नदी सपने में थी - एकल लोकार्पण


समीक्षक: मित्र निशा चंद्रा 
कल्पना मनोरमा ( लेखिका)
नदी सपने में थी ( काव्य संग्रह)
प्रकाशन (भावना प्रकाशन )
मूल्य (250)

आज फिर मेरी यानी निशा चन्द्रा की तरफ से एक और ‘एकल लोकार्पण’ होने जा रहा है। ये लोकार्पण उनकी पुस्तक का है,जिन्होंने कभी मेरे हाथ में किसी की नवप्रकाशित किताब लिए हुए तस्वीर देखकर मुझे ये सुन्दर शब्द उपहार में दिया था.....यानी कल्पना मनोरमा ने किसी की कृति पर मेरी पहल को ‘एकल लोकार्पण’ नाम दिया था।

 

खैर, आज कल्पना मनोरमा की काव्य कृति “नदी सपने में थी” का लोकार्पण मेरे द्वारा होने जा रहा है। “नदी सपने में थी.....” किताब का नाम ही इतना खूबसूरत कि मैं कुछ देर सोच में पड़ गई कि क्या सचमुच नदी भी सपना देखती होगी। पर मेरा आश्चर्य पुस्तक पढ़ने के बाद सम पर आ गया और पता चला कि क्यों नहीं नदी सपना देख सकती है! आखिर नदी भी तो स्त्री है। ये विडम्बना है कि स्त्रियों का आधा जीवन सपने देखने में ही निकल जाता है। ऐसा नहीं सपने साकार करने का उनमें उद्यम नहीं लेकिन पिंजरे में कैद मैना उड़ान के सपने साकार कर भी कैसे सकती है। जैसा कि कल्पना की कृति का स्वर है, अब स्त्रियों को बेचारगी का चोला उतार कर फैंकना होगा और आगे बढ़कर उड़ान का सामान जुटाना होगा।

 

‘नदी सपने में थी’ किताब में संगृहित पचहत्तर कविताएँ…….. जैसे गिटार पर बजती पचहत्तर अलग-अलग सुरीली, नुकीली, सपाट और प्रेरक धुन।

कल्पना की कविताओं में सूक्ष्मतम मनोभावों का गहन चित्रण उन्हें सार्वभौमिक बनाता है तो कुछ कविताओं में स्त्री की वैश्विक पीड़ा का चित्र भी साफ नज़र आता है।

 

‘अँधेरी कोठरी में जन्मी स्त्री

पूछ बैठी, उजाले से

क्या उजाले में, मेरा भी हिस्सा है?'

 

क्या कहूँ! इस कविता में एक नए सौंदर्य का बोध कराते या वेदना की ओर दौड़ते हुए शब्द हैं या मर्मान्तक स्त्री गाथा! कविताएँ पढ़ते हुए महसूस होता है जैसे वह जीवन की सीमित इच्छाओं को, कविताओं की असीमितता में उन्मुक्त छोड़ देती हैं। प्रतीकात्मक बिम्बों से सजी कई कविताएं, शब्दों रूपी नदी की तरह लहराती-बलखाती-सी जान पड़ती हैं।

'वह लिखने लगी खुद को

नई इबारत में

स्त्री किताब बन गई...'

प्रेम, गाँव, पतंग, गहना, नदी, सपने, स्त्रियाँ, पिता,आँसू, मौन मुस्कराहट के शब्द जाल बुनती कलम से निकले कविताओं के अक्षर-अक्षर प्रभावशाली हैं। इनमें जीवन के प्रत्येक रंग, छुए-अनछुए दृश्य, प्रेम, संबंध, रिश्तों का अनोखा समन्वय है। प्रत्येक कविता अपने में एक गहनता का भाव लिए हुए है। इतना सुन्दर काव्य संग्रह हमको देने के लिये कल्पना जी बधाई की पात्र हैं। एक ऐसा संग्रह, जिसे जितनी बार पढेंगे उतनी बार एक नया सपना आँखों की राह दिल में उतर जाएगा। तो फिर आपको छोड़े जा रही हूँ उन सपनों में डूबने के लिए....जहाँ एक नदी सपने में थी या है, कुछ नदी के जल में झिलमिलाती सूर्य की रश्मियों-सी पंक्तियों के साथ......

.........................................

एक घोंसले की बुनाई में

तिनकों के साथ साथ पंछी

अपनी उम्र के साथ साथ

पंख भी बुन देते हैं....

....................... ......... ....... ....

सदियों से बुना जाता रहा है

नसीहतों का व्यापार जनाने गीतों में

इस तरह की एक औरत, दूसरी औरत को

घुमा फिरा कर बता भी दे

घुट घुट कर मरने के टिकाऊ तरीके

और बनी भी रहे स्त्री की सगी...

............................................

किसी को भी ब्रम्हा-विष्णु बनाकर

घास से अटे टीले पर बिठा देना

और दास दासी बनाकर किसी को भी

चंवर डुलाने का काम सौंप देना

आनंद का पर्याय होता था

बच्चे खेल खेल में रामराज्य जी लेते थे..

...............................................

हमारी भाषाई संस्कृति

डूबती जा रही है मशीनी शोरगुल में

हिन्दी के संबोधन हो चुके हैं मृतप्राय

डर है हमें इस बात का

'धोबी का कुत्ता, घर का नाम घाट का'

कहीं मुहावरा ही ना बचे हमारे हाथ..

..............................................

लालटेनों ने भी कर दी थी बगावत

अपने होने और न होने के बीच

खोज रही थीं, उचित-अनुचित में अन्तर

आखिर लालटेन भी तो स्त्री हुई न!

....... ..... ... ..... ..... ..... ....

कितना दर्द, कितनी व्यथा छिपी

है इन पंक्तियों में...क्या लिखूं अब. बस इतना ही.....

' कुछ ख़्वाब अधूरे से

कुछ ख्याल अनछुए से

कुछ लफ़्ज़ मुहब्बत के

बस यही तो हूं मैं.......☘️☘️

निशा चन्द्रा

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Comments

  1. सुंदर समीक्षा, आप दोनों को बधाई!

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