बोले रे पपिहरा...
ये दिन कोयल के नहीं, चातक के हैं। उस चातक के जिसके द्वारा विरह में तप्त नायक या नायिका अपने प्रिय तक प्रेम का संदेश पहुँचाना चाहती है। मगर पपिहे जैसे लेन-देन के बन्धनों से मुक्त ग्रीष्म ऋतु में कोयल स्वछंद अमराई से लदे बागों की सैर जीभर करती है। जब कोयल सुधायुक्त बोली में बोलती है तो आम की मंजरियों के बहाने स्थिर व अडिग दरख्तों के स्वर काँपते-थरथराते हुए संगीत बन जाना चाहते हैं। कोयल की कूकों में प्रकृति पंचम-स्वर का आनन्द ले अमराई की मादक गंध में झूमने लगती है। मौसम के अवदान पर मानव मन की थकन, पीड़ा, अवसाद और बेचैनी भी कम समय के लिए सही, कमने ज़रूर लगती है।
मगर चातक निर्द्वंदी है। उसमें कोयल की तरह न रिझाने का गुण है और न ही धरती के सरोकारों से कुछ लेना-देना है। हाँ, अपनी पिहू-पिहू से विरही मन की वेदना को बढ़ा कर सातवें आसमान तक लगा देता है। पपिहे की पिहू पिहू विरह वेदना में जकड़ी नायका को पिया-पिया सुनाई पड़ने लगती है। पर चातक एक ऐसा जीव है जो टकटकी बांधे बस आसमान को एकटक निहारता रहता है। आसमान की छाती पर छाए काले मेघों में स्वाती नक्षत्र की बूँदें मचल-मचल उठती हैं। उन्हीं की प्राप्ति हेतु पपिहा पियो पियो पियो की अतिरंजित पुकार में बेसुध खोया-खोया दिन-रात बिताने को मजबूर बना रहता है। कैसी होती है किसी से मिलने की छटपटाहट पपिहे को देख-सुन कर अंदाजा लगाया जा सकता है। समय कठोर है या अपने होने में पक्का, वह चातक की टेर पर अपनी चाल नहीं बदलता। शायद यही प्रकृति का मानक रूप है। जब तक स्वाती नक्षत्र की बेला नहीं आती तब तक चातक की टेर विरही मन और बादलों के सीने में एक विकंपित टीस उत्पन्न कर उन्हें विह्वल बनाती रहती है। किसी की पुकार पर किसी के लिए कुछ करना से ज्यादा क्या कर्ता को करने का सुख न देता होगा?
तभी तो बरसात में आसमान की मुंडेर पर छाए बादल जब भर भर भरकर आये दिन बरसते हैं तब पपिहा की वेदना और बढ़ती जाती है। किसी बबूल (कीकर) की डाल पर बैठा चातक गगन से गिरते जल को अपने शरीर पर पड़ता देखता है किन्तु चोंच नहीं खोलता। भीगे तन में प्यासा मन कैसा तड़प उठता होगा? चूँकि स्वाति नक्षत्र का जल ही उसे तृप्ति प्रदान कर सकता है इसलिए वह अपने होंठ हरगिज नहीं खोलता। प से पपीहा, प से पानी या प से परम प्रिय आदि पुरुष अपने पिया को लगातार पुकारता रहता है। यहाँ भले पपिहे का जीवन आसन लग रहा हो लेकिन चातक का जीवन कंटकाकीर्ण होते हुए भी वह अपने स्व को डिगने नहीं देता। इस बात को रेखाँकित किया जाना चाहिए। चाहे तालाब, नदी, झील और सागर के किनारे पर ही क्यों न पपिहा बैठा हो, जल उसे स्वाति नक्षत्र का ही भाता है। तब कहना पड़ता है कि ऐसी सच्ची पुकार अनसुनी नहीं जाती और एक दिन वह भी आता है जब स्वाती नक्षत्र के बादल झूम-झूमकर बरसते हैं और चातक एक बूँद पानी पीकर तृप्त हो जाता है या बादल भर जल पीकर उसकी प्यास बुझती है, कोई परखी लगा कर नहीं बैठता। शायद ईमानदार मुरादें ऐसे ही पूरी होती हैं।
पपिहा की बात करते हुए स्वाति नक्षत्र की बूँदों का ख्याल हो आया। क्या स्वाति की बूँदें सिर्फ पपिहा के लिए ही धरती पर उतरती हैं? क्या उन्हें पपिहे को तृप्त होता देख ही सुख मिला जाता होगा या कोई अन्य कारण भी है? यहाँ पर आकर लगता है कि नहीं। भले स्वाति की बूँदों को पपिहा को जल अर्पित कर अच्छा लगता हो लेकिन मुझे लगता है कि सबके अपने-अपने अलग सफ़र होते हैं। कोई किसी के लिए समर्पित होने से पहले अपना ध्येय साध लेना चाहता है। इस बिना पर स्वाति नक्षत्र की बूँदों का भी आसमान छोड़ने का अपना निजी ध्येय होता है। उनकी लालसा और लोलुपता समझ आती है। पपिहे की तरह स्वाति की बूँदों के अंतर में भी मोती बनने की चाह सालों साल से समाहित रहती आती है। जब नक्षत्र अपने रूपरेखा पर करवट बदलते हैं तब स्वाती की बूँदें समुद्र के जल में गुम सीपियों को आसमान से खोजना शुरू कर देती हैं। स्वाति की बूँद आसमान से धरती तक का सफ़र तय इसलिए करती हैं क्योंकि सीपियों के उदर में गिरकर वे मोती बन सकें। कितनी सुंदर, निर्मल तमन्ना है? मोती बनकर किसी रमणी के गले के हार में बिंध प्रेमी को रिझाना भी क्या बूँदों की चाहनाओं में निहित एक चाहना का हिस्सा नहीं है? नहीं पता। लेकिन बूँदों की इन्हीं चाहतों के द्वंद्व में पपिहे बेचारे की वार्षिक प्यास तृप्त हो जाती है और एक बूँद जो पानी थी, वह मोती बनने के लिए किसी सीपी की कोख़ में गिर अमर हो जाती है।
कुदरत के अबूझे विस्तार में हम अलिखे से रहते हुए भी लिखे-लिखे से घूमते
हैं या घूमना चाहते हैं। अधसधे सत्य को पूर्णसत्य मान कर मन के सिंहासन पर आरूढ़
हो औरों पर धौंस जमाना चाहते हैं। तर्कों की जरूरत को कुतर्कों से साध लेना चाहते
हैं। कुल मिला कर हम जो हैं, उससे
अधिक दिखना चाहते हैं। जबकि हम प्रकृति के आँगन में गिरे तिनकों में सिर्फ एक
तिनका भर ही हैं। हमारी दिखावे की इसी वृत्ति पर कुदरत हँसकर कहती है....”इस में तेरा घाटा, मेरा कुछ नहीं जाता…!”
****
सुंदर सृजन
ReplyDeleteअनीता जी, बहुत धन्यवाद
Deleteप्रकृति के रहस्यों को समझ पाना आसान नहीं।
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति।
सादर।
-----
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ३० जून २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
श्वेता जी बहुत धन्यवाद आपका
Deleteसुंदर सृजन
ReplyDeleteप्रकृति के गूढ़ रहस्यों को भला कौन समझ सका है ।
ReplyDeleteसबकी अपनी अपनी चाहत
कोयल चातक और पपीहा!!!
ReplyDeleteअपनी अपनी चाहत अपनी अपनी धुन..
बहुत सुन्दर ।