प्रयाग शुक्ल जी के चित्र का चरित्र


प्रतिष्ठित कवि लेखक चित्रकार आदरणीय प्रयाग शुक्ल जी के जन्मदिन पर उनके ही चित्र का चरित्र प्रस्तुत है...

Sharing a painting I did recently with mixed media on canvas. 

पहाड़ों की गोद मे एक गाँव : A village in the mountains:24"×17.6", mixed media on canvas .prayag shukla.

जब मन गाँव की ओर दौड़े 

तब बिना किसी घाटा-मुनाफ़ा के उसे छोड़ देना स्वतंत्र क्योंकि गांव चाहे पहाड़ का हो या समतल का उसे याद होता है आम के पेड़-तले कतारों में चीटियाँ बिना अभियान के नहीं चलतीं। चीटियों का मनोबल मनुष्य से सौ गुना ज्यादा होता है। गांव चिटियों की जिजीविषा में फलता फूलता है। गाँव में जो भी खाता-पीता घर दिखता है न! उसने चीटियों को ही अपना गुरु माना है।


सूखे पत्तों के तले लाल कीड़ों के जखीरे को देखकर घबराना नहीं, उसे ध्यान से देखना। वे लाल मुंह वाले कीड़े खुद को फाटक वाले बड़े भवन से भी ज्यादा पत्तों के नीचे अपने को सुरक्षित माने बैठे होंगे। कीड़े इसलिए सुरक्षित नहीं होते कि उसके ऊपर सूखे तृण तने हैं बल्कि वे इसलिए संतुष्ट होते है क्योंकि उन्होंने अपने पाँव ज़मीन पर भरसक टिका रखे हैं।


गाँव के तालाबों में अब कमल भले तुम्हें फूलते न मिले लेकिन सिंघाड़े वहाँ अब भी पलते हैं। उन्हीं की दम पर गाँव के किसी झोपड़े के नसीब में एक ढिबरी भर रोशनी आती है। सिंघाड़े वाले के बच्चे खेल-खेल में तालाब को लकीर खींचकर बाँटने का स्वाँग रोज़ रचते हैं लेकिन बच्चों की निगाह पलटते ही पानी का एक हो जाना निश्चित होता है। पानी संसार की नश्वरता और प्रेम के सूत्र को ठीक-ठीक जानता है। पानी ये भी जानता है कि एक मछली यदि बदचलन हो जाए तो पूरे तालब को गंदा कर देती है। फिर भी वह उसे बाहर निकालकर फेंकता नहीं। वह जानता है कि ‘चलन’ संगत से सुधारा जा सकता है। हाँ, कुछ हैं जो  मछली के जन्म को कोसने लगते हैं और बूँद-बूँद पानी को तरस जाते हैं।


सूर्योदय, गाँव में उजाले का उत्सव है। जो प्रत्येक भोर में बिना आलस्य के मनाया जाता है। गाँव का उत्सव मुँह मीठा कर गले मिलने-मिलाने वाला नहीं बल्कि पसीने से आचमन कर दिन के मस्तक पर कर्म की रोली लगाने का होता है। गाँव में संभावनाएँ कर्म को जन्म देती हैं, प्रेम को नहीं।


गाँव प्रेम को छूत मानता है। इसलिए नहीं कि प्रेम सच्ची में अछूत है या प्रेम से पैदा हुई औलाद लमहरा कहलाती है न ये डर रहता है उसे। बल्कि  प्रेम अच्छे-अच्छों को निकम्मा बना डालता है इसलिए गाँव में प्रेम खेतों में लहलहा कर डालियों पर अँखुआता है, जिसे और कोई नहीं, सबसे पहले सूरज वरण करता है और फिर सूरज के हाथों से झरा प्रेम ही किसानों के घर भोजन के साधन उपलब्ध करवाता है।


कोई नया-नया अल्हड़ मन किशोर जब जामुन के पेड़ पर चढ़कर तालाब के दिल पर प्रेम का पत्थर उछालता है तब प्रेम की एक गहरी तरंग उत्पन्न होती है। देखते ही देखते किशोर के साथ समस्त तालाब कम्पन से भर जाता है। उस भँवर के बीचोंबीच डूबकर प्रेम पाने की अनुमति बच्चे को तब भी नहीं होती। उस भँवर पर सूरज की रश्मियों का अख्तियार है। जल भँवर पर जब रश्मियाँ ता थै था नृत्य करती हैं तब  गाँव दूर से उसके प्रेम में तृप्त हो हरिया उठता है। किशोर बालक की आँखों में पड़ने वाली प्रेमिल जलतरंग की परछाईं को वह प्रेम नहीं कहता, तिलभोना कहता है। मतलब दृष्टि का धुंधला होना। उसने अपनी आजी के हाथ पीतल की परात में स्नान के दौरान यही सुना था।


गाँव की अपनी परंपराएं होती हैं। वह किसी के विकास या तरक्की के फेर में पड़कर किसी और की परंपराओं को नहीं अपनाता और न ही अपनी परंपराओं को स्थगित करता है। विकसित और अविकसित के भेद गाँव पहुँचकर अपनी गरिमा खो देते हैं। 


किसी भी देश, राज्य और शहर का विस्थापित व्यक्ति क्यों न हो, गाँव  उसे हाथों हाथ लेकर बसाने में जुट जाता है। रिहेबलिटेशन का काम गाँव मन से करता है। अपने गाँव, घर, देश से बिछड़े हुए के सर पर  आम के बाग के बाग छाँव ओढ़ाने को आतुर हो उठते हैं। इसलिए नहीं कि उसे उस विस्थापित व्यक्ति की परवाह है? या वह अखबारों में अपना नाम देखना चाहता है? नहीं। गाँव अपने चरित्र में बट्टा लगना गलत मानता है।


गाँव अपने मोहल्लों के नाम पढ़े लिखे विद्वानों, इतिहास की कोई घटना या पात्रों के नामों के ऊपर नहीं रखता। वह उन लड़कियों के गाँवों के नामों को अपनी हथेली पर चिपकाए रहता है जो बेघर होकर किसी का घर बसाने उस गाँव में पधारी होती हैं। जैसे– खिलाड़ी वाली चाची का मुहल्ला, मऊ वाली बड़ी अम्मा का मुहल्ला, दौलतपुर वाली भौजी का मुहल्ला, रानीपुरवाली बहुरिया का मुहल्ला आदि इत्यादि।


गाँव जानता है कितना भी नेह क्यों न हो मायके से जिन्दगी के तिकोने फेर में पड़कर लड़कियाँ अपना जन्मस्थान भूल ही जाएँगी। इसलिए गाँव इस जुगत को मान देता है कि घनी उलझन में भी जब कोई स्त्री को उसके गाँव के नाम से पुकारे तो वह अपने जन्मस्थान में जीवित हो उठे। जन्मस्थान जन्म देने वाली से भी ऊँचा स्थान रखता है। जब कभी तुम गाँव जाना तो देखना जो पगडंडी सबसे ज्यादा बेतरतीब होगी,  वहीं कहीं गाँव चिलम धौंकते मिलेगा।

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