जीवन और प्रकृति की मौलिकता लिए कविताएँ

 समीक्षा प्रियवंदा पाण्डेय

पुस्तक-----नदी सपने में थी (काव्य संग्रह)

कवयित्री कल्पना मनोरमा

प्रकाशक---भावना प्रकाशन

मूल्य 250

रचना प्रक्रिया से गुजरते हुए कवि/कवयित्री का जीवन के विविध प्रसंग से गुजरना अति स्वाभाविक बात है। सर्जक का मन कहीं प्रकृति के लावण्य पर रीझा हुआ जीव हो जाता है,तो कहीं स्वयं उसका अंग। मूर्त से अमूर्त का साक्षात्कार भी कोई सहृदय कवि ही करा सकता है।

जीवन और प्रकृति में जितनी विभिन्नता और मौलिकता है,वैसी ही विविधता और मौलिकता के दर्शन मुझे *नदी सपने में थी*काव्य संग्रह को पढ़कर समझ में आई।

आरम्भ से अंत तक पुस्तक का पाठक को स्वयं में बाँध लेना उसकी रंजकता की कहानी कहने को पर्याप्त है। कवि का मन जब लोक वेदना से जुड़ता है,कविता बंधनमुक्त होकर फूट पड़ती है।

वह विसंगतियों के प्रवाह में कभी रोता, कभी हँसता, कभी क्षुब्ध हो उठता है,और कविता में उसका रुदन,हर्ष और मन की क्षुब्धावस्था नाद उत्पन्न करती है।

एट्स का कहना है कि---दूसरों से संघर्ष करने वाला रेहटारिक लिखता है,और अपने से संघर्ष करने वाला कविता।

इस कथन के आलोक में भी देखा जाए तो कवि मन के समाधान विहीन द्वन्द्व की सहज परिणति है, कविता।

मेरा मानना है कि साहित्य की सभी विधाओं में कविता सर्वाधिक संवेदनशील विधा है।

आमजन की पीड़ा से जुड़कर ही कविता की जा सकती है।

वैसे तो संग्रह की लगभग सभी कविताएं स्त्री चेतना की वाहक हैं,किन्तु

संग्रह की प्रथम कविता में कवयित्री के भीतर का विद्रोह फूट पड़ा है,जब वह कहती हैं--अपना आप पाने की करो जिद्द खुद से

रौंद कर निकल जाओ उन रास्तों को

जो खड़े हैं, उठाए मुश्किलों के पहाड़

सदियों से तुम्हारे लिए।

खून में घुलने दो रफ़्तार।

नापनी पड़े दूरियाँ

तो नापो कदमों के बीच की दूरी।

इसी कविता में नैना रतनारे जादू भरे में फँसना जरूरी तो नहीं।

पंक्ति उन सभी स्त्रियों को सावधान करती नजर आती है,कि तुम्हारा जीवन सौन्दर्यमुग्ध पुरुष की प्रशंसापात्र होने मात्र के लिए नहीं है, तुम अपने अस्तित्व को पहचानो और आत्मनिर्भर बनो।

अगली कविता -सुबह को ढ़केलो मत

पहला कदम बढ़ाकर

उठा लो भोर को गोंद में

कविता होने से पहले एक दिशा निर्देश सी लगती है,इन पंक्तियों में कवयित्री की सजगता उनके चैतन्य के दर्शन होते हैं,जब वे कहती हैं,अवसर मत चूको,लपक लो हथिया लो,गुजर जाए इससे पहले झपट लो।

 

ऐसे ही गहना में---गहना बेशक पहनों

किन्तु खो मत देना

पाजेब की रुनझुन में खुद को।

कुदालों की बाट देखना बंद कर

उठाओ सुईयाँ,

जिन्हें पकड़ाया गया है

पैदा होते तुम्हारे हाथों में।

कविता स्पष्ट रुप से उन सभी स्त्रियों के स्वाभिमान को जगाती हुई दिख रही है,जो अपनी मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति के लिए पुरुष पर निर्भर हैं,और छोटी-छोटी चीजों के लिए भी उसका मुँह देखती हैं।कवयित्री उन्हें अपनी शक्ति को पहचानने और हुनर को हथियार बनाने के लिए प्रोत्साहित कर रहीं जो अति आवश्यक जान पड़ता है।

संपूर्ण पुस्तक में स्त्री विमर्श को व्यक्त कर रही कवयित्री जीवन के विविध मार्मिक पक्ष पर अपनी कलम चलाते हुए जिन्दा सामान शीर्षक में लिखती हैं--

पिता ने करवाए तार

लिखी चिट्ठियाँ कई

फिर एक दिन चले गये पिता

बिना मिले बेटे से छोड़कर अपना धन-धाम

 पुत्र के नाम

माँ करती रही प्रतीक्षा मौन।

बिना आवाज दिये वह लौटा

सात सागरों के पार से

किन्तु निकल चुकी थी माँ की अंतिम यात्रा आग हो चुकी थी ठंडी।

साथ में माँ की तमाम मौन इच्छाएँ भी।

हाँ घर को अभी भी प्रतीक्षा थी उसकी वह आया

और सहेजकर ले गया जो बचा रह गया था

जिन्दा सामान।

सामान्य शब्द में कही गयी कविता वर्तमान समय की सचबयानी है,जहाँ स्पर्धा के कारण हर माँ-बाप की इच्छा अपने बच्चों को बड़े पदों पर आसीन देखने की है,जिसके फलस्वरूप जहाँ वह अपना जीवन जन्म सब बच्चों पर होम

कर देने के बाद भी वह बच्चों को मानवीय संस्कार से जोड़ नहीं पाते परिणामस्वरूप वे

वंशोत्पत्ति के मूल सिद्धांत से भटकर अपने माता-पिता की वृद्धावस्था के सहारा होना तो दूर अंत्येष्टि तक न कर पा रहे,इससे बड़ा दुर्भाग्य माता-पिता का क्या हो सकता है।

दूसरी कविता में गरीबी का मार्मिक चित्रण द्रष्टव्य--सब्जीवाला आया था।

ठेली भरकर

ताजी सब्जी लाया था।

पर जीवन जानता है,

अपना चुनावी कर्तव्य

कल भी चुनेगी वह

सिर्फ चार आलूओं को बंद कर मुँह बटुए का चली जाती है कला

छौंकने खुद को/ बिना नमक के रसोई में।

कविता में गरीबी,बेबसी और आर्थिक लाचारी का वर्णन हृदय को झकझोर देता है,हमारे आस-पास ऐसी कला हर गली मुहल्ले में मिल जाएंगी,जो चाहकर भी संपूर्ण रसोई से वंचित हैं।

कविता की एक पंक्ति--पर जीवन जानता है अपना चुनावी कर्तव्य। अपनी व्यजंकता में व्यापक और सार्वभौम बन पड़ी है।

खंडित मूर्तियाँ कविता की बात न करने का मतलब पुस्तक का सारतत्व छोड़ देना,जहाँ पर स्त्री-विमर्श के सबसे महत्वपूर्ण पक्ष स्त्री के लिए स्त्री की भूमिका को रेखांकित करते हुए वे कहती हैं--

दादी नानी कहतीं

सुन स्त्री!तेरी ससुराल में जब दुख तुझे सताए

तो तुझे डूबने के लिए निराशा का सागर सदा तुम्हारे साथ है,उसमें डूब जाना

मगर अपने मायके मत भेजना

अपने दुख का संदेश ।

इस कविता का जो भाव है, इसका शिल्प और भी उत्कृष्ट हो सकता था,फिर भी कविता का भावबोध स्पष्ट है,स्त्री के लिये अर्गला का निर्माण स्वयं स्त्री ही करती नजर आ रही है,यह बात कितनी चिन्तनीय है, कि बिटिया को समर्थ शक्तिमती बनाने की जगह उसे निराशा के सागर में डूबने की बात कोई स्त्री ही कर रही है,आखिर ऐसा क्यों है,पुरुष के खिलाफ संघर्ष करने वाली स्त्री का संघर्ष स्त्री ही रोपित कर रही पुरुष नहीं।इसी कविता के अंत में वे लिखती हैं।

स्त्री मरती गई स्त्री के हाथों।इसमें कोई संदेह नहीं कि स्त्री प्रताड़ना में स्त्री की भूमिका नगण्य नहीं है,बल्कि उसकी सूत्रधार स्वयं स्त्री ही है।

गमले भर जमीन में आप लिखती हैं,

दादी,नानी,माँ,सास ये स्त्रियाँ नहीं हमारी जमीनें थीं।

पर उगा नहीं सकीं अपनी इच्छा के गुलाब।

स्त्रियाँ इतनी बेबस कैसे और क्यों हुईं ?यह शोचनीय है।

नदी सपने में थी,कविता में वे लिखती हैं--

छिपी हुई स्त्रियाँ बन गई थी नीलगायें

उन्हें घेरा जा रहा था लाठी लेकर ।

लेकिन नीलगायें बनी स्त्रियाँ दौड़ गई थीं।

अपने स्वतंत्र रास्तों पर।

यहाँ तक आते-आते स्त्री बंधनमुक्त होने का हुनर और आवश्यकता जान गई है,वह अब अपने रास्ते स्वयं दृढ़ता के साथ न चुन रहीं हैं, बल्कि उसपर चलकर अपना वान्छित गंतव्य प्राप्त करने में समर्थ हो गई हैं।

यह सुखद संकेत है।

स्त्री जीवन की विविध चुनौतियों को उकेरते हुए कवयित्री पुरुष और स्त्रियों के विविध चरित्र और दुश्वारियों को कुशलता से कहने में पूर्णतः समर्थ रही हैं।

सभी कविताएं अभिधा उत्तम काव्य है,

की तर्ज पर चलती हुई अपनी बात कह रहीं हैं।

स्त्री जीवन के संपूर्ण आख्यान का आस्वादन करने के लिए आपको काव्य संग्रह को पढ़ना आवश्यक है।

***

 समीक्षक: प्रियवंदा पाण्डेय


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