संवेदनशील मनुष्य के जीवन की अनंत पीड़ा का कोलाज

"नदी सपने में थी" काव्य संग्रह की अपनी बात 


कला सिखाती नहीं, ‘जगाती’ है। क्योंकि उसके पास ‘परम सत्य’ की ऐसी कोई कसौटी नहींजिसके आधार पर वह गलत और सहीनैतिक और अनैतिक के बीच भेद करने का दावा कर सके…तब क्या कला नैतिकता से परे हैहाँउतना ही परे जितना मनुष्य का जीवन व्यवस्था से परे।”                                (निर्मल वर्मा-ढलान से उतरते हुए से )

साहित्य के अग्रगण्य लेखक निर्मल वर्मा ने कितनी सुंदर बात कही है। जीवन से कलात्मकता को हटा दिया जाए तो जीवन अधूरा-अपूर्ण लगने लगेगा। तो क्या कविता कला की प्रतिरूप कही जाएगीहाँजिस प्रकार कला किसी को कुछ सिखाती नहींजगाती हैउसी प्रकार कविता सोए हुए मनुष्य के मन में एक कलात्मक कौंध पैदा करती है। उसी कौंध में विवेकवान अपने जीवन की झलक पाकर उसे जीने की विधि को खोज लेता है। वरना जीवन काटना तो सभी को पड़ता ही है। वैसे कहा जाए तो विसंगति-बोध से भरी इस दुनिया में कविता मानसिक खलबली मचाकर किसी समाज सुधारक की भाँति कार्य करते हुए भले न दिखे लेकिन बेसुध मिथक दरकाने में सक्षम बन जाती है। वस्तुत: संवेदनशील मनुष्य के जीवन की अनंत पीड़ा महसूसते हुए  उसकी अनसुलझीअतिजटिल गुत्थियों को खोलतीभौतिकतावादी संकल्पना के महीन धागों को उधेड़ कर,एक नए नजरिए को प्रतिपादित करती है। वक्त की भयावयता में किसी अधीर व्यक्ति के विश्वास को टूटने से या तो बचाने का काम करती है या फिर व्यक्ति को इतना अडोल बना देती है कि आक्षेप झेलने का शाबाश हौसला बन जाती है। बहरहाल कविता किसी को निराश नहीं करती जो उसके पास तक आता हैउसे साध लेती है। मैं कह सकती हूँ कि कविता का सानिध्य प्रबुद्ध हो या न हो ममतालु तो ज़रूर होता है। जिस प्रकार माँ का मौन साया भी हमें सुरक्षित होने का एहसास बराबर कराता रहता हैउसी तरह से कविता अपने नजदीक आने वाले को साधारण से असाधारण चिंतनशील बनाने में मदद करती है। 

 

इस संग्रह की ज्यादातर कविताएँ स्त्री-सम्बंधी हैं। फिर भी मैं कोई नारेबाजी न करते हुए प्रचलित रूढ़ियों का विखंडन ही इनका स्थाई स्वर मानती हूँ। मैं चाहती हूँ कि अपनी मुक्ति की कामना के लिए स्त्री अपने जाग्रत अवस्था में स्वयं संघर्षरत रहे। वह किसी के प्रति किसी भी प्रकार की अपेक्षाएँ न करते हुए अपनी भूमिका अपने से लिखे। वैदिक काल या आदिकाल की स्त्री-भूमि को अगर देखा जाए तो स्त्री-पुरुष की जमीन साझी दिखती है। अनुभूति और अभिव्यक्ति के दायरे में खड़ी स्त्री कभी कमजोर नहीं हो सकतीबस उसे धैर्य और सहानुभूति की अभिलाषा का रुख अपनी ओर ही मोड़ना होगा। 

जिस तरह कविता को हमेशा विवेकवानभावनात्मकसमन्वय-सक्षमसमाज-संरचना में दूरदर्शी दूरबीन सरीखी मानती आई हूँउसी तरह स्त्री की मेधा काम करे और वह अपने युद्ध अपनी दम पर पूरे विधान के साथ लड़े भी और जीते भी। तो लगेगा कि स्त्री सच में सशक्त हुई है। कविता निजपरिधि प्रकृति से कम नहीं, और मानव जीवन भी एक कविता से कम नहीं। इस बिना पर कविता मनुष्य को प्रायश्चित करने के अनेक अवसर निर्मित करती है। कविता लिखने वाला यदि अपनी पीड़ाओं से निजात पाता है तो पढ़ने वाला भी अपने से जुड़ने लगता है। जबकि कविता भोली-भाली हैफिर भी वह बुद्धू नहीं है। इसी तथ्य को सोचते हुए मैं स्त्री को कविता की सहोदरा के रूप में देखने की पक्षधर बन जाती हूँ। जिस तरह कविता अपने होने में सर्वोपरि रचती हैउसी तरह एक स्त्री को सोचना होगा। दूसरी स्त्री को जन्म देते ही उसके प्रति संवेदनात्मक वातावरण निर्मित कर नव जन्मी स्त्री को सोचना सिखाना होगा। उसे प्रश्न करना सीखना होगा। अपनी बात बिना डरे कहने की हिम्मत करना होगा। कविता की चौहद्दी में धंसकर देखा जाए तो कविता अपनी परिधि में रहकर रस उत्सर्जित करती दिखाई पड़ती है। स्त्री को भी परिधि तोड़ने में अपनी ऊर्जा को बर्बाद नहीं करना चाहिए अपितु उसे विस्तारित करना है। अपनी क्षमताओं को बढ़ाकर हिमालय बनना है। न कि माटी की एक ढेरी बनकर ओसारा छोड़ बरसात में खड़े होने की जिद कर मिट जाना है।

 

जिस प्रकार कविता कभी नहीं कहती कि उसे उपन्यासनिबंधआलेखआत्मकथा या और कुछ बना दिया जाए। वह जो है, जितनी है, उसी में स्थितप्रज्ञ है। ठीक उसी प्रकार स्त्री की तर्जनी किसी और की ओर नहींअपनी ओर उठी होनी चाहिए। उसे सिर्फ स्त्री बने रहने में स्वयं को सौभाग्यशाली मानना होगा। अपने होने में अभीष्ट को खोजना होगा। बड़े-बड़े विचारक कहते हैं कि स्वयं से की गई प्रतिस्पर्धा से व्यक्ति का व्यक्तित्व निखर उठता है। उसी तरह अगर स्त्री भी पुरुष के साथ तुलनात्मक अध्ययन न करते हुए अपने होने को सुनिश्चित करेगी तो वह अपना होना सार्थक निश्चित ही कर सकेगी। अपने और अपनी अगली पीढ़ी की स्त्री-सुरक्षा हेतु जाग्रत स्त्री को सचेत रहना बहुत आवश्यक होगा। अपने इर्द-गिर्द जकड़ी बर्फीली परंपराओं का भंजन इतनी सावधानी से उसे करना होगा कि पुरुष-महल की दीवारों को क्षति न पहुँचे। इस बात को यहाँ इसलिए कहना उचित है क्योंकि जो पुरुष क्षतिग्रस्त होगावह स्त्री का अपना कोई सगा बेटाभाईचाचाताऊससुर, पिता या पति होगा। उसे पुरुष से होड़ न लेकर दूसरी स्त्री को स्वीकारना होगा। एक स्त्री को अपने चेतन-अचेतनव्यक्त-अव्यक्त,आवश्यक-अनावश्यकनिषेध और विधान आदि निर्धारण करते समय अपने जैसी दिखने वाली स्त्री से स्नेह करना होगा। इसकी एक पुख्ता वजह ये है कि जब कड़ी से कड़ी जुड़ती हैमंगलसूत्र तभी बनता है। आज के समय में स्त्री को किसी दूसरे की मंगलकामनाओं के लिए मंगलसूत्र धारण बाद में करना है, अपने बचाव और स्त्री-प्रज्ञा को सुहागिन बनाये रखने के उपाय पहले करना होगा। जो व्रत-उपवास बेटेभाई और पति की आयु बढ़ाने के लिए करती आई है, उनके साथ अब उसे अपनी बौद्धिक क्षमता बढ़ाने हेतु स्वाध्याय नामक अनुष्ठान लगातार करना होगा। बदले की भावना से अपना आपा नष्ट होता है और अगर स्त्री अपना आपा मैला कर लेगी तो किसी से होड़ क्या कर पाएगी? इसलिए शांत मन से अपने जीवन यज्ञ में ज्ञान की समिधा उसे डालते रहना होगा।

 

आज बदले से भरी हुंकारती स्त्री, दूसरे का कितना नुकसान कर पायी हैनहीं पता लेकिन अपना अहित ज़रूर कर बैठी है। कभी बेटों की असहिष्णुता से एक माँ बुढ़ापे में पराधीन मानकर परेशान होती थी, आज बेटियों के हाथ एक माँ स्त्री मौत के घाट उतार दी जाती है। हम कहाँ जा रहे हैं? कैसी स्वंत्रता की अन्वेषी बनती जा रही है स्त्री? बल्कि परिधि विस्तार करना स्त्री की नियति होनी चाहिए। मैं भी मानती हूँ। पर परिधि को तोड़ना नहीं। परिधि के बाहर जो निकल जाता हैवह धूमकेतु या पुच्छल तारे की तरह थोड़ा उजाला फैलाकर नष्ट हो जाता है। कहा जाता है कि शील आत्मा का आवरण है। कुत्सित कृत्यों से जब शील भंग हो जाता है तो इंसान के अंदर आत्मग्लानि उत्पन्न होती हैऔर उसी सड़ांध और बजबजाहट में स्त्री क्या पुरुष के वांछित अधिकार भी प्रच्छन्न टूट जाते हैं। स्त्री को किसी भी हालत में उदारता का भाव त्यागना नहीं है। बस उसे अवसर सापेक्ष बनाना है। ‘जैसी चले बयार पीठ तब तैसी दीजै’ कहावत गलत नहीं। उसे समझदार बनकर अपनी संवेदना का क्रय-विक्रय करना होगा क्योंकि करुणादयासंवेदना और उदारता वह श्लेष्मा हैजिससे स्त्री के रूपकांति में इजाफ़े के साथ अंतरदृष्टि में प्रखरता आती है। 

स्त्री को नदी की उपमा सदियों से दी जाती रही है। नदियाँ जीवन दायनी मानी जाती हैं। तो ये बात कौन नहीं जानता कि स्त्री सृष्टि की धुरी है। स्त्री की उदारता मानवीय सभ्यता के विकास से भिन्न नहीं। अब वक्त आ गया है कि स्त्री किसी और के द्वारा दी गयी उपमा को अपने जीवन का आधार बनाते हुए सपने न देखे। स्वयं अपनी तुलना के नए आयाम तलाशे। नदी के नीति-नियम को अपना हथियार बनाकर चलने की शक्ति अर्जित करे। जिस तरह नदी अपने रास्ते खुद बनाते हुए मंजिल को प्राप्त होती हैस्त्री भी अपने को नदी की रिश्तेदार समझते हुए जीवन यापन कर अपना भविष्य स्वर्णिम बनाने की अभीष्ट योजनाएं पेश करे मानवता को एक नई पहचान प्रदान करे। 

 

अभी तक जो हुआ सो हुआ। माना कि नदी सपने में थी लेकिन अब शिक्षा के साथ तकनीकी बिगुल भी बज चुका है। यानी कि अब जागने का समय आ चुका है। कम से कम अब जो लड़ाइयाँ हों वे भौतिकतावादी न होकर आत्मउत्थान के रूप में हों और स्त्रियाँ अपनी चाल चलें पर एक दूसरे को क्षति पहुँचाए बिना। कहा जाता है कि जिस पीढ़ी की पहली स्त्री जागृत होगी उसके कंधे पर स्त्री स्वतंत्रता की जिम्मेदारी का भार ज्यादा होगा। उसे पुरुषों को सबक सिखाने से पहले अपनी जाति यानी कि अपने आसपास की स्त्रियों को जागृत करना होगा। शिक्षा हमें तीसरा नेत्र सौंपती है। यह बात सब जानते हैं कि शिव का तीसरा नेत्र जब खुलता है तो वह प्रलय का संकेत होता है। लेकिन स्त्रियों को शिक्षित होकर प्रलय को रोकना होगा। उनका उद्देश्य रूढ़िगत परंपराओं का भंजन होना चाहिएपुरुष नहीं।  

यदि स्त्री को पराधीनता की भूमिका परंपरा ने दी है तो पुरुष को भी वर्चस्व की भूमिका परंपरा ने ही दी है। पुरुषों के जीवन में भी ऐसे प्रच्छन्न संकट का दौर चल रहा है। वह भी समझ नहीं पा रहे हैं कि इस नई स्त्री से किस मुद्रा में पेश आए और सुख शांति के प्रसार का भागीदार बने।”                                                                                                                                                                       (राजी सेठ-मोर्चे से हटकर से )

वरिष्ठ लेखिका राज़ी सेठ के कथन से मैं भी सहमत हूँ। इस संग्रह की कविताओं में ऐसी कई एक कविताएँ मिलेंगी जो समाज के कुत्सित चेहरे को देखते हुए अनायास कागज़ पर उतर आई हैं। विकास का उजला चेहरा सबको भला लग सकता है लेकिन इसके अवतरित होने में कितने व्यापक अँधेरे किस-किस को अपने में समोते जा रहे हैंकिसी को नहीं पता। बदलते अभावुक दौर के परिचित-अपरिचित दोनों मोर्चों पर न सिर्फ स्त्री को और न ही सिर्फ पुरुष को बल्कि दोनों को डटकर खड़ा होना पड़ेगा। सहभागिता के धरातल पर सांझी सूझ-बूझ से ही इस मशीनी युग से निपटने की बात सोची जा सकती है।

 

जिस तरह एक नदी के साथ दोनों किनारे उसके जीवन में अड़ंगा डाले बिना समानांतर बहते हुए निरंतर नदी के उद्दाम प्रवाह में सहभागी हैंउसी प्रकार स्त्री के इर्द-गिर्द रह रहे पुरुषों को उसके बारे में सोचना होगा। बरगद भले ही सदियों से पूज्य माना जाता रहा है मगर मुझे वह शोषक लगता है। उसकी जटिल,गाढ़ी और विशाल छाया किसी को उगने का अवसर मुहैया नहीं कराती। मानवीय धरातल की इस बरगदी कुप्रथा को हटाने में इस संग्रह की कविताएँ तिल भर भी अपना होना सौंपने में कामयाब होंगी तो मुझे लगेगा कि जो यांत्रिक भविष्य सुरसा जैसा मुँह खोले सामने खड़ा हैउससे निपटने में स्त्री को कुछ सहूलियत मिलेगी। जबकि कई देश विज्ञान के नशे में मानवता समाप्त करने के औज़ार गढ़ने में इतने मशगूल हैं कि उन्हें नर-मादा दोनों स्तरों के सुख-दुःख विसरते जा रहे हैं। समूची मानव जाति को रोबोट ख़ारिज करने को आतुर दिख रहे हैं। जो अति असम्वेदनशील भविष्य का द्योतक बनता दिखाई पड़ रहा है। हमें सचेत रहना होगा।

 

इस गिलहरी प्रयास में जितना मुझसे सधामैंने साधने का प्रयास किया है। आगे भी सृजन का क्रम ज़ारी रहेगा। इस संग्रह को आपके कर कमलों में सौंपते हुए मुझे हर्ष का अनुभव हो रहा है। आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा में….! 

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लेखिका : कल्पना मनोरमा 




 

Comments

  1. सुन्दर समीक्षा। बधाई समीक्षक और कवयित्री को।

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