‘उदासियाँ’
एक पेंटिंग साझा कर रहा हूँ जो मैंने आज की थी।( 13-11-2023)
बिना शीर्षक: 5.6"×7 । 6",
कागज पर तेल पेस्टल और एक्रिलिक : प्रयाग शुक्ला
‘उदासियाँ’
सुनो, भरी दीवाली में उदासियों का राग छेड़ कर जो
बैठे हो,मैं नहीं सुनूँगी। अपने को उदासियों की कतरन से नहीं
भरूँगी। अभी कल ही तो रोशनी आई थी चहलकदमी करते हुए हमारे घर। क्यों बंद कर लिया
था तुमने अपने मन के मर्तबान का मुँह। तुम मुझे ही क्या किसी भी स्त्री को देख लो,
स्त्री अपने होने में हर वक्त व्यस्त है। वह व्यस्त है इसलिए
खुबसूरत और ज्योतिर्मय भी है।
बात करनी है तो स्त्री के पीछे फैली नीरव उदासी की करो। दीवाली के तुम तक
न पहुँच पाने की करो। संसार से विरक्त,अपने में अडिग और
अकेलेपन को पीते हुए इस घर की करो। ऐसी जानलेवा अबोली चुप्पियाँ कोई-कोई ही
बर्दास्त कर सकता है। उदासियाँ कहीं से भेजी नहीं जातीं। बनाई भी नहीं जातीं। उगाई
भी नहीं जातीं। उदासियाँ मन के किसी अज्ञात कोने में जन्मती हैं, और तुम्हें पता भी नहीं चलता। उदासियाँ मन के गिर्द रहकर ख़ुशी के तंतुओं
को खाती हैं।
उदासियों का अपना कोई शरीर या धर्म नहीं होता। उदासियाँ कब्ज़ा करती हैं।
किसी ताकतवर गुंडे की तरह तुम्हारे किसी कमज़ोर पल को चुनकर तुमसे छीन लेती हैं।
फिर तुम्हारे मन पर कब्ज़ा कर लेती हैं। उसके बाद तुम्हारे काम-धंधे, घर और हर उस जगह पर काबिज हो जाती हैं जो समय की हथेली पर रुक गया है। थम
गया है। जिसमें त्वरा का ह्रास हो चुका है। जो विकल है। तुम्हारे हाथों से छूटता
जा रहा है।
जब गहरी उदासियाँ मौन हो तुम्हें थाम लेती हैं, उसके बीच भी मौसम वाचाल रहता है।
जानते हो क्यों? क्योंकि मौसम में त्वरा है। मौसम
लगातार चलता रहता है। अपने को बदलने की तमन्ना रखता है। अब देखो न बाग़ में पसरी
हरीतिमा कंद-मूल होने को व्यग्र भले हो पर पत्तियों में जकड़ी रहती है। क्योंकि
जड़ें, पत्ती या तना बन ही नहीं सकतीं। अगर ऐसा हो सकता तो
शायद उदासी का आविष्कार ही नहीं हुआ होता। हम जब भी उदास होते तो हँसमुख इंसान से
ख़ुशी उधार ले लेते। कुछ समय के लिए ही सही बदल लेते मन के वातावरण को। जब उदासी का
विलय हो जाता तो लौटा देते उसकी ख़ुशी जिसने सहज ही दे दी थी।
रंगहीन छवि मन को मलिन करती है। नहीं। ठहराव धूसर होता है। निरंतर प्रयास
की कमी धीरे-धीरे ठहराव को जन्म देती है। और वहीं कमज़ोर मन के किसी क्षण में उदासी,
दुःख, क्षोभ और सन्नाटे उत्सर्जित हो पड़ते है।
रंग तब तक रंगत नहीं बिखेरते जब तक उनके डिब्बों को खोलकर किसी चित्र,वस्तु या केनवस पर एप्लाई नहीं किया गया हो। रंग तूलिका के सहारे वस्तुओं
को नहीं, हमारे मनों को रंगते हैं। दीवाली बाहर का मुआमला
नहीं, बेहद पर्सनल है।
दीवाली राम को हम तक पुनः - पुनः लौटा लाने का कार्य करती है। हमारी
स्मृतियों को धार दे कैकेई, मंथरा और दशरथ की निरीहता को
उजागर कर देती है और जिद्दी बरसात को स्थगित कर मौसम परिवर्तन की पुष्टि करने आती
है।
तुम दीवाली की उजास, गुनगुनाहट और मिठास तभी महसूस
कर सकते हो, जब तक कि उसके उल्लास को ज्यों का त्यों महसूस
कर उसकी क्षमता को धारण नहीं कर लेते हैं। उदासियाँ सिर्फ तुम्हारे पास ही नहीं,
दीपक की तली में भी छिप सकती हैं। लेकिन एक दीपक के पास अगर दूसरा
दीपक जला दिया जाए तो दोनों दीपकों का परिवेश रोशन हो जगमगा उठता है। दीपक
मिल-जुलकर एक दूसरे के इर्दगिर्द की कालिमा को भक्षण कर उजाले से मन भर लेते हैं।
उदासियाँ किसी अकेले को चुनती हैं। उदासियाँ मित्रता, मेल-मिलाप, गपशप से कन्नी कटती हैं।
इस बात को समझो ज़रा और चलो, उठो! बढ़ो किसी की ओर.... !
कल्पना मनोरमा
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