चित्र : गूगल से साभार एक नई शुरुआत वे खुशनुमा मार्च के दिन थे। गुनगुनी बताश में तितलियाँ अठखेलियाँ कर रही थीं। सुनहरे दिनों की आमद , ललिता के घर काम का सैलाब ले आई थी। ऊनी कपड़ों की पोटलियों में नैपथलीन की गोलियाँ डाल कर संदूक में सुरक्षित कर दी गई थीं। गर्मी के कपड़े दुरुस्त किए जा रहे थे। पुरानी साड़ियों की धज्जियों से पांवदान बनाये जा रहे थे। नयी साड़ियों में फ़ोल टाँकी जा रही थी और उनके मैचिंग ब्लाउज सिले जा रहे थे। बची कतरन से हथपंखों में फुंदने लगाए जा रहे थे। बिजली चली जाने पर इन्हीं पंखों का उपयोग ललिता चाव से किया करती थी। इस तरह समझा जा सकता था कि वह भले नौकरी-पेशा स्त्री नहीं थी पर कामों की उसके पास कोई कमी नहीं थी। पति के ऑफिस की पार्टियों में जाना , सैर करना , कहीं घूमने-फिरने के लिए जाना और किसी के पास बैठकर खाली समय में बिताने को वह पाप समझती थी। वहीं उसका पति उसके इस तरह के जीवनयापन पर उसे अन्तर्मुखी , घुन्नू , घर-घुस्सू , अकुशल एवं अव्यवहारिक स्त्री कहता थकता ही नहीं था। ललिता को इस बात का कोई मलाल भी नहीं था। " किसी को कुछ भी मान लेने में दोष उसी दृष्टि का
कल्पना मनोरमा का जन्म जून 1972 को उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में नाना श्री रामकिशोर त्रिपाठी के घर हुआ. लालन-पालन, बाबा श्री विजय नारायण मिश्र के घर हुआ. स्कूली शिक्षा मामा श्री रामविनोद त्रिपाठी जी के सानिद्ध्य में सम्पन्न हुई. ( हिंदी-संस्कृत) विषय में स्नातक और (हिंदी) विषय में परास्नातक और बी. एड. की शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ कई अन्य शिक्षात्मक कोर्स करने के लिये कल्पना के पिता पी.एन. मिश्र ने और कुछ पति राजीव बाजपेयी ने उसे कानपुर विश्वविद्यालय से लेकर जम्मू विश्विद्यालय और भारत के अन्य शहरों में रहकर पढ़ने के अवसर प्रदान करवाए हैं. कल्पना ने पुनः इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में हिदी विषय से एम.ए. की डिग्री ली क्योंकि उस का मानना है कि कुछ सीखते रहना मन को स्वस्थ्य बनाये रखना है . जैसे शरीर को स्वस्थ्य रहने के लिए सुबह की सैर करते हैं. यादें ताज़ा रखने के लिए उनको अपने मन से कभी अलग नहीं होने देते हैं. ठीक उसी प्रकार मन को जवान रखने के लिए कुछ सीखना ज़रूरी है..खैर...! इस सबके बावजूद भी कल्पना ने काफ़ी
ये दिन कोयल के नहीं , चातक के हैं। उस चातक के जिसके द्वारा विरह में तप्त नायक या नायिका अपने प्रिय तक प्रेम का संदेश पहुँचाना चाहती है । मगर पपिहे जैसे लेन-देन के बन्धनों से मुक्त ग्रीष्म ऋतु में कोयल स्वछंद अमराई से लदे बागों की सैर जीभर करती है । जब कोयल सुधायुक्त बोली में बोलती है तो आम की मंजरियों के बहाने स्थिर व अडिग दरख्तों के स्वर काँपते-थरथराते हुए संगीत बन जाना चाहते हैं। कोयल की कूकों में प्रकृति पंचम-स्वर का आनन्द ले अमराई की मादक गंध में झूमने लगती है। मौसम के अवदान पर मानव मन की थकन , पीड़ा , अवसाद और बेचैनी भी कम समय के लिए सही , कमने ज़रूर लगती है। मगर चातक निर्द्वंदी है। उसमें कोयल की तरह न रिझाने का गुण है और न ही धरती के सरोकारों से कुछ लेना-देना है। हाँ, अपनी पिहू-पिहू से विरही मन की वेदना को बढ़ा कर सातवें आसमान तक लगा देता है । पपिहे की पिहू पिहू विरह वेदना में जकड़ी नायका को पिया-पिया सुनाई पड़ने लगती है । पर चातक एक ऐसा जीव है जो टकटकी बांधे बस आसमान को एकटक निहारता रहता है। आसमान की छाती पर छाए काले मेघों में स्वाती नक्षत्र की बूँदें मचल-मचल उठती हैं। उन्ही
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