जीवनमूल्यों के दोहरे मुखौटे

"बाँस भर टोकरी" कविता संग्रह की अपनी बात

अब जबकि दूसरी काव्य कृति "बाँस भर टोकरी" प्रकाशन में जाने को तैयार है तो मन के धरातल पर धुकधुकी के बुलबुलों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। दिन में अक्सर आशंकित उत्तेजना मेरे  आशावादी दृष्टिकोण को प्रासंगिकता-अप्रासंगिकता वाली हलचल से भर जाती है। कविता की कसौटी पर अपने कविकर्म को कितना कस पायी हूँ और कितना छूट गया है,का विश्लेष्ण आलोचक की भाँति विचारों में स्वत: स्फूर्त हो उठता है। क्या मैं अपने द्वारा देखी,सुनी, जियी और भोगी जिन्दगी की छटपटाहटों को कविताओं में ठीक से निरूपित कर पायी हूँ? क्या किसी मूक उर की वेदना को बिनाजजमेंटलहुए होलसेल में कह पाई हूँ? विश्रृंखलित,अधूरी,बेकल सम्वेदनाएँ जिन्होंने न जाने मेरे कितने पलों का चैन छीनकर उदार मन हो सोने नहीं दिया; क्या उन सब घायल पलों की भावनाओं को मैं कविता के अंतस में सँजो पायी हूँ? काल की उजली कलुषिता और विपन्न कालखण्ड का आक्रोश जो शब्द याचनाओं के रूप में मेरे आंतरिक भावनात्मक मलवे तले दबा पड़ा था, क्या उससे पूरा का पूरा छुटकारा मिल सका होगा? क्या इस कृति को रचने के बाद पूरा न सही, थोड़ा-सा ही, आदर्शवादी खोखली लालसाओं का मोह अन्तस् से विसर्जित हो सकेगा? क्या शाश्वत में नश्वर के त्रास से निवृत्ति मिल सकी होगी? डरे सहमे बेजुबान शब्दों को उचित त्वरा मिल सकी होगी? इतने सारे प्रश्नों के साथ जब मैं अपनी लिखित-अलिखित कविताओं की ओर मुखातिब होती हूँ तो प्रश्नों की छाती में अनायास एक टीस उठती है। जिन उत्तरों के लिए मेरे प्रश्न बेसब्री से लालायित होते हैं, वे भाव वाष्पीकृत हो जाते हैं। मुट्ठियों में जो बचता है,वह आशंकाओं का अनकहा धुआँ होता है। 

 

कविता की चौहद्दी विराट है और मेरे कदम चींटी से भी छोटे। मैं सायास प्रतिदिन कविता की ओर चलती हूँ तो भी उसके आँगन के एक कोने से दूसरे तक नहीं पहुँच पाती। लेकिन जब-जब कविता मेरी ओर आई है, यकीन मानिए विश्वशनीयता का अवमूल्यन होने से बच गया और स्वत: ही कुछ कविता के लायक लिख गया। एक लेखक के तौर पर शब्दों की दुनिया मुझे बहुत मोहती है लेकिन कभी-कभी पुस्तकों के पन्नों पर स्थितियों के धधकते लावा युक्त ज्वारभाटों में उत्तेजित शब्द गडमड होकर मेरी कोमल भावनाओं के साथ ठेलम-ठेली करने लगते हैं। उस वक्त लगता है कि हथेली का सहारा लेकर सारे उद्दंड-अभद्र शब्दों को सफ़े से परे धकेल दूँ और किसी वर्तुलाकार अनजानी सुरंग में जा छिपूँ जो निरी अपनी हो। क्योंकि बिना मृदुल तरलता के जीवन का गुज़ारा सम्भव नहीं लगने लगता है। तत्क्षण मन में सुहृदय शब्द मचलकर मुझे दुलराने लगते हैं। आँखों में बसी शब्द आकृतियाँ दमक कर कानों में जलतरंग बन बज उठती हैं। इस तरह समय की रुच्छ फुसफुसाहट को शीतलता में बदलकर शब्द मेरी कलम को रफ़्तार प्रदान करने लगते हैं। देखते-देखते मेरी सहमी हिचकिचाहट कविता में तिरोहित हो मुझे पंख-सा हल्का बना जाती है।

 

कविता मेरे लिए औषधि, सखा, हमराज़, पंचिंग बैग और सुहृदय अर्धांग्नी है। कई-कई बार कविता मुझे अवसाद में दिल हारने से बचा लेती है, तो कई बार खरी-खरी कहने की ताकत भी दे देती है। मुझे लगता है इस इस्पाती तकनीकी कीचड़ में जिन्दगी को डूबने से अगर कोई बचा सकता है तो वह कविता ही होगी। जीवनमूल्यों के दोहरे मुखौटे जब-जब मेरे समक्ष उजागर हुए तब-तब उनसे उत्पन्न प्राणों की व्यग्रता को कविता ने ही सोखकर शांत किया है। अशरीरी समझ के आत्मदाह की नौबत न जाने कितनी बार आई। जिसे किसी न किसी कविता ने स्थगित कर दिया। कहीं पढ़ा था कि,"धर्म राहत नहीं, एक रोशनी है।" यानि की धर्म के बीचोंबीच रहकर आपको सीधा राहत नहीं मिल सकती बल्कि राहतें तलाशने के लिए रोशनियाँ प्राप्त होती हैं। उसी प्रकार कविता किसी का इलाज़ नहीं करती,मर्ज पहचानने की युक्ति देती है। 

मेरे लिए कविता क्या है? अगर पूछा जाए तो मैं यही कहूँगी कि कविता मेरे जीने की ख्वाहिश में ख़ुदा की बख़्शिश है। एक रक्तिम-सा अल्हड़ उम्मीदों भरा पारितोषक है जो मेरे अंतर्मन को स्निग्धिता से समृद्ध करता है। एक ऐसी नन्हीं सी आशा जो पहले से निराकार और बेरंग होती है किंतु जब मेरे पास पहुँचती है तो उसका आकार मेरी भावदशा के अनुरूप बनना शुरू हो जाता है। अर्थ ग्रहण करने से लेकर उसमें रंग भरने की किशोर जिम्मेदारी कविता मुझ पर छोड़ देती है तब कविता मुझे माँ जितनी उदार और स्नेहमयी लगती है। मेरे अन्तस् में वह सूरजमुखी के फूल की भाँति लगातार खुलती-मुंदती रहती है। सच कहूँ तो कविता लेखक के निज को जब पाठक के एकांत में खोलती है तो उसका रूप कलम से निकला, लिखा-पढ़ा प्रबुद्ध न होकर पाठक की दुनिया में उसके अपने आवाजाही वाले ताज़ादम वक्त का एक सजीव टुकड़ा होता है। जो निरा उसका अपना होता है। शायद इसीलिए कविता कभी पराई नहीं लगती है। 

 

मुझे मेरी जीवन-यात्रा में शब्द रूप या विसंगतियों का बिच्छेदन करने मात्र के लिए कविता का सानिद्ध्य नहीं मिला बल्कि कविता के प्राकृतिक जीवंत रूपों ने भी मुझे आकर्षित किया है। जैसे-बचपन की अलसाई उठी-पलकों में माँ की पहली झलक,पिता की डरी हुई स्नेहिल नाराज़गी,सुबह की अरुणाई में रवि-प्रभा में चमकता वह ओस कण जो गुलाब की पंखुड़ी पर उतना ही दवाब बनाता है, जितने में पंखुड़ी को साँस आती रहे, ठहरे हुए तालाब में मछली का अपने थूथुन से जल सतह पर जमी काई की परत को फाड़कर, हवा का एक बुलबुला निगल जाना, बसंत की नारंगी संध्या में क्षितिज की ओर उड़ान भरती पखेरुओं की वे भोली कतारें जिनके पंजों में पृथ्वी का अस्तित्व दबा दिखाई पड़ता है और जंगल में किसी नदी का एक आवारा मदहोश मोड़ भी कविता के अलभ्य सौन्दर्य से मेरे मन को आश्चर्यचकित कर जाता है। कवि गीत चतुर्वेदी की कही बात की मैं भी पुष्टि करती हूँ। उन्होंने सही कहा है कि,"कविता में निहित अनुभूतियाँ हमें वाचाल नहीं,अवाक बनाती हैं।

 

जिस रूप में मैंने धरती पर जन्म लिया और जीवन के दंगल में उतरी तो जहाँ-जहाँ कमज़ोरी का अहसास हुआ उन बेहद व्यक्तिगत स्थलों को कविता ने चुन-चुनकर सँवारा है। वैसे मैं सच्ची कहूँ तो कविता एक मंगलकारी घटना की तरह मेरे जीवन में घटी है। जब तक कविता मेरे पास नहीं थी तब तक मन की रिक्तताओं में सिर्फ़ घुटन के साथ आँसू थे जो कि मेरी माँ के लिए बेहद कष्टकारी विषय था। वे हमेशा कहती थीं कि,”व्यक्ति को इतना भी सम्वेदनशील नहीं होना चाहिए कि छोटी-छोटी बातों से उसका मन घायल होता रहे। तुम्हारा रोना मुझे सालता है।अब उनसे क्या कहती कि आंतरिक वैचारिक शरीर की रचना व्यक्ति के हाथ में नहीं होती। मेरा अत्यधिक भावुक स्वाभाव ईश्वर प्रद्दत है या कि परिस्थियों ने बनाया है इसके बाबत अलग से कुछ भी कह पाना कठिन था। वैसे भी तब इतना शऊर भी तो नहीं था कि माँ के प्रश्नों का निराकरण कर सकती। लेकिन अब कह सकती हूँ कि कविता ने ही मुझे अपनी मानसिक व शारीरिक भौगोलिक संरचना में अस्तित्व के साथ डटे रहना,अपनी भूलों को पर्दा रहित स्वीकारना, सत्य को दृढ़ता से अंगीकृत करना और झूठ की फुसफुसाहट को उधेड़कर देखना भी सिखाया है। यहाँ तक पहुँचते हुए बस इतना ही कहने का मन है कि मेरे लिखे में जहाँ-जहाँ पाठकों का मन अटकेगा वे स्थल मेरे नहीं अपितु उनकी अपनी जिन्दगी के ही होंगे क्योंकि सिर्फ़ मेरा अनुभव इन कविताओं में नहीं गुंथा है बल्कि न जाने कितने शहर और गाँव का कितना-कितना लोकमत जो झीना और फटा-पुराना कराहता-सा था, समाहित है। कितने ही जाने-अनजाने रास्तों की मौन सिसकियाँ जो साधारण कह पाना कठिन था लेकिन कविता ने खूब मन से कहा है। कविता के वास्तविक रूप, रस, गंध की अलौकिकता को पूरी तरह से कोई नहीं समझ सका है तो मैं क्या चीज़ हूँ। जैसे-या अनुरागी चित्त की गति समुझत नहिं कोय, ज्यों-ज्यों बूड़े श्याम रंग त्यों-त्यों उज्जवल होयइस दोहे में कृष्ण की भक्ति के परिपेक्ष में जो बात बिहारी जी ने कही है उसी प्रकार मेरी कविताफैशनेवलनहीं बल्कि ज़मीनी कटु यथार्थ के खुरदुरेपन को उसने घूँट-घूँट पिया है। मेरी नज़र की परिधि में मानवता की पीठ पर ररूढियों का जो कूबड़ समाज की महीन खोहों में छिपा पड़ा था उसे उघारने की एक सघन कोशिश की है। आपको बताऊँ तो मैं कविता के प्रेम में हूँ। 

 

अक्सर लोग लेखक को शक की दृष्टि से देखते हैं कि जो कुछ उसने लिखा है, सब का सब उसी का अपना आत्मालापी सच है। तो मैं यही कहूँगी कि सुख-दुःख किसी का भी हो लेकिन भावरूप में वह पकता तो लेखक के हृदय की हांडी में ही है। इस नाते वह लेखक का ही सुख-दुःख बन जाता है। एक बात की ओर आप का ध्यान और खींचना चाहती हूँ कि जिस प्रकार बाँस टोकरी से अलग नहीं हो सकता और टोकरी बाँस से। उसी तरह स्त्री-पुरुष की पीड़ा भी साझी है लेकिन दोनों की सत्ताएँ और निजतायें अपने आप में सम्पूर्ण। उसी प्रकार मेरे लिखे में आपको किसी विशेष प्रकार के विमर्श का ध्वजारोहण होते हुए नहीं मिलेगा लेकिन जो रूढ़िगत गलत लगा वह किसी का भी सच हो पूरी निष्ठा और सच्चाई से कहा गया है। क्योंकि कल्पना मनोरमा  के जीवन जीने की अपनी कुछ सीमा रेखाएँ हैं! जो उसने स्वयं निर्मित की हैं और कुछ उसकी माँ की दी हुई हैं! जिसके साथ सामंजस्य बैठा लेना उसको सदैव ही रुचिकर लगता रहा है! हँसना-हँसाना उसके जीवन का परम ध्येय और लक्ष्य रहा है! मेरा विश्वास इस बात पर पक्का है कि दुनिया में हर वस्तु,भाव, प्राणी या जीव निर्दुष्ट जन्मता है; दोषपूर्ण बनाना संसार का काम है! संसार के इसी द्वंद्व में व्यक्ति दूसरे को पीसता और खुद को पिसवाता रहता है। एक रचनाकार निर्दुष्टता और दुष्टता के बीच की विशाल खाई को अपने जीवन के तमाम अनुभवदार शब्दों और संवेदनशीलता के ईंट-गारे से पाटता रहता है। 

 

अंत में इस संग्रह को कृति का रूप देने के लिए प्रिय नीरज शर्मा जी के वनिका पब्लिकेशन का धन्यवाद। प्रख्यात साहित्यकार आ.दयानंद पाण्डेय जी और प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. इन्दीवर पाण्डेय जी के प्रति हार्दिक आभार ज्ञापित करती हूँ कि उन्होंने अपना कीमती समय देकर इस संग्रह को अपने सुंदर शब्दों के द्वारा शोभा प्रदान की है। प्रिय पाठक आशा करती हूँ कि आपके हाथ में जबबाँस भर टोकरीसंग्रह आयेगा तो कविताओं में आपके अपने जीवन की जाग्रत कौंध आपको मिल सकेगी। आपकी अनमोल किन्तु सत्यनिष्ठ प्रतिक्रियाएँ मुझे बेहतर लेखन के लिए हौसला देंगी। अस्तु!

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Comments

  1. बहुत सुन्दर लिखा है कल्पना मैम। साधुवाद आपको।

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