करवाचौथ बनाम स्त्री

2023 करवाचौथ 

करवाचौथ उपवास, व्रत, उत्सव, ज़िम्मेदारी, जबरदस्ती, दिखावा, फैशनपरस्ती और न जाने क्या-क्या सुनकर ये तिथि भी बीत गई। कहने सुनने वालों को भी एक साल के लिए फुरसत मिली।

कई दिनों से कई मित्र कभी प्रश्नों के रूप में, कभी व्यंग्य के रूप में, कभी मखौल के रूप में और कभी हो सकता है कि सद्भावना के आलोक में एक दूसरे से #करवाचौथ का महत्व, उसकी उपयोगिता और प्रामाणिकता को लेकर चर्चा में लिप्त रहे हों।

वैसे तो कतई जरूरी नहीं था, इसमें उलझना क्योंकि मेरे पास कई पुस्तकें पढ़कर उन पर लिखने का दवाब लगातार बना हुआ है लेकिन आज मन अड़ गया, इस विषय पर बात करने के लिए।

तो सबसे पहले तो ये कि जैसे एकादशी, पूर्णमासी, प्रदोष आदि व्रत रखने का लोक विधान है, उसी तरह ये गणेश जी को केंद्र में रखकर कार्तिक मास में पूर्णमासी के बाद पड़ने वाली चौथ तिथि का व्रत है। जिसे स्त्री पुरुष दोनों रख सकते हैं।

अब बात आती है #करवाचौथ का व्रत उपवास शास्त्र सम्मत है या इसकी निर्मित हुई कहाँ से है?

बहुत सोचने के बाद मेरा ध्यान उस काल पर गया, जहाँ मनुष्य इतना लायक हो गया था, उसने आग की खोज कर ली और ये अविष्कार जब मानव ने कर लिया तो उस खोज ने मानव सभ्यता की दशा और दिशा बदलने में खासी भूमिका अदा की। आग खोजने के बाद से ही मानवीय क्रिया-कलापों में भारी परिवर्तन आता चला गया। शायद सुबह का जुटाया भोजन वह रात तक चलाने लगा।

मैं इतिहास की विद्यार्थी तो कभी रही नहीं लेकिन जितना पढ़ा और सुना उसके आधार पर बात रख रही हूँ।

और वैसे भी संसार के अपने नियम हैं। प्राकृति क्रिया-कलापों की अपनी एक निश्चित समयावधि है, उसी में जगत उगता और तिरोहित होता रहता है। एक बात।

दूसरी ये कि कुछ परम्पराएँ शास्त्र-निर्मित होती हैं तो कुछ लोक-निर्मित...।

लोक ने जो विकसित किया उसमें कुछ मान्यताएँ पुरुषों ने बनाई तो कुछ स्त्रियों ने भी परंपराओं को गढ़ा, गठन किया। यानी आग की खोज के बाद मानवीय दैनंदनी बदलती चली गई। जब मनुष्य जीवन में संग्रह करने की आदत जन्मी तभी से उसके कार्यों में बढ़त होना शुरू हो गयी। क्योंकि इच्छाओं के पात्र में तली का विधान नहीं है। मनचीता पाने के लिए मानव कोल्हू का बैल बनता चला गया। खैर।

अब अगर #करवाचौथ उपवास की बात करें तो इस व्रत को अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग तरह से मानने की विधि है।

कहीं निर्जल रहने की व्याख्या है। जहाँ स्त्रियाँ घर के काम करती थीं वहाँ वे निर्जल रहकर दिन साध लेती थीं। जहाँ फलाहार कर व्रत संपन्न करने का विधान है। वहाँ स्त्रियाँ खेतों में पति के साथ काम करती थीं इसलिए निर्जल व्रत रखना उनके लिए कष्टप्रद होगा और उनकी मान्यताओं ने उन्हें फलाहारी......।

कहीं स्त्रियाँ सोहल शृंगार करती हैं तो कहीं पाँवों में आल्ता और सिंदूर लगाने भर से उनका शृंगार पूर्ण हुआ मान लिया जाता है। कहीं सारा दिन व्रत रखकर लोक कथाओं का वचन कर रात्रि में चाँद को अक्षत और अर्घ देकर बड़ों का आशिर्वाद लेकर व्रत तोड़ने की परम्परा है। तो कहीं पति की पूजा की जाती है। जहाँ पति की पूजा की जाती है, वहाँ चलनी में दीप आदि रखकर देखने का रिबाज़ है।

इस बात को यही छोड़ते हुए, बात करते हैं "करवाचौथा व्रत बनाम स्त्री"

तो मुझे लगता है जब मानवीय परंपराओं ने जन्म लिया था तब तक न उन्नति जन्मी थी और न ही विकास का जन्म हुआ था।

अर्थात स्त्री-पुरुष दोनों को अपने बाल-बच्चों का पालन-पोषण करने के लिए बिना सजे-संवरे दिन-रात खटना पड़ता था। चूँकि पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियाँ दोयम मानी जाती थीं इसलिए त्याग, तपस्या आदि के लिए ज्यादातर मान्यताओं और परंपराओं के निर्वहन की जिम्मेदारी स्त्री ने स्त्री पर थोपी।

इस संसार में स्त्री बेहद प्रेमिल जीव है।

स्त्री जब किसी से प्रेम करती है तो कुछ भी कर सकती है। उसी धुन में एक स्त्री, दूसरी स्त्री को संघर्षों में डालती है क्योंकि उसके बलिदान से उसके बेटा, भाई, पिता खुश रहेंगे।

सनद रहे यू पी हो या हरियाणा, बिहार हो या पंजाब या अन्य कोई भी राज्य सभी जगह जाकर अगर देखो तो स्त्री के पास परम्पराओं के निर्वहन की ज़िम्मेदारी पुरुषों से अधिक है। वे पूरे वर्ष जब तक क्वारी रहती हैं तब तक भाई और पिता के लिए, शादी के बाद बेटे और पति के लिए देव मनाती रहती हैं।

मुझे लगता है कि व्रत-उपवास से किसी को कोई चिढ़ नहीं है।

तो चिढ़ है किसकी जो सारे काम छोड़कर लोग #करवाचौथ व्रत की उपादेयता के बारे में चिंतित हैं और लगातार चर्चा करते जा रहे हैं।

सजना-सँवरना स्त्री का अधिकार है।

हमारी पुरखिन स्त्रियों ने इसी बिना पर साल में एक व्रत सुहाग से जोड़कर करने की परंपरा बनाई होगी। क्योंकि उस दौर में सजने-संवरने के साधन भी कम थे और शादी के बाद स्त्री के सिर पीसना, कूटना, थोपना, परोसना और आदमी की दर्जन भर औलादों के लालन-पालन करने की अधम जिम्मेदारी थी। इन कार्यों के बीच स्त्री, स्त्री कम माटी की ढेर ज्यादा लगने लगती थी।

कम से कम साल में एक बार स्त्री अपने प्रति सचेत हो। अपना होना महसूस कर सके, पुरखिनों ने साल में एक व्रत सुहाग-उत्सव के नाम से मुकर्रर कर दिया। यही नहीं स्त्री की पुरखिन स्त्री कितनी चतुर थी, उसने उस व्रत को पति से जोड़ दिया। उस व्यक्ति से जो स्त्री बिना पढ़ी होती थी इसलिए काम क़ाज करने बाहर कैसे निकलती, उसके भरण-पोषण के लिए पुरुष ही काम करता था। बस आलसी से आलसी स्त्री साल में एक दिन भूखे रहकर व्रत उपवास में लीन हो जाने लगी।

इस व्रत को कौन कैसे मनाता है, वह उसकी रुचि अभिरुचि पर लागू होता है। वैसे नकल की नकेल अनजाने भी कभी-कभी कस जाती है। या किसी के द्वारा चमक-दमक वाली नकेल जानकर भी स्वीकार कर ली जाती होगी। नहीं पता।

मगर एक कहावत है जिसका अर्थ अच्छे से जानती हूँ।

"पूछ-पूछ कर साधे जोग, छीजे काया, बाढ़े रोग।"

माने स्थान-स्थान के व्रत-उपवासों के बारे में पता लगाकर उन्हें किया जाए तो उससे शारीरिक हानि के साथ-साथ अस्वस्थता भी बढ़ सकती है।

जब मैं पहली बार घर छोड़ बाहर निकल रही थी-- मेरी माँ ने एक ही बात कही थी,"पूछ-पूछ कर साधे जोग, छीजे काया, बाढ़े रोग।" यानी जो अपनी पीढ़ियों से चली आ रहीं मान्यताएँ और परम्पराएँ हैं, बस उनका निर्वहन भी यदि मैंने कर लेती हूँ तो मेरा बहुत कल्याण हो जायेगा। उनका आशय रहा था।

आज करवाचौथ किसी फिल्मी शूटिंग के जैसा कुछ-कुछ होता जा रहा है। इंटरनेट और संसार-गाँव में सिमट जाने वाली युक्ति या दुनिया मुट्ठी में आने से भी तमाम सहूलियतों के साथ गड़बड़ियाँ भी बहुत पैदा हुई हैं। एक मिनट में हम ईरान से तूरान तक की खबरे तस्वीरों के साथ देख सकते हैं।

और बाजार की तो वैसे भी एक कोशिश और नज़र स्त्री पर हमेशा टिकी रहती है।

बाज़ार की नियत भोगवादी है। वह स्त्री को भावनात्मक-लिजलिजा जीवन जीने के लिए उकसाता है और .....रहेगा। बाज़ार कभी नहीं चाहेगा कि स्त्री चिंतनशील और अपने होने में तटस्थ रहे।

बाज़ार की अवसरवादिता को जागरूकता से ही नकारा जा सकता है।

यह जो जीवन की चिड़िया है न साहेब! किसी के झाँसे में नहीं आएगी। आपकी आँखों में आँखें डालकर बतियाएगी। अस्तु!

कल्पना मनोरमा



 

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