'लिखती हूँ मन' आवरण कथा

 

आज आवरण कथा में आलोचक, कथाकार और कवयित्री रोहिणी अग्रवाल जी का काव्य संग्रह "लिखती हूं मन" जो वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है, को रख रही हूँ। क़िताब पढ़ना कल से शुरू किया है और अभी दो तीन दिन और लगेंगे, कविताओं का मन समझने में। तब तक क्यों न आवरण की बात कर ली जाए।


किसी भी पुस्तक का शीर्षक और आवरण मेरे लिए अति महत्वपूर्ण मामला है। ये दोनों तत्व मिलकर पाठक की आँख और समझ की परिधि में अपनी सुदृढ़ जगह पहले बनाते हैं। वैसे कहा जाए तो यह आवरण शांत और सादा है पर मैं इसके भीतर की खदबदाहट को मैं खूब सुन पा रही हूँ।

पहले रंगों की बात अगर की जाए तो इस आवरण में श्वेत रंग का प्रयोग ज्यादा मात्रा में किया गया है। सफेद रंग जितना ज्यादा होगा उतना ही गहरे अन्य रंगों की गरिमा को खुलकर विकसित होने का मौका मिलेगा। उसी युक्ति का निर्वहन यहाँ दिखता है। अब बात करूँ शीर्षक की तो मन जितना विशाल तत्व इस पृथ्वी पर क्या होगा? जब कवयित्री कहती हैं कि "लिखती हूँ मन" तो वे पहले ही एलान कर देती हैं कि मैं सांसारिक स्थूलता में न उलझ कर वैचारिक और तीक्ष्ण सम्वेदनाओं और मनोभावों की बातें कविता के माध्यम से करेंगी। "मन की गति मन ही जाने और न जाने कोय, जो जाने मन की गति, सो मन जैसा ही होय।"

जब कोई व्यक्ति जान बूझकर कोई काम करता है या उसके द्वारा किया जाता है तो निश्चित रूप से वह गतिशील, उच्चकोटि और ऊर्धमुखी गतिविधियों की कामनाओं से ओतप्रोत होता है। कमतर की कामना भला कौन करना चाहेगा? इसलिए कवयित्री ने अपनी भावनाओं को लिखने के लिए 'मन' को निमित्त बनाया है।

आवरण पर बने चित्र और शीर्षक को मिलाकर देखा जाए तो तो कैसा तो सुयोग बना है। मन चंचल, मछली चंचल। मन का प्रतीक मछली को लिया जाना भी एक मज़ेदार बात हैं। मन की चंचलता और तरलता मछली के समकक्ष मानी जा सकती है। पर सभी जीवों के पास मन तो एक होता है। पर यहाँ मन के रूप में दो मछलियाँ क्यों? तो आपको बता दूँ वह इसलिए संसार में किसी के पास दो मन हों या न हों पर स्त्रियों के पास दो मन होते हैं।

देखने की बात ये है कि दोनों मन वाली स्त्रियाँ इस अधम संसार सागर से ऊब कर आसमान की ओर रुख कर चुकी हैं। उन्हें अब पानी नहीं ओस की जरूरत है। वे जान गयी हैं, पानी में ओस जैसी निर्मलता नहीं होती। बात ये भी यहाँ कही जा सकती है कि मीन और नीर का साथ अमर है फिर जल से अलग होकर मछली आसमान की ओर जाती हुईं क्यों ? क्योंकि ये दोनों मछलियाँ उन स्त्रियों के दो रूपकों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं जिन में एक अपना होना स्वयं जानती है और एक अपना होना दूसरे के मतानुसार जानती है। जितना जो कह देता है, उतना वह मान लेती है लेकिन अब दोनों मन वाली स्त्रियां धरती के वास्तु शास्त्र से नहीं आकाशीय मनोविज्ञान को समझ कर अपना जीवन व्यापार समझना चाहती हैं।

लाल रंग प्रेम का ....इसलिए लाल परिधान में लिपटी मछली का स्वभाव बेहद प्रेमिल और परपीड़ा को आत्मसात कर अपने को भुलाकर दूसरे को खुश करने वाली गतिविधियाँ करते हुए अपने प्रेम के प्रति समर्पित हो जाती है। वह अपने मनचीते को बिना कहे-सुने बस अपना तन लिखती रहती है। संसार में उसे गाय के नाम से भी पुकार लिया जाता है।

दूसरी नीले परिधान में लिप्त स्त्री मछली ने उस रंग पर अपना हक़ जताया है जो उसका कभी था ही नहीं लेकिन उसने अपनी मेधा-प्रज्ञा की दम पर उसे हासिल कर लिया है। अब वह अपना मनचीता समझ-बुझकर अपना और अपनों का मन लिखती है और तमाम युद्धों को जीत जाती है। प्रज्ञावान स्त्री को किसी और से तारीफों की खुराक नहीं चाहिए। वह अपने द्वारा निर्मित कार्मिक धरातल पर बौद्धिक भवन का निर्माण कर उसमें तितीक्षा का सिंहासन डालकर सुबह-शाम को अपने अंतर में उतरते हुए देखती है।

ध्यान से देखा जाए तो दोनों मन वाली स्त्रियों या मछलियों की पूंछ और गिल में हरे रंग का प्रयोग किया गया है जो प्रकृति का द्योतक है। दोनों मन वाली स्त्रियों ने प्रकृति का साथ कभी नहीं छोड़ा क्योंकि वे जानती हैं कि जो प्रकृति बाहर है वही उनके भीतर दिपदिपा रही है। दोनों का समानरूप तादात्म से स्त्री संपन्नता की गाथाएँ लिखी जाना संभव है। आवरण में आसमान भी उतना ही लिया गया है जितना स्त्री का अपना है। किसी और के हिस्से की ओर ताकना दोनों मन वाली स्त्रियों को पसंद नहीं।

सब से महत्वपूर्ण अगर कुछ इस शीर्षक और आवरण में है तो वे हैं मछली की पूंछ में लटकते सौ सेरा यानी वजन नापक यंत्र यानी बनिए वाले बाँट। इतनी खुबसूरत मछिलयों के पीछे अब ये बाँट क्यों लटकाए गए होंगे? दरअसल ये बाँट नहीं स्त्री का दमित इतिहास है जो पत्थर बनकर उसके पीछे हर वक्त लटका रहता है। वैसे तो इसे नेस्तनाबूद भी किया जा सकता था लेकिन उसमें समझदारी नहीं है। अपना इतिहास जो भूल जाता है वह बवंडर में उड़ते तिनके सरीखे पता नहीं चलता कहाँ से कहाँ जाकर गिरे, कौन जाने इसलिए सजग स्त्री ने अपना संतुलन बनाये रखने के लिए ये उपाय खोजा है जो बेहद लाजमी है। एक परिपेक्ष तो ये समझ आ रहा है।

दूसरा ये कि ये बाँट नहीं स्त्री ने आसमान में उड़कर चाँद के पन्ने पर कविता लिखने के लिए एक ऐसा उपाय खोजा है जो उसे जमीन से जोड़े रखता है। जमीन हमें सीधा खड़े होने मदद करती है। उड़ने के दौरान उत्पन्न ऊर्जा कहीं स्त्री को ही नुक्सान न पहुँचाने लगे इसलिए उसने कुछ अर्थिंग मेटेरियल टाइप को प्रज्ञा के तार के सहारे अपने पीछे लटका रखा है। वह ये भी जानती है कि हल्कापन चाहे कार्यों में हो या भावनाओं में शोभा नहीं देता। अपनी प्रज्ञा को पत्थर के रूप में स्त्री ने अपने साथ लगा रखा है। पत्थर जल्दी नष्ट नहीं होते।

इसका तीसरा परिपेक्ष भी हो सकता है। वह ये कि स्त्री की बीत चुकी पीढ़ियों का दर्द जब तक स्त्री के साथ नहीं रहेगा, वह अपने मन्तव्यों में कामयाब कैसे हो सकेगी? इसलिए बीत चुकीं स्त्री-पीढ़ियों को सांत्वना देने के लिए एक लक्ष्य पत्थर को अपने साथ लगा रखा है। लक्ष्य सामने रखो या पीछे वह अपना होना लगातार जतलाता और बतलाता रहता है।


"लिखती हूँ मन" शीर्षक इसलिए भी सार्थक ध्वनि में निहित है क्योंकि इसकी परिधि ब्रम्हांड से कम नहीं। इस संग्रह में स्त्री अस्मिता से जुड़ी गहन भावबोध की कविताएँ पाठक को पढ़ने मिलेंगी।

इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपनी लेखनी को विराम देती हूँ और हमारी प्रिय लेखिका रोहिणी जी शतायु हों, की कामना करती हूं। चित्रकार मित्र अनु प्रिया को अनेक शुभकामनाएं और बधाई
💐


कल्पना मनोरमा 
****

कृति : लिखती हूँ मन 
कवयित्री : रोहिणी अग्रवाल 
प्रकाशन : वाणी प्रकाशन ग्रुप  
कृति मूल्य : 299/-

 


Comments

  1. किसी पुस्तक के आवरण का इतना सुंदर और गहन विश्लेषण पहली बार पढ़ा, बहुत अच्छा लगा

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