पक्के मन का कच्चा चिट्ठा

 

पेंटिंग : प्रयाग शुक्ल 

Sharing a painting I did recently.Untitled : 5.6 "× 8 ", acrylic on paper : prayag shukla आ. प्रयाग शुक्ल जी ने इस पेंटिंग का शीर्षक नहीं दिया है इसलिए मैं इसे "जेल प्रेयर्स" शीर्षक से लिख रही हूँ. आशा है पसंद आये...

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पक्के मन का कच्चा चिट्ठा-

तुम जो अविरल मुस्कुराती हो, मुझे क्यों गुनगुनाहट महसूस नहीं होती अब? क्यों में तुम्हारे बाद या तुमसे अलग जीने का अभिलाषी होता जा रहा हूँ? जबकि हम उस चरागाह में कभी गए ही नहीं,जहाँ गायों को दूध बढ़ाने के लिए ग्वाला चराता है. न ही हमने उस दर्पण को देखने की कभी कोशिश की जिसमें हमारी तस्वीर की ओट में तुम छिपी दिखो। भरी नींद में भी हमारी चादर को अपनी ओर नहीं घसीटा।

हमारे तुम्हारे बीच पुल का निर्माण हमने अपनी स्वेच्छा से किया था. फिर ये काँपता क्यों रहता है ?

हम इस पार से उस पार तक की यात्रा में सहज क्यों नहीं हो पाते हैं? हमारे मन के कपाट असमय क्यों खुलते और बंद होते रहते हैं. जबकि हमने अपने सपनों में माता-पिता के साथ घर को देखा, परिवार को देखा और जब तुम आयीं तो तुम्हें भी तुम्हारी पूरी परिधि के साथ देखा और अपनी परिधि में जगह दी. फिर हमारी पतंग कटकर सलाखों के बीच क्यों पड़ी कसमसाती है. हमारा माँझा तो साझा था. कोई अपनी पतंग को भला काटता है?

हमारी आवाज़ अगर पहुँच सके तुम तक तो......!

मजबूत कन्धों वाला लड़का अब किसी लेबोरेटरी में चूहे की तरह अपनी बारी की प्रतीक्षा में है. कई-कई बार स्नान के बाद भी तुम्हारी गंध हमसे अलग नहीं होती. इस बात से हमें क्रोध आता है। जब वह लड़का प्रेम-नदी में डूबना चाहता था. शक के किनारों ने रोके रखा। जंगल में गुमना चाहता था. तारों को बटोर कर बंदवार बनाना चाहता था. हवाओं की रस्सियों पर लटकना चाहता था. अपनी सीटियों पर ट्रेन को रोकना चाहता था. कहां हुई उसकी इच्छाएं पूरी...?

मछली और सीपी के अंतर को समझ कर भी हमने दोनों को मान दिया क्योंकि हम जानते थे कि हर किसी के जीवन के रंग उसके अपने होने में होते हैं. मछली मोती नहीं दे सकती तो सीप किसी भूखे का निवाला भी नहीं बन सकती. आटे की गोलियाँ डाल कर किसी मछली को फाँसने को हमने हमेशा गलत समझा. सीपी के कच्चे गर्भ को क्षति-विक्षित करने में हमारी कोई रुचि नहीं रही. फिर भी तुमने पानी की दीवारों को किसी मछेरे का जाल समझा. क्यों?

कबीर के निर्गुण गाने वाला लड़का लोहे के गीत गाने पर विवश है. सपाट चेहरे वाले कैदी साथी दिखाते हैं आकाश की नीलाई हमें. हम रात में आसमान पर चाँद नहीं युवा दहकते सूरज को देखे हैं. धरती की हरियाली देखना कभी शगल था हमारा.अब शंकाओं, दुखों, पीडाओं के बीजों की पौध उगी दिखती है. अनिच्छा के फूलों का बगीचा हमारे सिरहाने महकता रहता है ।

मौत की मर्जी से जीवन छुआ छुवौयल खेल खेलता है.पहला दांव जीवन लेता है और लगातार दौड़ता रहता है. जानती हो, जीवन को चलने में दाँव खेलने में आनन्द आता है. मौत हाँफती हुई लगातार उसे छू लेना चाहती है लेकिन जीवन ठहरता ही नहीं और जब ठहरता है तो धप्पा देने के लिए कोई बचता नहीं.

हमारा खेल ऐसा तो नहीं.....! तुम खेलो अपना खेल! हम देखेंगे जब तक बचेगी ताकत सीने में....!

वैसे भी "जेल" शब्द अद्भुत है. इससे '' की मात्रा अगर छिपा दी जाए तो ये 'जल' बन जाएगा.

जल और जीवन ख़ुशी के दो नाम हैं.

अब समझ आया......जीवन के अंदर जो ऊँच-नीच घटता है, वह व्यंजनों से नहीं, मात्राओं का लेन-देन हैं.

जेल से छूटकर वर्णमाला में से स्वरों को दुरुस्त कर प्रार्थनाओं में ढालेंगे।

कल्पना मनोरमा

 

 

 

 

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