एक स्त्री का जाना, एक सृष्टि का चुकना है...

 

स्त्री का दुनिया से जाना उसके घर से नहीं अपितु अपने आप से जाना होता है। जिन रिश्तों में उसने खुद को पचा दिया होता, उनके मनों से नहीं सिर्फ अपनी संतान के मनों से जाना होता है। स्त्री के बचपन को यदि छोड़ दिया जाए तो वह एक अस्थिर यात्री की मानिंद पुकारी, जानी और मानी जाती है। उसका न कोई अपना घर होता है, न शहर और न ही गांव होता है।

जिस जगह पर वह जब जहां होती है, उसके विपरीत स्थान के नाम के साथ "..... वाली"  जोड़कर बोलकर उसे पुकारा जाता है। और इस प्रकार जीवन के गहरे दवाबों के बीच स्त्री के मानस पटल पर अपने से भिन्न स्थान की दृश्यावलियां और वातावरण की खुशबू सिमट सिमट आती है, जिसे नकार कर उसे प्रत्क्षय के सम्मुख प्रस्तुत होना होता है। कितना जटिल होता है जाने हुए को भूलना। वह भी बिना किसी भटकाव और खुद को निरस्त किए बगैर।

स्त्री के स्वाभिमान के बाबत ये स्थितियां दयालु और उर्वर नहीं होतीं। खानाबदोसों वाली अपनी जिन्दगी में स्त्री शारीरिक रूप से ही विलग नहीं होती बल्कि उसका मानस भी ऊंचे स्तर पर गड्डमड्ड बना रहता है। वह वर्तमान के सीने पर भूतकाल की धड़कनों का अंदाजा लगाते हुए जीवन जीती रहती है।

सबसे महत्वपूर्ण ये कि इतने भदेस और अपरिचित समय, स्थान और जनों के बीच ब्याहकर आई नई नवेली स्त्री को सम्हलने का भी वक्त दिए बगैर अपरिचित रिश्तों के साथ उसके मन को गठिया दिया जाता है। रिश्तों के अति संवेदनशील सतहहीन इलाके में बिना किसी सुहृदय रोशनी साथ दिए उसे धकेल दिया जाता है। 

नई भूमिकाओं के व्याकरण से अनभिज्ञ स्त्री उसे समझने के लिए सहायक सामग्री और एक तटस्थ शिक्षक की मांग करती है लेकिन बिना तैयारी के पर्चा हल करने की जिद और बिना गुरु से पढ़े, रिश्तों को अपनी प्रिय कविता की तरह रट लेने का दवाब दिन प्रतिदिन उसकी मेधा को समृद्ध न करते हुए क्षति पहुंचाने लगता है। अपनी विश्वसनीय डाल से टूटी स्त्री हवा में हिचकोले खाते हुए सोच के किस खांचे में गिरती है, ये भी स्थानीय जनों के सुप्रचार और दुष्प्रचार के अन्तर्गत निर्धारित होता है। बताने वालों की प्रियता और अप्रियता पर उसे अपने मन को मांजने के लिए बार बार कहा जाता है। 

और इस तरह से अपना पूरा जीवन उस परिवार के लिए खपा देती है जो उसका कभी बन ही नहीं पाता है। और इस तरह एक स्त्री अपनी दया और दाय के प्रतिफल की चिन्ता किए बिना इस सुंदर पृथ्वी, वृक्ष, नदी, नहर, रिश्तों और अपने स्थानों को मौन होकर छोड़ देती है।

 तब लगता है कि एक स्त्री का जाना सिर्फ़ एक स्त्री का जाना नहीं, एक सृष्टि का चुकना है, जिसे उसने अपने भारी द्वंद्वों , नकारों, अवहेलनाओं के बीच स्वयं को गलाकर सिरजा होता है। विपरीत हालातों से भरी अपनी सांसों में जीवन को स्थापित करना सद्भावनापूर्ण बुद्धिमान योद्धा के लक्षण होते हैं। स्त्री जन्मजात योद्धा होती है।

अभी हाल ही में मैंने अपनी बेहद नजदीकी दो स्त्रियों को खोया है। जिनके साथ बड़ी मां वाला मेरा रिश्ता जुड़ा था। ईश्वर उनकी आत्माओं को चिरशांति प्रदान करें।🙏


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