
सपना का ध्यान
परिधानों पर चला गया।
किसी ने सूट पहना था। कोई साड़ी में सोहनी लगी। कोई लॉन्ग स्कर्ट में दिखी।
कोई मिनीस्कर्ट में टिप-टॉप…। किसी ने अपनी सपाट छातियों को पैडिंग-ब्रा से उभारा
था। किसी ने बेडौल स्तनों को तारों वाली स्पेशल ब्रा से जकड़ रखा था। किसी के
स्लीवलेस ब्लाउज से बगलें झाँक रही थीं। किसी के टॉप का गला इतना गहरा कि छाती की
हड्डियाँ दिख रही थीं। कोई ढीले-ढाले कपड़ों से टिप-टॉप बाहर निकल रही थी। कोई इतने
फिटिंग के कपड़ों में चढ़ी कि लगा अब सीवन उधड़ी कि तब…। किसी ने सिर पर फुंदने वाला
बंदाना बाँध रखा था। किसी का गला रंगीन मोतियों की माला से भरा था।
सपना ने अपने मन को स्त्रियों के पहनावे और कपड़ों से हटा लिया। आँखें
बंदकर अपने काम याद करने लगी। बॉस के साथ मीटिंग है। याद आया उसे। आँखें खुलीं—अब
उसका ध्यान स्त्रियों के शरीर पर यहाँ-वहाँ गुदे टैटुओं पर चला गया।
किसी स्त्री की गर्दन पर टैटू। किसी की पिंडलियों पर। किसी की कमर पर
नाम-टैटू। किसी की कलाई पर मोर पंख वाला टैटू। किसी की पीठ पर फूलों पर बैठी
तितली। किसी की बाजूबंद पर नाग वाला टैटू। किसी की ठुड्डी पर तीन बिंदी। किसी के
गर्दन पर लाल-नीला ‘लव’ टैटू देखकर
उसका मन थरथरा उठा। उसने नजरें झुका लीं। थोड़ी देर में एक नीग्रो महिला कोच में
नमूदार हुई। वह भी जगह बनाकर खड़ी हो गयी। सपना के पास खड़ी लड़कियों का हुल्लड़
शुरू हुआ और बढ़ता चला गया।
“ओहो हो क्या माल पाया
है…।”
“बेला! उसे
देख!....देख तो ज़रा!”
“क्या ? किधर ? कुछ तो बता! किसे देखूँ?”
“अरे! उधर, उस हंसनी को !”
“हंसनी …? उस कल्लो को…?”
“हाँ हाँ बिलकुल ..?
ऐसे मत बोल। बस देख…।”
“हाँ,अब बता भी दे… देखूँ क्या?”
“तुझे अब तक दिखा नहीं ?”
“नहीं… बोल न…!”
“अरे यार तू भी डफर
है…। दो पहाड़ों पर कमल खिले…! नहीं दिखे तुझे..?”
“उप्स !”
“हे कमलासिनी पधारें!
आपका सिंहासन पुकार रहा है।” एक मोटी आवाज उभरी।
"अरे! क्या कहती
है तू! पहाड़ों पर नंदीश्वर रहते हैं। उन्हें बुलाओ मेरी जान!"
"हा हा हा …,
तुम सब चुप करो…! मैं क्या कहती हूँ, उसे
सुनो।”
“क्या ?” एक साथ सभी लडकियाँ बोलीं।
“इन पर्वतों पर कोई तो
झंडा गाड़ दो यार..?"
“हा हा हा हा हा हा ।”
समवेत स्वर उभर
कर कोच की छत से जा लगा। उतरने वाली उतरती रहीं और चढ़ने वाली चढ़ती रहीं।
भद्दे कमेन्ट करने वाली लड़कियों की नज़रों का पीछा करते हुए सपना ने देखा।
सब लडकियाँ एक नीग्रो स्त्री पर फब्तियाँ कस रही थीं। अश्वेत स्त्री हिन्तुस्तानी
हँसी से बेख़बर अपने में अडिग खड़ी थी। उसके उभार शल्यचिकत्सा (बोटेक्स) की बानगी दे
रहे थे। उभारों पर नीले-सफेद कमल वाले टैटू दमक रहे थे।
सपना का मन अपने
पास खड़ी लडकियाँ पर चला गया। वे अब भी खिल्ली उड़ाने के मूड में दिख रही थीं। वह
बोलना नहीं चाहती थी, बोल पड़ी—
“मैंने तो आज तक सुना था कि फब्तियाँ कसने का काम पुरुषों का है.…? वे ही उद्दंड,असभ्य, लंपट
माने जाते रहे हैं। जो तुम्हारी भाषा ही नहीं जानती हो, उसकी इंसल्ट, बेइज्जती करने का फायदा क्या ?
अपने जैसी दिखने वाली के लिए बोलो तो अभी के अभी आटा-दाल का
भाव पता चल जाएगा। सच कहूँ– तुम लोग उस अश्वेत स्त्री का मज़ाक नहीं उड़ा रही हो,
बल्कि समस्त स्त्री-जाति की तौहीन कर रही हो।”
लड़कियों
के जत्थे ने उसे आड़े हाथों लेना चाहा। सपना के तेवर कड़े थे। एक अधेड़ महिला सपना की
तरफ से बोली–
आपने
सही समय पर इन लड़कियों को टोका। वाकई एक लम्बे समय से जद्दोजहद करने के बाद
स्त्रियों को आज़ादी हासिल हुई है। स्त्रियाँ अकेली बाहर निकल पा रही हैं।
स्वतंत्रता से घर-बाहर के निर्णय ले पा रही हैं। अपने होने को और भी सुदृढ़ बनाना
चाहिए, न कि आपस में एक-दूसरे की खिल्ली उड़ा कर, किसी स्त्री को हतोत्साहित करें। जिस भाषा में
ये सब उसकी हँसी उड़ा रही हो, वह भाषा उसे आती ही नहीं…।
“शुक्रिया! आप इन्हें बताएँ— वह अश्वेत महिला इनकी भाषा नहीं समझ रही है,
इसीलिए ये लोग उस पर हँस रही हैं। भूल रही हैं ये लोग—शरीर की भी
अपनी भाषा होती है। जो अच्छे से समझ भी आती है। वह ज़रूर इन्सल्ट महसूस कर रही
होगी।
“सच
कहा आपने! ये लोग पराये देश की स्त्री का अपमान तो कर ही रही हैं, साथ में ‘अतिथि देवो भव’ की
अपनी संस्कृति को भी आहत कर रही हैं।”
अभी
तक कई अधेड़ स्त्रियों की सहमतियाँ, इन दोनों को मिल चुकी थी।
देखते-देखते महिला कम्पार्टमेंट में गलत-सही की एक बहस-सी छिड़ गयी। दो पारियों में
स्त्रियाँ बंट गयीं। सपना की ओर कुछ युवा लडकियाँ थीं। सपना को इसका संबल था।
अश्वेत स्त्री की हँसी उड़ाने वालियों के साथ कम स्त्रियाँ नहीं थीं, मगर उनके चेहरे लटक गये थे। वे सब उग्र थीं। झपट्टा मार कर सपना को खा
जाने वाली निगाहों से घूर रही थीं।
“ये
लड़कियाँ ख़ुद को स्मार्ट भले समझ रही हों लेकिन इनका ये व्यवहार अभद्रता में गिना
जाना चाहिए। अच्छा, मेरा स्टेशन आने वाला है। पर मैं ये ज़रूर
कहूँगी कि इन सबको सॉरी बोलना चाहिए…।”
सपना अपने
स्टेशन पर उतरने के लिए दरवाज़े की ओर घूम गयी।
“सो व्हाट…?” लड़कियों के आक्रामक स्वर उसके कान के पास उभरे।
“ट्राई टू अंडरस्टैंड
व्हाट आई सेड!”
कहते हुए
सपना उतर गयी। काफ़ी देर से चुप खड़ी लड़कियों की हँसी ने उसका पीछा किया। वह बिना
ठिठके आगे बढ़ गयी।
मन आंदोलित
था। धड़कनें बेकाबू। उसने रिक्शा को हाथ दिया। रिक्शा रुका, वह
ऑफिस की ओर निकल गयी।
आक्रामक उत्तेजना लिए जैसे ही सपना केविन में पहुँची ‘रेड मार्क’ लगा रजिस्टर उसकी टेबल पर रखा मिला। बगल
के केविन में बैठे श्रीकांत ने चश्मा नीचे कर मुस्कुराते हुए उसे देखा— मानो कह
रहे हों—“लाल निशानों के मामले में अब हम बराबर हुए।”
उन्हें अनदेखा
कर सपना सीट पर बैठ ही पायी थी कि बॉस का बुलावा आ गया।
दराज से फ़ाइल और डायरी लेकर वह बॉस के केबिन में चली गयी। जब लौटी,
उसके कंधे झुके और पाँव बोझिल पड़ रहे थे। “घर
हो या ऑफिस स्त्री को ही इतना काबिल क्यों समझ लिया जाता है? कि उसके अलावा कोई और ये काम कर ही नहीं सकता…।” खुद
पर किलसते हुए सपना समझ गयी…आज भी वह अपनी रिपोर्ट कलेक्ट करने नहीं जा पाएगी।
लेकिन रिपोर्ट आज ही लाना ज़रूरी है। दो मिनट सोचकर सपना ने अपने घर फोन लगा दिया—
“हेल्लो…!”
“हाँ, बोल रहा हूँ…!”
“तुम अभी तक निकले
नहीं…?”
“बस निकलने जा ही रहा
हूँ।”
“चलो अच्छा हुआ।”
“.........”
“जयंत! मुझे लौटने में
आज भी देर हो जाएगी। मैं रिपोर्ट कलेक्ट नहीं कर पाऊँगी…। तुम ले आओगे?”
“कन्ट्रोल योर सेल्फ!
जब डॉक्टर ने बोल ही दिया है कि ‘आल इज़ गुड’ देन रिपोर्ट के चक्कर में क्यों पड़ी हो सपना ?”
“हद है.! कहना क्या
चाहते हो ?
“वही, जो तुम सुनना नहीं चाहती…। एक तो मेरे पास समय नहीं है। दूसरे बेमतलब की
आवाजाही से मिलेगा क्या? अरे! कागज़ का टुकड़ा है।….यहाँ
पड़ा रहे…. या वहाँ…!”
“अच्छा,तुम्हारे लिए होगा कागज़ का टुकड़ा…। चलो छोड़ो…। मुझे कुछ कहना-सुनना है
ही नहीं।”
“देन लीव इट! ओके बाय!
बाय!”
“हेल्लो, मिस्टर जयंत..! रिपोर्ट तो आज ही चाहिए। कैसे…? उसे
आप समझो…बट एनी हाऊ…।”
“.............”
“जहान भर का रूखापन
मेरे ही हिस्से आना था।” बुदबुदाते हुए सपना ने फ़ोन पटक
दिया।
कुछ
बातें हवा में समाई होती हैं, और जहन में गहरी तासीर के साथ…
एकबरगी खुल पड़ती हैं। जयंत धैर्य चुकने के बाद वाली सपना को अच्छी तरह से जयंत
जानता है। उसके पास ‘न’ कहने का अब कोई
चारा नहीं बचा था।
********
पाखी के जुलाई-
अगस्त अंक में कहानी प्रकाशित है.
कहानी पढ़नी आरंभ की तो पढ़ती ही चली गई, स्त्री मन की गिरहों को खोलती यथार्थवादी, प्रभावशाली कहानी!!
ReplyDeleteबहुत आभार आपका अनीता जी
Delete