यथार्थ बोध एंव नारी संवेदनाओं का कलात्मक पक्ष


संवेदनाओं का कलात्मक पक्ष ( विशेष संदर्भ -बॉस भर टोकरी )

कल्पना मनोरमा आज के स्त्री लेखन विशेष कर हिंदी कविता की विस्तृत दुनिया में अपना एक कोना सुरक्षित कर चुकी हैं. जहाँ अधिकतर कविताएँ यथार्थ की पथरीली जमीन को तोड़ने के दावे के साथ उसे वैसे ही ऊसर छोड़ आगे बढ़ जाती हैं, वहीँ कल्पना की ज्यादातर कविताएँ उसी सख्त, ऊसर जमीन पर अपनी कल्पना के ही नहीं यथार्थ के कड़वे बीज को जो इस समाज ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी आधी आबादी को सौपें थे, उसे उन्होंने संस्कारों की मिट्टी में अपनी संवेदनाओं की नमी के साथ रोप दिया है. शब्द दर शब्द आज वही मेहनत अपनी सुगंधि से साहित्य संसार को तो सुवासित कर ही रही है, उन्होंने उसको ही संस्कार व् संस्कृति के रूप में संजो करबांस भर टोकरीमें संकलित कर पुनः इसी समाज को लौटा दिया हैं. 

धरती ने कब बीज को अपनी छाती में छिपा कर रखा है? वह तो उसे अपने को उलीच कर दे देती है. इसीलिए उसे पुनर्नवा कहा जाता है. ये कविताएँ भी उसी तरह कि हैं, इनसे गुजरते हुए आपको यह एहसास बराबर होता चलेगा कि कुछ भी समतल नहीं, यथार्थ की खुरदरी जमीन से अपने अच्छे-बुरे अनुभवों से बराबर संवाद करती ये आपको भी उसका साझीदार बना लेती हैं. घर,परिवार से विस्तृत होता हुआ उनका रचनाकार अनेक बने-बनाए मानदंडों का अतिक्रमण करते हुए परंपरा, धार्मिक रूढ़ियों के साथ, समाज व् देश के राजनीतिक परिप्रेक्ष को समेटते हुए उसकी तमाम विसंगतियों पर बात करते हुए मानवीय संबंधों के बीच सभी की समानता एंव परस्पर सहयोग की पैरवी करती हैं. जिन मुद्दों पर अक्सर विरोधाभास या संघर्ष व् द्वंद्व कि स्थितियाँ देखने को मिलती रहीं वहाँ भी इन कविताओं  में एक संतुलन व मानवीय सौहार्द बिना किसी भेदभाव के स्त्री की संवेदना के फैलाव में पहली कविता से आख़िरी कविता तक एक ही सूत्र में गुथा हुए मिलेगा.        

इनके यहाँ परंपरा व आधुनिकता बोध का द्वंद्व न होकर उनके समन्वय के बीच से एक स्वीकार्यता का सहज बोध विकसित होता दिखाई देता है, जिसमें समझौते की कोई गुंजाईश न होकर परस्पर एक दूसरे की अस्मिता का ख्याल भी अनुस्यूत हो. खास कर प्रेम का उदात्त रूप, प्रतिकार अथवा पिता या अन्य संबंधों के बीच विकसित हैं रिश्ता प्रकृति के सहज आचरण की तरह जैसे पेड़-पौधों, नदी-नाले, हवा-पानी और साथ ही उनमें व्याप्त नमी, उनका खुलापन सब साथ-साथ होते हैं. जो इनसे बाहर या बाधक होंगे उन्हें छोड़ कर आगे बढ़ जाने का सन्देश साफ-साफ़ है- अब हम सीखेंगे/ सभी के साथ रहकर भी/ खुद को अकेले-अकेले/ पूरा बचाए रखना

खुद को पूरा बचाए रखना किसी संकीर्णता या कृपणता का बोधक न होकर अपनी अस्मिता के प्रति जागरूकता की सजग चेतना से जुड़ा हुआ है. यही साहित्य की मूल संवेदना भी है. दूध में शक्कर की तरह मिलने के बाद भी उसकी मिठास के रूप में अपनी पहचान को बचाए रखना.शब्दकी तरह. भाषा की मृदुता जैसी और प्रेम की तरलता से पत्थर को पिघलाते हुए. –आज़माना अपने शब्दों को, सुना है इसमें होता है इल्म, पत्थरों को पिघलाने का”               

कल्पना की कविताओं में यथार्थ बोध एवं नारी संवेदनाओं का कला पक्ष :

  1. समसामयिक घटनाओं पर सूक्ष्म दृष्टि से रची-बसी ये कविताएँ अपने आस-पास से लेकर गंभीर से गंभीर घटनाओं के भीतर पैबस्त होती उसके मर्म को उद्घाटित करती हैं. आदमी ने देखा, बंद दरवाजे, सभ्य कठपुतली और काम काजी औरतें व दुःख इत्यादि कविताओं में जीवन और उससे बहार की सभी चिंताओं को स्थान मिला है. उसकी गम्भीरता के दायरे में सभी कुछ हैं-  ‘इतनी हाय हुज्जत के बाद भी / घर है कि बने जा रहे हैं/ जंगलों की छातियों पर/ अब चिड़िया भी हो जायेगी शामिल/ जल्द ही हमारे दुःख में.’    
  2. इन कविताओं से रूबरू होते हुए यह एहसास बना रहता है. कि इनकी  विषय-वस्तु आज के चलते हुए विमर्श के दायरे का लगातार अतिक्रमण करती चलती है.सूक्ष्म विषाणुमें करोना जैसी महामारी ने किस तरह की विसंगतियों को लेकर मानवीय संवेदना और रिश्तों की बुनावट पर बहुत ही सूक्ष्म दृष्टि डालती हुई कहती हैं-   ‘फिर एक दिन आयासूक्ष्म विषाणु/ इसने हाँ दिया हजारों आदमजात को/ भेद-बकरियों की तरह/ ये सिकुड़ गई छुईमुई पत्तियों जैसी/ मचा रहा कोहराम महीनों/ दिल्ली छिप गई बंद दरवाजों के पीछेउस समय का वह मंजर आँखों के सामने आ खड़ा होता है. तो इन्सान को घर बैठे टेक्नोलीजी की असीम सुविधाएँ भी दी तो उसे इससे होने वाले खतरे भी मुहैया करवाए. रोबोट बनने से बचाती हुए ये कविताएँ अपने यथार्थ से मुँह न चुराने की सीख देती उसके डर को सकारात्मक दिशा में मोड़ देती हैं. जहाँ यथार्थ का कड़वापन है तो नई संभावनाओं की अपार राह भी है.     
  3. - प्रेम, पिता, संस्कार और जिम्मेदारियों की चौखट की सींखचों के बीच औरत के हिस्से आए आकाश व खिड़की से बाहर का बड़ा कैनवस, लड़की की अल्हड इच्छाएँ सब कुछ पिता की डांट, उनके कड़े अनुशासन के बीच भी जब तब अपने दायरे के भीतर भी भरपूर जी लेने की उत्कट इच्छा से कहीं भी किसी भी तरह का समझौता नहीं करती दिखाई देती है. उम्मीद जरूर करती है अपने-अपने हिस्से की जिम्मेदारी को पूर्ण समर्पण के साथ निभाने की –कामकाजी औरतेकविता में इसका अलग ढंग से सूक्षम विश्लेषण हुआ है. सहभागिता की मांग करती यह कविता कहीं किसी पर कटाक्ष नहीं कर रही है. लेकिन अपने अष्टभुजा स्वरूप में अपनी क्षमताओं को धीरे से सामने रख देती है. खपा देती हैं खुद को, पूरा का पूरा कामकाजी औरतेंप्रतिकार तो वह उस प्रेमी या पति का भी नहीं करती जो निरंतर उसके मूक प्रेम को भी अपनी घुड़कियों से दबा लेता है, तमाम डर, घुटन को अपने से परे निकाल कर फैंकने के बाद भी क्या घर वापस आने की राह में वो अपने प्रेम, आशा व उम्मीद को भी छोड़ पाई नहीं. यहीं ये कविताएँ कुछ खास हो जाती हैं स्त्री विमर्श या पित्रसत्ता के बीच भी वह बराबर जोड़ने की कोशिश करती हैं. लेकिन अपनी अस्मिता के साथ ही.        

सभी की होती हैं कुछ जगहें, कुछ जातीय वजहें, वापस लौटने की /लौटती हूँ मैं, या इसी तरह सब लौट रहे थे श्रांत, ज्ञान के आलोक से भरे हुए, किन्तु नितांत अकेले यह लौटना अपने से साक्षात्कार करना है, पलायन करना नहीं. जैसे अपनी जरुरत भर नमक और पानी को बांध लिया जाता है.  

 ‘भर जाने तकहम लौटेंगे जैसी कविताओं का दायरा बहुत बड़ा है. लगातार अपनी जड़ों की लौटना उसी आकाश को समेटने जैसा है जिसके छूटने का डर सबसे ज्यादा रहता है. जैसे गिलहरी अपने दोनों पैरों को ऊपर उठा आकाश थाम लेती और आश्वस्त होती कि उसने अपने परिवार को बचा लिया है. यह बचा लेना ही यथार्थ और स्त्री संवेदना का सबसे कोमल किन्तु सुदृढ़ पक्ष है. 

संबंधों के भीतर की तरलता को और सींचती है.अबोला प्रेम’, स्नेह के बिना, अपना चेहरा जैसी अनेक कविताएँ  जो मुखर नहीं है, बल्कि भीतर से सिक्त कुछ शिकायत करती, कुछ मनोहार करती सी है, प्रेम के उदार और उत्ताद रूप में. पिता या पति का या एक बेटी का स्नेह कुछ ऐसा ही होता है जिसे सहजता से घूंट-घूंट करके ही पीकर जाना या महसूस किया जा सकता है.नहीं लौटे पिता जब बाज़ार से, और छिपाने लगा सूरज लालिमा अपनी मुट्ठियों , चिंता ने बडबडाना किया आरंभ, नन्ही धिया के कलेजे में, उठने लगा डर का ज्वार-भाटा, तो उसने कहा घूम-घूमकर घर में, पिता क्यों नहीं आए अभी तक.पितृसत्तात्मक व्यवस्था को स्वीकारती हुई भी उसके भीतर से ही अपनी लिए जगह बना लेना, अपनी उपस्थिति को दर्शाना तो है लेकिन उपेक्षा का भाव किसी के लिए नहीं है. यह भी इस कड़वे यथार्थ के बीच स्त्री मन व् प्रेम का एक निश्छल रूप दृष्टिगत होता है. जिसके लिए किसी तरह की खीज भी नहीं है. लेकिन अपनी आँखों की आंसूं की झिलमिलाहट में उसका आक्रोश नहीं तो अपनी उपेक्षा का दंश जरुर इंगित होता है.   

गिलहरियाँचीटियाँ कतारों मेंबीज , बोलने की कोशिश में, बसंत की आहट, पत्थर का ढोलना, स्त्री को, जैसी अनेक कविताएँ है जो एक घर के अनुशासन में बांध कर भी वह अपने हिस्से का आकाश भरपूर निहार कर उस पर अपनी इच्छाओं का ओढ़नी फैलाना जानती हैं. बिना बहुत शोर के भी वह अपनी जगह व् उसको हासिल करने की कला व् कीमत भी जानती है. यहाँ चीख चिल्लाहट और रुदन न होकर भी भिची व् उठी हुई मुट्ठी में उसका आक्रोश किसी के भी दमन को अस्वीकरता है. बहुत सहजता से लेकिन कठोरता से वह कह ही देती है –जब छूना ही था बुरी नीयत से हमारी देहों को, तो होते पराए पुरुष, कम से कम, अपना सगा रिश्ता खोने का , दुःख तो न होता हमें. 

कितना कठिन है किसी अपने की आँख में आँख डाल कर उसकी नीयत व् करतूत को कह देना, सबके सामने ले आना. स्त्री देंह के आगे सारी मर्यादाओं को तार-तार करने वाले को लताड़ना. लेकिन वह निर्भीक इस जोखिम को उठाती है. वो जानती है कहने से करने की यह लड़ाई उसकी खुद की है और उसे ही आगे आना होगा. अपने लिए, अपने जैसों के लिए.  

चुनौती किसे और किसके लिए की समझ बहुत साफ है. यही से एक और बिंदु हमारे सामने आता है कि उसकी चुनौती किसे और किसके लिए है. तो उसकी समझ भी यहाँ बहुत स्पष्ट है.  पहली ही कविता  ‘पहली बारसे जो विद्रोह का स्वर फूटता है वह  दोनों के बीच, रेत होना, हो या घमंडी आदमीगिलहरियाँ,  ‘स्त्री कोइस तरह की अनेक कविताएँ आपको मिल जाएँगी.ये क्या! दुन्नों अवाक् थी, उभरने लगी थी अनदेखी अल्पनाएं, मन के केनवास पर खाने में नहीं आया था स्वाद, उस रोज किसी को लेकिन नहीं मांगी थी माफ़ी, दुन्नों ने. दुन्नों का माफ़ी न मांगना ही, अपने नाम से पुकारे जाने से अस्मिताबोध का जगना ही चिंगारी का आग में बदलना, नारे का क्रांति का जन्म देना, हर वक्त की हाँ का ना में बदलना वह भी बिना सिर हिलाए. आज के बदलाव का बोधक है. जिसे कवयित्री ने बहुत ही गहरे उतर कर व्यंजित किया है.       

भारतीयता और भारतीय संस्कृति उसकी सम्पूर्ण चेतना में समाया हुआ है.  ‘बांस भर टोकरीजो इस संग्रह का  प्रतिनिधित्व करती है अपने आप में अकेले ही इस भारतीयता, भारतीय संस्कृति व् उसकी विराट चेतना को समेट लेती है. बाकी उसके प्रत्येक पन्ने को इतनी ही गरिमा से रंगीन करती, एक अपना इन्द्रधनुष बनाती कविताओं से भरा हुआ है यह संग्रह. माँ के रूप में समस्त भारतीय संस्कृति का वह अलिखित इतिहास जो कहीं दर्ज नहीं होता है, यहाँ अपनी खूबसूरती में व्यंजित होता है जो किसी और देश या समाज में नहीं मिलेगा.बांस निभाएगा रिश्ता अपने भर, बेटी की अंतिम सांस तक, नहीं लौटेगा बांस छोड़कर अकेला, ब्याही बेटी को ससुराल में.’   

कला का मतलब कविताओं के संबंध में बहुत ही सूक्ष्म लेकिन व्यापक है. उसकी सारी कलात्मकता भाव पर टिकी होने के बाद भी काव्यात्मकता पर टिकी होती है, बिना छंद के भी, वह है उसकी भाषा पर आत्मीय पकड़.    भाषा कहीं भी इतनी बोझिल या मन की आँखों से परे का बिम्ब नहीं तलाशती हैं, कि आप उसके मर्म तक पहुँचने में असमर्थ रहे. यहाँ द्वंद्वात्मक भाषा न सिर्फ कविताओं में कथात्मकता का बिंब रचती है, बल्कि भाव सम्प्रेषण में भी मन-मस्तिष्क का संतुलन उसी तरह साधती है, जैसे एक कुशल नट रस्सी के दोनों सिरों के बीच आवा-जाही करते हुए देह की गति को साध कर अपनी निपुणता से चमत्कार उत्पन्न न कर सिरे के अंत सही सलामत पहुँचने की एक सुखद अनुभूति से दर्शक के मन को भी आहलादित कर देता है. उसके साथ ही वह भी रोके गए साँस को छोड़ कर एक आश्वस्ति को धारण करता है.सन्नाटे के वृक्ष से, शब्दों का अधपका फल सभी ने किया फैसला, और उसे रख दिया गया, धैर्य के अनाज में दबाकर’  

अर्थ गाम्भीर्य के लिए भाषा के उपयुक्त उपमानों की लड़ी इसमें अंतर्भुक्त है, मानों भाव अपने बहनापे को निभाने के लिए बस शब्दों का आश्रय लिए हुए मूल मंतव्य तक पहुँचने के लिए मात्र उसका आश्रय लिए हुए हैं.   बंद दरवाजे कविता से या कोई भी – वे लघु शंका से निवृत होने , नहीं होते हैं खड़े. बल्कि पकड़ते हैं जनानी परछाईयों के बिंब-प्रतिबिम्ब , अपनी आँखों की पैनी पलकों से भाषा जितनी सहज के अर्थ गाम्भीर्य की दृष्टि से इसे इससे ज्यादा व्यंजना में नहीं कहा जा सकता था. 

बिंब की लयात्मकता  का अनहद नाद निरंतर उसी सुकून और सिहरन से भर देता है जैसे किसी पहाडी नदी के साथ-साथ चलते हुए आप महसूस करते हैं. न भीगते हुए भी लगातार उसके स्पर्श की अनुभूति उसकी छुअन बराबर आपके भीतर पैबस्त होती जाती है. आस-पास के दृश्य, मन की व्यथा-कथा शब्दों से निकल आपके अपने भावों में बदलते जाते हैं. छोटी-छोटी  अनुभूति, सूक्ष्म से सूक्ष्म भाव बिम्बात्मक भाषा में प्रतीकों की भरमार न करते हुए भी पतली सी पहाडी नदी या पत्थरों को भिगोती झरने की मद्धिम गुंजार सी देर तक आपके आस-पास बनी रहती है.जिसमें डूबने का खतरा नहीं है, लेकिन मन के तैरने की ललक की भरपूर गुंजाइश आद्योपांत बनी रहती है. परन्तु बहुत देर तक ये आपको उस खुमारी में बने रहने नहीं देती है हैं, हटात कुछ ऐसा भी कह देती हैं, किसी ऐसे दृश्य से आपका साबका करा देती हैं कि आपकी धीमी पड़ती चेतना, फिर से उस सिरे को पकड़ लेती है जिससे वास्तव में वो आपसे भेंट करवाने ले जा रही हैं, यथार्थ के उस कुरूप, सडी-गली मान्यताओं से पहले का रास्ता कुछ ऐसा ही ये समाज हम तक पहुंचाता है, लेकिन उसके बाद क्या उस पर पर्दा डाल देता है. ये कविताएँ आपको उसी तीखी, पथरीली, रपटीली दुर्गम चट्टान तक ले जाने में भी हाथ पकड़ कर साथ देती हैं. संस्कारों से जुडी प्रत्येक कविता से गुजरते हुए हम कुछ इसी तरह हांफते हुए रास्ता तय करते हैं. सांसों के उतार-चढाव में में भी इसकी लयात्मकता की तन टूटने नहीं पाती है.भूलना पड़ता है, जीवन के उतने अंश को, जितना गुथा होता है उन यादों में, जो दोनों के पास होता है, बराबर बराबर.’ 

अनुभूति की यह सघनता इतनी गझिन, व् सघन है कि सरसों के दाने सी छोटी दुःख, पीड़ा की टीस जो दिखती नहीं है लेकिन विचलित करने में पूरी साथ देती है, इनकी कलम या आँखों से ओझल नहीं हो पाई है. नारी जीवन विशेष कर एक छोटी बच्ची या फिर अल्हड नवयौवना के असीम सपनों, उसकी आँखों की खुमारी के कई रंग इन कविताओं में आपको डूबते, उतराते मिलेंगे, तैर कर पार जाते नहीं दिखते क्योंकि इनके पैरों में आज भी संस्कारों, मर्यादाओं बेड़ियों की मोटी श्रंखलाएं बंधी हुई हैं. जो सामने दिख रहा है उसके लिए  किसी ओट की जरुरत नहीं. भाषा यहाँ लक्षणा में कम व्यंजना का साथ ज्यादा लेकर चलती है. या कहें उसे उस पर ज्यादा विश्वास  है. दुःख, क्लेश या अपने होने को निरंतर नकारे जाने की पीड़ा तो चेहरे पर हर हल में आ ही जाती है, अगर वह भी उसे छिपाने में सफल हो जाए तो आवाज की नमी को तो कोई नहीं सोख सकता है, उसके लिए तो बस संवेदना का एक फाहा ही काफी जिस ऊपर से ही रखा जा सकता है. बहुत सी काव्य पंक्तियाँ ऐसे ही रिसते घावों पर फाहे का भी काम करती है, जब मां अपने ही कहे वचनों से खुद को आहात महसूस करती है तो वह समाज, और पिता की लालसाओं का फाहा बना कर उन टीसते घावों पर हल्दी चूने के लेप से लपेट कर एक अच्छे संस्कार की पट्टी से बांध कर बेटी को आश्वस्त करने के साथ ही अपनी मजबूरी का हाथ भी उसके सर पर फेर कर उसे ऊष्मा देने का प्रयास करती है, जिसमें किसी लाक्षणिकता की नहीं अभिधा और व्यंजना के स्तर पर ही माँ और बेटी का रिश्ता खड़ा हो सकता है.बचाकर सबकी नज़रों से भेज देती है, एक मन अपनी संस्कृति को, चुपचाप दूसरों के घर.औरत ही है जो दो परिवारों को दो देंह से ज्यादा दो मन और दो सम्मिलित परिवारों के संस्कारों को विरासत के रूप में वर्तमान की टोकरी में रख भविष्य की नीव भी सुरक्षित कर देती है. यह भी स्त्री मन का ही एक विस्तृत कोना है जिसमें सबके लिए आशीर्वाद और ममत्व अनुस्यूत है.       

भारतीय जीवन की ग्रामीण संस्कृति को उकेरने के लिए उसकी बोली-बानी नहीं उसके रंग, सुगंध व् उसकी मिट्टी से जुडाव भी होना चाहिए इन कवितानों से जुड़ते हुए आपकों इनकी रसात्मकता बराबर मिलेगी, बेल की तरह भावनाओं का यह फैलाव, पके कटहल के कोवों की वह मीठी गंध, केले और पपीते के अधपके फल, अचरे में बंधे खोईंचे के चावल में पडी दूब व् हल्दी की गाँठ, सदियों से उसी तरह एक हाथ से दूसरी पीढ़ी तक ज्यों की त्यों चली आ रही, उसे निभाने की जिम्मेदारी तो इस आधी आबादी पर ही है, लेकिन कन्धा ठोकने के लिए ये पुरुष समाज तो लठ्ठ लिए खड़ा हैं. कहीं पिता,कहीं पति और कहीं बेटे या भाई के रूप में फिर कहावत कही जाएगी औरत ही औरत की दुश्मन है दोनों को एक दूसरे बरक्श खड़ा करके मोर्चा संभालने वाले ये कौन हैं. हमारे आपके घर के मर्द ही. ये कहने की हिम्मत इन कविताओं में लगातार दिखाई देती है. जिसमें दोषारोपण नहीं एक दूसरे को जानने समझने और आगे बढ़ कर स्वीकारने की एक मजबूत पहल इस मात्र स्त्री विमर्श के दायरे से निकाल कर पूरे सामाजिक दायरे तक ले जाने में सफल होती है.  सुनो स्त्री! क्योंकि हर स्त्री में होता है, टुकड़ा भर पुरुष, हर पुरुष में होता है, टुकड़ा भर स्त्री.’       

इन सारी कविताओं से गुजरते हुए मेरा जो अनुभव है वह है इसकी कथात्मक गद्य की अनुभूति से पगा हुआ एक क्षीण सा कथानक आपस में इसे जोड़ते हुए सूक्ति कथन सा सूत्र देता है फिर उसे आगे सुलझा भी देता है. आपके धैर्य की परख ज्यादा नहीं लेती हैं ये कविताएँ. कविता जब उन सूत्रों को खोलती है, वहीँ उसका गद्य उसी सूक्ति में एक और गाँठ लगाकर अर्थ को और पक्का कर देता है. कुछ अत्यंत छोटी कवितायेँ भी हैं लेकिन उसी छोटे फलक में भी वह बहुत कुछ कह जाती हैं जहाँ मुखरता की अपेक्षा मौन का सन्नाटा ज्यादा तीक्ष्ण होता है. इससे रसात्मकता का जो प्रवाह पहली कविता से बहना शुरू होता है, वह पहाडी नदी की तरह कहीं एक तेवर लिए तो कहीं थोडा संकोच किए अपनी राह में आते पत्थरों को भी एक आकार देती हुई अपने कोमल थपेड़ों से सहलाती हुए आगे बढ़ जाती है.    

पुस्तक- बांस भर टोकरी (कविता संग्रह)

कवयित्री – कल्पना मनोरमा 

समीक्षक : डॉ. चंद्रकला  

पृष्ट संख्या – 120 

मूल्य -  190 रूपये 

 

        

 

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