पत्तियों का संसार

 

चित्र: प्रयाग शुक्ल 

आज बहुत दिनों के बाद आ. प्रयाग शुक्ल जी के चित्र-चरित्र....! - कल्पना मनोरमा 

Sharing a painting I did recently.

पत्तियों का संसार : world of leaves : 7"×7" , mixed media on paper : prayag shukla

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भरे सावन में बादल, बिजली, रिमझिम बुँदें और चंचल पवन जब अपना संगीत छेड़ रहे हों तो चारों ओर इल्ज़ामों, सन्नाटों और विध्वंस का शोर थोड़ा थम जाता है। इसी संधिकाल में एक चित्रकार कला के चितेरों को आवाज़ लगता है,"बहुत हुआ इधर-उधर मन भटकाते हुए अब आओ पत्तियों का संसार देखो और खो जाओ हरियाली की भीनी-भीनी हरी गंध में कि हरियाला सावन उतरा है, मेघों के परों से पत्तियों के आँगन में।


जब तुम हरीतिमा में टिकने की कोशिश करोगे तब मरुथल तुम्हें भरमाएगा लेकिन तुम भूलकर मत देखना उस ओर कि बादलों की मेहनत मिट्टी हो जायेगी। मेरे कैनवास पर उतर आए हैं प्रकृति के रंग-बिरंगे बेल-बूटे मेंहदी का सुर्ख रंग दबा है यहीं कहीं हरी पत्तियों की नरम हथेली में, आओ हम मिलकर उस हथेली को खोलें जिसमें त्योहार की साँझी सुगंध रची-बसी है। बसा है मानवीय ख़ुशी का साझापन. 

 

चित्रकार के आवाह्न पर कला के चितेरे दौड़ पड़े पत्तियों की ओर अपना बेरंग जीवन छोड़ कोने-अंतरे। "चित्रकार पत्तियाँ बनाता है। पत्तियाँ सजाता है। क्या पत्तियों का स्वाद भी जानता है?" किसी नौसिखिए चित्रकार ने जिज्ञासा से पूछा-

"पत्तियों का स्वाद ?" 

"पत्तियों के स्वाद के बारे में ही पूछा...?"

"अगर पत्तियों के स्वाद को जानना है तो चित्रकार से नहीं, कबीर से पूछो। कबीर की उस बकरी से पूछो जो पाती खाती थी। बकरी जानती होगी हर एक पत्ती का आस्वाद।" एक संभ्रांत सज्जन ने गर्दन टेढ़ी कर कहा.

बातों की बहकही सुन घोड़ा हँसा। घुड़सवार हँसा। मैदान हँसा। जंगल हँसा। पेड़ हँसा। पत्तियाँ हँसी। नदियाँ हँसी तो उनके साथ किनारे भी खिलखिला कर हँस पड़े। जब किनारे हँसे तो पुल थरथराया। जब पुल थरथराया तो नदी की तलछट में सोयी मछियाँ काँपी। नन्हीं मछली अपनी माँ की गोद से कूदी तो उसका दिल डोला और उसने चिल्लाकर बोला पत्तियों के हरे होने का राज घोड़ा बतायेगा।


चिड़िया बोली, घोड़ा चने खाता है पर भाव नहीं जानता। चने का स्वाद-भाव घुड़सावर जानता है। क्या घुड़सवार लोहे का स्वाद जानता है? पुल पुनश्य डोला और आनंद से बोला। किसी कवि ने कहा है, घुड़सवार लगाम थामना जानता है, लोहे का स्वाद तो घोड़ा ही जानता है। मछली बोली और नदी मैं तैरने लगी।

अभी तक शांत बैठी हवा बिना पनहीं दौड़ पड़ी तो पत्तियों के पाँव में उलझ गई उसकी हरी चूनर। चूनर को छोड़ मैदान में हवा पेड़ों पर झूल गयी। बकरी के संग-संग डोल गई, लोहे को सूँघती रही और फिर घोड़े की पीठ पर सवार हो ले आई काले पनियाले मेघों को आसमान से। बूँदों का नृत्य जब देखा पत्तियों ने तो हो गईं वे और हरी और चमकदार। देखने वालों ने कहा पत्तियाँ रंग बदलती हैं, फिर भी वे गिरगिट नहीं होतीं। पत्तियाँ गिरती हैं। उठती हैं। इतनी डोलती हैं कि मौसम अपनी चिट्ठियाँ पत्तियों पर लिखने बैठ जाता है।

"मौसम पत्तियों की उँगली थामकर मानव मन का पूर्वानुमान लगाता है। पत्तियों के सहारे वह पेड़ में आकर्षण पैदा करता है और वही आकर्षण संसार को बाँध लेता है।" 

किसी बच्चे ने कहा एक भावुक ग्वाले से जो चरा रहा था अपनी गाय सूखे मैदान में। ग्वाला नाच उठा मौसम की मनुहार पर। उसके नाच पर गाय नहीं डोली, उसका बछड़ा डोला, जिसे देख सावन झूम-झूमकर बरसा किसी बेपत्ती मैदान की काया पर। माटी के भीतर सोई पत्तियों ने ली अँगड़ाई और इस तरह एक चित्रकार सावन के साथ उतार सकने में कामयाब हुआ पत्तियों को अपनी तुलिका में- चित्र में जो जीवन झलकता है, वह चित्र का नहीं चित्रकार का होता है। एकदम हरा! एकदम जिवंत! 

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