"पर्यावरण और साहित्य" पेंटिंग प्रयाग शुक्ल जी!

 

पेटिंग- प्रयाग शुक्ल 

"पर्यावरण और साहित्य" पेंटिंग- प्रयाग शुक्ल जी!

सुनो! अँधेरा भले तारों से भरा क्यों न हो,फूलों के रंग चुरा लेता है। तुमने जो गोदना गुदवाया...! अच्छा ठीक है! नहीं कहूँगी गोदना... जो टैटू फूलों वाला बनवाया है, अपने बाएँ कंधे पर,सुबह की बची धूप से उसे ढँक लेना। नीला अँधेरा पसरने वाला है। नहीं पता धूप...? अरे! अपनी कार्गो की जेबों में देखो। सुबह ही तो छिपाई है मैंने उनमें दही के खाली मटके में भरी अरुणिमा को।

 

रात समुद्र के किनारे घूमते वक्त होशियार रहना। नमकीन हवाओं में घुली मिलेगी लहरों की शरारतें और पानी की मिठास। रेत पर शंख मत खोजना। हाँ, किसी मछली को उठाकर फेंक देना पानी में अगर देखना तड़पते हुए।


क्या कहा तुमने? अँधेरा..!


हाँ, अँधेरा यूँ ही नहीं उतरता आसमान से। 


अँधेरा रात की मौलिक प्रतिक्रिया है। जिसे सबसे पहले साँझ बाँचती है। उसी के आलोक में दरख़्त और फिर बाँचता है वह लड़का, जिसने फीस के पैसों में से जोड़े होते हैं कुछ पैसे, मधुमक्खी के शहद की तरह। 


अब उस लड़के के पास पैसे नहीं हैं, काले रंग की बुलट मोटरसाईकल है। लड़का किसी आवारा सड़क के बीचों बीच पढ़ता है, नीले अँधेरे की प्रतिक्रियाएँ काला होने तक पूरे मन से। लड़का जब करता है बातें हवा से तो फुटपाथ पर पिता की साइकिल में बंधे कैरियल पर बैठी एक किशोरी ओढ़ लेती है शरमाकर दुपट्टा क्योंकि किसी की भी प्रतिक्रियाओं से पढ़ा जा सकता है, उसका मन। वह जानती है।


चाँद की आँखों में सपने हैं। चाँदनी का स्पंदन तारों में शामिल है। अंधेरे में कृत्रिम उजाला इठलाता हुआ टूटता है जब बिजली के खंभों से तो रात के कपोलों पर थरथराहट होती है। रेशमी उजालों में प्रकृति की चिबुक पर जड़े बेल-बूटे जगमगा उठते हैं, यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ। 


समझना होगा तुम्हें ये भी कि अँधेरा भ्रमित करता है, दिन को, सूरज को और जीवों को भी....! फिर भी साहित्य अँधेरे में जन्मता है और फैला देता है उजाला किसी के मन में। 


कवि अँधेरे को लिखता है कविता में तो अँधेरा,अँधेरा नहीं, शब्द बनकर अंकित हो जाता है, किसी की यादों का रेत बनकर तो किसी का पैग़ाम बिना पढ़ा...!

कल्पना मनोरमा

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