संभव ये भी है
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चित्र : अनुप्रिया |
“सुबह जागने के लिए और रात सोने के लिए न बनायी जाती, तो कितना अच्छा होता।”| कामना पौधों को पानी देती और खिड़की से झाँक-झाँक कर बुदबुदाती जा रही थी।
“मन तो ऐसा करता है कि इसी वाटर पाइप से उसे सोते हुए नहला दूँ। सोए हुए बेटे को आवाज देते हुए वह पलंग तक जा पहुँची थी।
“अरे रे रे रे! ये क्या कर रही हैं आप ?” चादर मुँह पर खींचते हुए बेटे ने कहा।
“अरे रे रे रे, रे क्या ? अब तो जाग जा। सूरज खिडकियों से उचक-उचक कान खींचने लगा है। कहते हुए कामना ने ज़ोर से चादर खींच, पाइप का मुँह, उसकी ओर घुमा दिया।
“ले, तू तो बुरा मान गया। सच्ची में तो मेरा गुलाब तू ही है। इसीलिए तो कहती हूँ जब तू समय पर अपने सारे काम करेगा तब न दूर-दूर तक तेरी खुशबू फैलेगी। पता नहीं मेरी इस मंशा को तू डांट क्यों समझ लेता हैय़”
“डांट को डांट न समझूँ तो क्या ही समझूँ ? बचपन से देखता आ रहा हूँ, कभी पढ़ाई के लिए तो कभी जीवन-मूल्य सिखाने के लिए आपने बस मुझे ही अपने निशाने पर रखा है।”
“अब बेटा तू है तो भला भी तेरा ही चाहूँगी। तेरी दादी माँ के बेटे से तो कुछ करवाने से रही और उम्मीद भी कोई चीज़ होती है न ! यदि ऐसा न होता तो मैं कभी इस पचड़े में न पड़ती।” कामना ने खुद को संयत करते हुए कहा।
“ ये किसने कहा आपसे कि बच्चों को डाँटने-मारने से उनकी सोई किस्मत जाग उठती है।”
“तूने अभी देखा ही क्या है। अब बच्चे बहुत मनमानी करने लगे हैं वरना मेरे बचपन में तो हर बच्चा बिना कुसूर के अपने माँ-बाप से डांट-मार खाया करता था और खुश भी रहता था।”
“इस बात को मैं सही नहीं मानता। वैसे सच कहूँ तो आपकी इन्हीं बातों के कारण आपके पास बैठने का भी मेरा मन नहीं करता।”
“तू कुछ भी कह लेकिन हमारे यहाँ की तो यही रीति है। यहाँ इसी प्रकार से बच्चों का लालन-पालन किया जाता है।”
“सही कहा माँ, इसीलिए तो हमारे यहाँ वृद्धाश्रमों में भीड़ बढ़ती जा रही है।”कमाना बोलना चाहती थी किन्तु उसके शब्द उसे धोखा दे गए।
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मुक्तांचल में प्रकाशित |
मार्मिक
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