नमक की गुड़िया ये नहीं

चित्र : अनुप्रिया 

"उम्र आधी गुज़र जाने के बाद भी शाम गहराने से पहले मैं दरवाज़े की कड़ी खोल देती हूँ ताकि ऑफ़िस से लौटते हुए पति को बाहर प्रतीक्षा न करनी पड़े। अब आप चाहे तो इसे मेरा डर कह सकते हैं या अपना चैन बेमतलब क्योंकर गमाऊँ वाला रवैया या फिर जो आपका मन, कहें लेकिन मैं करती ऐसा ही हूँ।

 

विचारों की तहों में उलझे क्रोशिया चलाते हुए मैं दीवार घड़ी पर नज़र दौड़ाती हूँ,’आज़ तो छह बजने वाले हुए, दरवाज़ा तो मैंने खोला ही नहीं। मदन यानी मेरे पति कहीं बिफ़र न पड़ें।हाथ में पकड़ा क्रोशिया और धागे की पोनी को बेड पर छोड़ जल्दी से दरवाजे की कड़ी खोल देती हूँ। लौटकर बिस्तर पर फैली चीज़ों को जगह पर सहेज ही पाती हूँ कि मदन साहब सपाट चेहरे के साथ घर में प्रवेश करते हैं।

 

अरे! आपके हाथ में ये पोस्टमैन वाला बैग? क्या डिमोशन कर डाकिया बना दिए गए हो?” उनका हुलिया देखकर मैं अपने मन के माहौल को खुशनुमा बनाए रखने की ख़ातिर मज़ाकिए लहजे से पूछती हूँ।


क्या बकवास है? अपनी कॉलोनी की कुछ किताबें,रजिस्ट्री और पत्रिकाएँ हैं। एक नए ज्वाइनी डाकिए की ड्यूटी इधर ही चल रही है। चलते समय बैग थमाकर वह रिक्वेस्ट करने लगा। कहने लगा, उसकी बीवी बीमार है। दो दिन से छुट्टी पर था, और कल भी रहेगा। जिनकी पत्रिकाएँ हैं, वे इंतज़ार में होंगे…। सोचा, गेट पर देता हुआ सुबह ऑफिस निकल जाऊँगा। इसमें हर्ज ही क्या? लेता आया।मुझे समझाने के भाव से कहते हुए मदन अपनी स्थूल काया से ऑफिस को उतारने की जुगाड़ करने लगते हैं पर मेरा ध्यान पत्रिकाओं वाले थैले पर जम जाता है।

 

हाँ हाँ, क्यों नहीं, आपके आगे तो हर्ज़ भी बेचारा हर्ज़ में पड़ जाए..।उन्हें चिढ़ाने के मूड से मैं कहती हूँ लेकिन मदन बिना बोले डाक-पोस्ट वाला थैला टेबल पर टिका फ्रेश होने गुसलखाने की ओर चले जाते हैं। मैं पत्रिकाओं में से एक-दो को खोलकर देखना चाहती हूँ पर किसी न किसी तरह से सभी सील पैक दिखती हैं, सम्हाल कर पुनः थैले में रख देती हूँ।

 

चाय…?” मूँछों पर ताव देते हुए नजदीक आकर मदन पूछते हैं।

बनाई नहीं।खिलंदड़ी लापरवाही से मैं कह देती हूँ।

"क्यों…?" अचानक उनका स्वामी भाव उबल पड़ता है पर मैं अपने में रहकर पुनः बोलती हूँ।

मुझे भी हर महीने अब एक-दो साहित्यिक पत्रिकाएँ चाहिए। बहुत दिनों से कहना चाहती थी…। कारण, अब तेजस हमारा बेटा भी जॉब पर चला गया है। सभी दायित्यों को निभाने के बाद मेरे पास समय ही समय है, जिसे अब अपने लिए खर्चना चाहती हूँ।” 

 

"मोहतरमा! अब! इस बुढ़ापे में? अपनी सूरत देखी है आईने में? ज़रा मेरी तरफ देखकर बताओ कि अब पढ़कर करोगी क्या? जब पढ़ना था तब तो तुम्हारे बाप ने पढ़ाया नहीं इसलिए मेरे ढके-मुंदे सीने के घावों को ढँका ही रहने दो, बेहतर वही होगा। मेरी ही मति मारी गई थी जो तुम जैसी को ब्याह लाया। खैर छोड़ो....! पहले चाय पिलाओ, बातें बाद में..।" मेरी बात को हवा में उछाल, पाँव टेबल पर फैलाकर सोफ़े पर पसरते हुए, मदन मोबाइल स्क्रॉल करने लगते हैं। उनकी सजीव लापरवाही देख मेरे शरीर का तापमान बढ़ने लगता है और मैं न चाहते हुए भी भीतर से भभकते हुए बोलती हूँ।


"पहले तो घड़ी-घड़ी मेरे बाप पर मत जाया करो और दूसरे मेरी प्राइवेट फीस भरकर आपने मुझे कोई इंद्र-भवन से पारिजात के फूल नहीं ला दिए। और ये आपसे किस ने कह दिया कि बुढ़ापे में कोई पढ़-लिख नहीं सकता?”

" वैसे तुम्हें याद रखना चाहिए, कोई की बात मैं कभी करता ही नहीं। मुझे क्या मतलब किसीकोईसे।

"अच्छा! तो ये मैं कैसे भूल सकती हूँ किकोई औरसे भी गई गुज़री हूँ। आख़िर कब तक और कितने-कितने प्रतिबंध लगाते जाओगे...? मेरे बाप ने नहीं पढ़ाया, चलो मान लेती हूँ लेकिन मैंने इतना तो पढ़ ही लिया है कि पत्रिका पढ़ सकूँ? वैसे भी आपके अनुसार मेरे जॉब से धन की उगाही हो नहीं सकती थी इसलिए बच्चा पैदा कर उसका लालन-पालन करना ही मेरे होने की तब अहम् बात बन गयी थी। जब बेटा बड़ा हुआ तब मंजुला के साथ सोचा समाज-सेवा से जुड़ जाऊँ तो,"अम्मा-बाबू की सेवा ही तुम्हारी समाज सेवा हैआपने मधुर राग अलापा था। और अब! जीवन के सारे ज़िंदा तार मेरे बुढ़ापे से आकर ऐसे जुड़ गए हैं कि वे हमेशा थरथराते और काँपते रहते हैं, जिनसे कोई बढ़िया पुरसुकून ध्वनि जो आपको पसंद हो,निकलने की गुंजाइशें ध्वस्त हो चुकी हैं। और मुझे ये बात पता भी नहीं चली। हद है…!कहते हुए मेरी दृष्टि साँझ पर चली गयी तो लगा मेरे अफ़सोस में वह भी मलिन हो शामिल हो चुकी है। 


 

"अरे भाई साहब! ओ हो हो! तुमसे बात करना मतलब कोल्हू में सिर देना है। कभी घुटने तो कभी कमर में दर्द, मैं तो तुम्हारे हित की बात कहता हूँ। अपने पर ध्यान दो! पत्रिकाएँ आ भी गईं तो कोने में पड़ी रहेंगी। होना तो मेरे पैसे ही बर्बाद है, और इतने पैसे हैं भी नहीं हमारे पास कि तुम फिजूल के शौक पालो और मैं मुस्कराता रहूँ। मैंने तो इस लिहाज से कहा और तुम हो कि मेरा दिमाग खराब करने पर उतर आई हो।" कहते हुए मदन दो छोटे कुशन अपने बड़े पेट को सहारा देने के लिए लगाकर आँखें मूँद लेते हैं।

 

बहुत सही! ये मैं क्यों भूल गयी कि आप कभी गलत हो ही नहीं सकते। वैसे सच कहूँ तो तुम्हारे पास नियत की कमी है, पैसे की नहीं। रही ध्यान देने की बात तो अब मैंने ध्येय बना लिया है कि मैं सिर्फ और सिर्फ अपनी सुनूँगी। हाँ, बढ़ती उम्र के साथ इतना जरूर याद रखूँगी कि आपके सम्मान को कोई क्षति या ठेस न पहुँचे।उनके चेहरे पर बिना चश्में वाली नज़र गढ़ाते हुए मैं कहती हूँ। मुझे सारे दृश्य धुँधले दिखते हैं तो मैं अपना चश्मा खोजने लगती हूँ।

“.......”

पर मेरा खिसियाया चेहरा देखकर मदन चिरपरिचित अपने हथियार 'चुप्पी' को साध लेते हैं। न चाहते हुए खिन्नता लिए मैं रसोई की ओर चल पड़ती हूँ। थोड़ी देर में चाय के प्यालों के साथ हम फिर आमने-सामने हैं लेकिन नदी के दो निर्वैयक्तिक अडोल पाटों की तरह, अपनी-अपनी गीली-सूखी परिधियों में घोंघे सरीखे। इसी तरह हम दोनों के बीच अनगिनत चीखती-चिल्लाती दाम्पत्य की साँझी अपेक्षाएँ कुंद पड़ती चली आ रही हैं। 

 

एक बात पूछूँ?” अपना क्रोध जब्त करते हुए माहौल को हल्का बनाए रखने के बाबत मैं कहती हूँ।

हाँ,पूछो मगर पत्रिकाओं के बारे मैं कतई कोई बात नहीं करूँगा।” 

अजीब किस्म का आदमी है। कहा नहीं, सोचा। कहा, अपनी कॉलोनी में किताबें पढ़ता कौन है?” 

"जिसे जीने का चाव होगा।" अबकी मदन फ़ीके से मुस्कुराते हुए चाय का प्लाया उठाकर बालकनी में चले जाते हैं। उनकी इस हरकत पर मुझे बड़ा अपमानित महसूस होता है।

 

माने! किताबें जिंदगी से लबरेज़ होती हैं। लोगों को चाव भी देती हैं लेकिन मैं नहीं पढ़ सकती क्योंकि मेरे पिता ने मुझे समय रहते पढ़ाया नहीं और अब मैं बूढ़ी हो चुकी हूँ।वाह रे जीवन! मर्दों की हिप्पोक्रेसी में सुन्न पड़ चुके मेरे दिमाग में एक बगावती स्वर गूँजा। तत्क्षण मन ने एक निर्णय लिया। "अब तो ज़रूर पढूँगी। अतृप्ति के सागर में एक अदत ख़ुशी की नन्हीं सीपी अगर मिल जाए तो उससे अच्छा और क्या…?" 

 

बचपन में माँ कभी-कभी जब वे अपनी रौ में होती थीं, दबे स्वर में कहा करती थीं, किताबें पढ़ना एक कला, एक आर्ट होती है। काश! मैं सीख लेती। तब नहीं तो जब एम. ए. बीएड मालती चाची ब्याह कर आईं, जिन्हें गृहस्थी के तालाब में मछली बनाकर कैद कर लिया गया था, बार-बार कहा करती थीं।जीवन का अवरोह तभी सुकून देता है जब उसके आरोह का इतिहास सधा रहा हो। नहीं तो ढलान पर अक्सर चाल बिगड़ जाती है।उनकी इस बात से सीख लेती लेकिन तब उम्र का तकाज़ा रहा कि मुँह दबाकर मैं भी हँस पड़ती थी।

 

लेकिन आज अपने सन्दर्भ में मालती चाची का वही कथन प्रामाणिक और सजीव-सा लगने लगा है। निरुद्देश्य मेरा जीवन ढलान की ओर रुख कर चुका है मगर निजता को सजीव बनाए रखने की तैयारी शून्य। जबकि व्यक्ति कितना भी सामाजिक क्यों न हो अंतत: मन के भीतर वह होता नितांत अकेला ही है। उस अकेलेपन को भरने की नंगी लालसाओं की अतृप्त माँगें और प्रयासों के टूटे पुल पार करते-करते मैं थक चुकी हूँ। क्या उम्र की अट्ठावन सीढ़ियाँ उतर चुकी स्त्री का जीवन किताबों से रोशन हो सकेगा?" 

शाम से रात सोने तक सोचते हुए मैं पति से फ़्रांसीसी लेखिका-दार्शनिक सिमोन द बोउआर की किताबदि सेकेण्ड सेक्सका हिंदी अनुवाद लाने को कहती हूँ। इस किताब के चुनाव का कारण अभी हाल ही में  इसकी चर्चा अपने स्कूल मित्रों के व्हाट्सएप ग्रुप में जोरशोर से चलते हुए मैंने देखी थी। स्त्री अधिकारों को समझने के लिए इसे पढ़ा जाना ज़रूरी बताया जा रहा था।ख़ास तौर से उन स्त्रियों को जो अपनी कद्र ख़ुद नहीं करती हैं और उन पुरुषों को भी जो पितृसत्तात्मक पिच के बाहर रहते हैं।कई मित्रों ने मज़ाक से हटकर आपस में ये बात कही थी।

 

"इस किताब के बारे में तुमने सुना कहाँ से? पति आश्चर्य से बोले और उठकर बैठ जाते हैं।

उससे आपको मतलब क्या? क्या अपने मन की अब मैं किताब भी नहीं पढ़ सकती हूँ?” रूखा रुख अपनाते हुए मैं कहती हूँ। रोशनदान से आती रोशनी में उनका चेहरा शरारत से भरा लगता है।

 

ऐसा है! बूढ़ी गौरैयाँ ऐसी किताबें नहीं पढ़तीं। अपना घोंसला सहेजने में ध्यान लगाओ, हम ऐसे ही खुश हैं।हे हे हे करते हुए मदन बेड पर लोटपोट हो जाते हैं। उनकी हँसी ऐसी कि किसी का भी आत्मविश्वास तोड़ दे पर मैं उसे तकिए के नीचे दबा कर लेट जाती हूँ।

 

अरे! मेरी बात का गलत मतलब क्यों निकालते हो? तुम पुरुष भी न!सेक्सका नाम सुनते ही बौरा क्यों जाते हो? तुम्हें ऐसे ही खुश रहना है, रहो। मैं तो बस पढ़ना और सिर्फ़ पढ़ना चाहती हूँ।कहना था किन्तु कहा नहीं। बस अपने कंधे के नीचे से दुपट्टा खींच,पढ़ने के बाबत गाँठ बांध करवट फेर लेती हूँ। हृदय में उमड़ता चक्रवात नींद को डस लेता है। खिड़की की झिर्री से अन्दर घुसती चाँदनी भी अजीब अवसाद बिखेरती हुई लगती है। 

 

सन्नाटे भीतर की दीवारों पर बँधी बोध की घंटी जब बजाने लगें तो अलग प्रकार की पीड़ा उत्पन्न होती है जो निशब्द साँसों की कविता बाँचकर इस तरह सुनाती है कि आप सुनने के लिए विवश हो जाते हैं।रात भर मेरा हाल कुछ वैसा ही रहता है। सपने में मदन लड़ते रहते हैं और उससे उबरने के मैं मंसूबे बनाते हुए अधसोई बनी रहती हूँ। सुबह होने पर मौन यंत्र चालित काम निबटाने में लगती हूँ पर मदन की रात वाली हँसी मन को बेतरह कुरेदती रहती है। आख़िर किताबें कहाँ से मँगवाऊँ? "फ़्लिपकार्ट-अमेजन आभिजात्य वर्ग का शगल और मध्यम वर्ग के लिए ठगी का जाल है।" कई बार मदन को कहते सुना था। जिस दुकान से बेटे को किताबें दिलाती आई थी,वह घर से बहुत दूर है। रास्ता भटकने का टंटा अलग। मन ही मन शान तो लगा ली, अब करूँ क्या?" 

 

मदन के पोस्ट ऑफिस जाने के बाद ऊहापोह समेटे एक प्याला चाय लेकर मैं भी टेरेस पर चली जाती हूँ। हर ओर जोगिया बादल मचलते दिखे मगर वे भी उल्झन से भरे दिखते हैं। दूसरी तरफ़ अलसाए रास्ते मेरी तरह जागे तो पर उदासी उनपर भी काबिज दिखती है। अकुलाहट में सिर उठाकर मैं इधर-उधर ताकती हूँ। घर के बराबर खाली प्लाट में मोबाइल चलाते दो लड़के दिखते हैं। उनके हाथों में मोबाइल देखकर मेरे दिमाग में भी एक विचार कौंधता है। चाय का प्याला बाउंड्री पर रखकर तत्क्षण अपने मोबाइल को खोलकर गूगल सर्च मेंलाइब्रेरी नियर मीलिखती हूँ। एक पल मेंलाला लाजपत राय लाइब्रेरीका पता मेरे सामने दिपदिपाने लगता है। गूगल मैप से पूछने पर वह घर से पुस्तकालय का दस मिनट का रास्ता बताता है। अचानक मन कुछ स्फूर्ति से भरा लगता है। 


छत से उतर बीस से तीस मिनट में तैयार होकर मैं स्कूटी से लाइब्रेरी पहुँच जाती हूँ। स्कूटी को फुलस्टेंड पर खड़ी करने में थोड़ी मशक्कत ज़रूर लगती है लेकिन फुलस्टेंड पर उसे पार्क कर हेलमेट डिक्की में रख मेरी अधबूढ़ी आँखें सबसे पहले नज़र भर इमारत को देखती हैं। अग्रेजों के जमाने की बनी लाल बिल्डिंग मुझे अपनी-सी लगती है। एक लक्ष्मण रेखा जो बहुत पहले पार कर लेनी थी,उसके बाहर खड़ी हूँ। बिल्कुल अपने साथ। पति से बिना पूछे। लाइब्रेरी फेंस के किनारे यूकेलिप्टस लहराते हुए और कुछ गमलों में दसबजिया गमकते हुए दिखती है। लगता है, वे पेड़-पौधे नहीं, मैं ही हूँ। ठिठक कर हवा को भरपूर फेफड़ों में भरती हूँ और लाइब्रेरी की सीढियाँ चढ़ जाती हूँ। काँच का दरवाज़ा जो हाथ लग-लग कर गंदा हो चुका होता है, धकेल कर खोलती हूँ। गेट की दाहिनी ओर काउंटर पर एक गंजा आदमी कुछ लिखने में व्यस्त दिखा, मुझे अंदर आते देखकर वहीं से वह बोलता है।

 

हाँ बहन जी! क्या चाहिए?”

मुझे लाइब्रेरियन से मिलना है।

जी कहिये, मैं ही हूँ …।कहते हुए वह मेरे पास आकर खड़ा हो जाता है।

जी, मुझे किता…।

किताबें बिक्री नहीं होतीं यहाँ। ये लाइब्रेरी है।समझाने के-से स्वर में वह बोलता है।

जी, आप मुझे बोलने का मौका देते तो मैं पूरी बात बोलती। किताबें ख़रीदने नहीं, पढ़ने आई हूँ और आज से रोज़ आया करूँगी।मैं अभावुक चेहरे से कहती हूँ। सुनते ही लाइब्रेरियन के चेहरे पर विस्मय छा जाता है। उसकी आँखों पर चढ़े चश्में के शीशे में खुद को देखती हूँ तो ठीक ही दिखती हूँ पर इसके चेहरे पर इतने प्रश्न उगे क्यों दिख रहे हैं? क्या ये भी असहाय बूढ़ा समझ रहा है मुझे? क्या इसे भी लग रहा है कि बूढ़ी होतीं स्त्रियाँ किताबें नहीं पढ़ सकतीं?” अपने विचारों को नकारते हुए मैं फिर से बोलती हूँ।

 

क्या हुआ? क्या मैं यहाँ नहीं पढ़ सकती?”

"क्यों नहीं! क्यों नहीं! आपका शुभ नाम ?”

कृतज्ञता

पूरा नाम मैडम!

कृतज्ञता के नाथ!

के नाथ ?”

जी, 'के' से केशव पति के पिता का नाम और नाथ! उनका सरनेम है।

देखिये मैडम! केवल वे ही लोग यहाँ प्रवेश कर सकते हैं जो संघ शासित क्षेत्र दिल्ली के निवासी हैं अथवा यहाँ कार्य या व्यापार करते हैं,पुस्तकालय के सदस्य बन सकते हैं।

क्या हुआ? क्या आपने मुझे साउथ इंडियन समझ लिया है? नहीं नहीं, मेरे पति यहीं जन्में हैं और अब भारतीय डाक विभाग में पोस्टमास्टर के पद पर कार्यरत हैं। इस नाते हम वर्षों से इसी शहर में रहते आ रहे हैं।

जी, मेंबरशिप, सौ रुपए महीने रहेगी।कहते हुए वह मेरा नाम रजिस्टर में लिखने के लिए अपनी डेस्क की ओर मुड़ता है तो मैं भी पीछे-पीछे चल पड़ती हूँ।  

जी, ठीक है।” 

ये भी आप जान लें कि हमारा पुस्तकालय सोमवार से शनिवार/ प्रातः 10.00 –सायं 05.00 बजे तक खुला रहता है। रविवार और राष्ट्रीय छुट्टियों में बंद रहता है।लाइब्रेरियन कृत्य गौरव से बोलता है।

ठीक है।” 

चित्र : अनुप्रिया 

तो अब आप कहीं भी बैठकर पढ़ सकती हैं। आज से ही। शर्त बस इतनी, शोर किए बगैर।लाइब्रेरी कार्ड मेरी ओर बढ़ाते हुए वह विनम्रता से कहता है। सौ रुपये उसे पकड़ाते हुए मैं चारों ओर निगाह दौड़ती हूँ तो किताबें ही किताबें अपने समाने पाकर बच्चों जैसी उमंग आँखों से छलक पड़ती है। थोड़ा-सा आगे बढ़ी तो रीडिंग रूम में एक बड़ी-सी मेज के चारों ओर गद्दी लगी कुर्सियाँ पड़ी देखती हूँ। गुदड़ी-गूथन सीने वाली आँखें और मसालों की गंध पहचानने वाली नाक,पुराने कागज-इंक की गंध से सनसना उठती है। हिंदी किताबों की अलमारी में मेरी नज़र अज्ञेय की कृतिशेखर एक जीवनीपर पड़ती है। मैं उसे ही उठा एक कोने में जाकर बैठ जाती हूँ। दो-चार लोग किताबों में सिर डाले पढ़ते हुए दिखते हैं। कीचड़-भरे गड्ढे को लाँघने के बाद मिले सुकून जैसा महसूस होता है। बोतल से दो घूँट पानी पी और चश्मा पोंछ कर मैं किताब खोल लेती हूँ। मन तरलता का अहसास कराने लगता है।इस समय माँ मुझे देखती तो कितना खुश होतीं! उनकी दबी-दबी तमन्ना थी कि मैं पढ़ लिखकर कुछ अच्छा करती।” 

 

मैं पढ़ना शुरू करती हूँ। पहला वाक्य,”गाड़ी भड़भड़ाती हुई दौड़ रही थी।पढ़ते हुए मुझे घर, सड़क, रसोई, और जीवन में किए ताँगें और बसों के तंग सफ़र याद आने लगते हैं। जल्दी से किताब बंद कर घर जाने की एक उतावली-सी मन में उठती है। फिर ध्यान आता है कि मदन छह बजे तक घर पहुँचते हैं। बेटा बैंगलोर में बैठा है। गहरी साँस खींचकर मैं फिर से किताब खोल लेती हूँ। पीठ अकड़ कर मुझे मदन की तरफ़दारी करती हुई-सी लगती है, जिसे नजरंदाज करते हुए पाँच बजे तक जितने पन्ने पढ़ती हूँ, उतने से महसूस होता है कि मैं एक रूमानी कृति पढ़ रही हूँ। 

 

शेखर की नायिकाएँ सरस्वती, प्रतिभा, शारदा आदि से अपनी तुलना की तो मेरा जीवन बदरंग लरजता हुआ-सा प्रतीत होता है। प्रेम का गहरा अर्थबोध मेरी मुरझाई चेतना तरंगित करने लगता है।किताबों से जीवन की खुशबू आती है।लगता है कि छीजता-सिकुड़ता मेरा बूढ़ा आलोक आत्मा की ओर पसरने लगा है। आँखों के पास की झुर्रियाँ पसर कर समतल हो रही हैं। दबा-कुचला मन जिज्ञासु बन रहा है। किताब बंद करते हुए खिड़की के बाहर नज़र जाती है, धूप नरम पड़ चुकी होती है। हवा पेड़ों को झुला रही होती है। मैदान में बैठे पाठक जा चुके होते हैं। बुकमार्क लगाकर मैं भी किताब को सेल्फ़ में रखकर चुपचाप घर चली आती हूँ। 

पुराना ढर्रा चुटकी बजाते कभी नहीं बदलता सो मेरे हिस्से का स्तब्ध सन्नाटा हमेशा की तरह मुझे दरवाजे पर खड़ा मिलता है किंतु मेरे मन को उद्वेलित नहीं कर सका, उसे परे धकेल मैं घर के अंदर घुस जाती हूँ। थकी कमर के बावजूद तसल्ली कंधे थपकने लगती है। संध्या कार्यों से निबटकर जब रात में बिस्तर पर गयी तो आदतन वह भी बगावत छेड़ता है किंतु उतनी पीड़ादायक महसूस नहीं होती है। बहुत लंबे समय से खारे सपने लिए नींद आ रही थी,सोई उसी तरह किंतु जागने पर डरती नहीं हूँ और इस तरह मुझे समझ आता है कि किताबों से छोटा ही सही, सरमाया मिलना शुरू हो चुका है। 

 

दूसरे दिन सुबह होते ही मदन हमेशा की तरह गुनगुनाते हुए अपने में लीन दिखते हैं।

मदन, आज से अपने-अपने काम हम स्वयं करेंगे।मैं कहती हूँ।

क्यों?” पलट कर अचकचाए हुए-से पति बोले।

क्योंकि अब मैं भी फ्री नहीं हूँ जो घर के काम निबटाती रहूँगी। समय से मुझे भी पहुँचना होगा।

कहाँ…?” उनका मुँह खुला का खुला रह जाता है जो मुझे मुस्कुराने की वजह दे जाता है।

पुस्तकालय, मेरा मतलब लाइब्रेरी।

क्यों? किस लिए ? मैं समझा नहीं।

मैंने लाला लाजपत राय पुस्तकालय की सदस्यता ले ली है। प्रतिदिन वहाँ किताबें पढ़ने जाया करूँगी।

"...और मुझसे पूछने की जहमत तक नहीं उठायी तुमने?” मदन खासे नाराज़ होकर बोलते हैं और एक-दो सामानों में ऐसा हाथ मारते हैं कि भड़भड़ा कर सामान जमीन पर लोटने लगता है पर अपने में तटस्थ रहकर मैं फिर से बोलती हूँ।

इस बार पूछना मुझे ज़रूरी नहीं लगा आखिर बूढ़ी हो चुकी हूँ तो अपना अच्छा-बुरा खुद समझ सकती हूँ।निरे अपने प्रति छोटे-मोटे निर्णय भी ले सकती हूँ।

अरे! पर बताना भी तो जरूरी होता है, या नहीं…?”

मैंने तो आपके किसी भी निर्णय लेने पर नहीं कहा, मुझे बताया क्यों नहीं।” 


उनके बहुत पूछने पर भी मैं नम्रता से उन्हें कुछ बता नहीं पाती हूँ, इस झुँझलाहट में मदन बिना नाश्ता खाए पोस्ट ऑफिस निकल जाते हैं। कोई और दिन होता तो पछतावे में डूबकर मैं भी अपनी माँ की तरह कोने में बैठ घुलने लगती। ज्यादा करती तो रोने का लंबा अभियान छेड़ दिन का कबाड़ा कर लेती। जैसा कि मुझे याद है, माँ के साथ हुए पिता के महान युद्धों में से एक वह झगड़ा भी था, जो कभी भूलता ही नहीं।

 

जब मैंने प्लस टू के बाद कॉलेज जाने के लिए माँ से कहा ही नहीं बल्कि जिद की थी कि मुझे घर में बैठकर प्राइवेट पढ़ाई नहीं करनी, मैं कॉलेज जाना चाहती हूँ। मेरी बातों से माँ सहमत थीं मगर जीवन के ऊपरी दवाबों की मारीं वे देर तक समझाती रहीं कि लड़कियों के लिए कॉलेज जाने के फायदे कम खतरे ज्यादा होते हैं लेकिन बिना उज्र किए मैंने उनके सारे वचन मंडप में बैठी उस अबोध कन्या की तरह अनसुने कर दिए। जो बेचारी नींद के चक्रब्यूह में फँसकर अंजाने ही अपने दाम्पत्य जीवन के अहम् निर्णयों को सुने बगैर स्वीकार कर लेती है और अन्न-जल त्यागकर कमरे में बंद हो गयी। दो दिन माँ खिड़की की दरारों से झाँकते हुए मुझे खाना खाने के लिए मनाती रहीं पर जब मैंने सुनने के लिए भी इंकार कर दिया तब माँ को पिता के पास जाना ही पड़ा। 

 

आभास मुझे भी था मगर इतना नहीं कि माँ के मुँह से आरम्भ हुईं कुछ पंक्तियाँ सुनते ही घर में अंगारे बरस पड़ेंगे। मेरे साथ-साथ माँ को भी भर-भर मुँह कोसा जाने लगेगा। पितृसत्तात्मक चाशनी में सने पिता अपने भाई-भतीजों के साथ मोर्चा सम्हालते हुए माँ पर बरस पड़ेंगे और बसंत सी खिली माँ देखते-देखते पतझड़ में तब्दील हो जाएगी। फिर भी बेटी-मोह में माँ अपने भीतर बची नमी लिए मेरी ओर से बात कहती जा रही थीं। जब बहुत भला-बुरा सुनने के बाद भी माँ शांत नहीं हुई तो पिता ने उन्हें पाँव से ठेलते हुए कहा,"हमारे घर की चीटियों को पर कब से निकल आए? अगर निकल भी आए हैं तो ये भी जान लो पंख निकलने के बाद चीटियों का अंत नजदीक होता है।" ज़मीन में लुढ़की पड़ी माँ अपनी छिली व नील पड़ी कोहनी को देर तक सहलाती रहीं। उसके बावजूद घर में महीनों मातमी सन्नाटा पसरा रहने के बाद भी मेरा कॉलेज जाना न हो सका।

 

अरे! मैं ये क्या लेकर बैठ गई? माना कि तब समय के उस धुंधले शीशे में अपना पूर्ण प्रतिबिंब न देख सकी तो क्या! लेकिन अब और नहीं सह सकती। स्त्रियाँ कोई नमक की गुड़िया तो नहीं, जो पानी में पाँव रखते ही घुल जाएँगी या आसमान से बूँद पड़ते ही गलकर अपना अस्तित्व खो बैठेंगी। स्त्रियाँ केचुआ भी नहीं होती जो रीढ़ सीधी कर चल न सकें। सोचते हुए मदन की नारज़गी को पूरी जिंदादिली से परे धकेल अपने परेशान दिन को प्यार से फुसलाकर लाइब्रेरी लेकर पहुँच जाती हूँ। इस तरह मेरा दुखी-सा दूसरा दिन कब तीसरा बनता है, फिर चौथा-पाँचवाँ बनता है और उसके बाद मुझे याद नहीं कि मैंने कभी लाइब्रेरी जाने में आलस्य दिखाया हो और अब देखिए आठ महीने पूरे हो चुके हैं। लड़ते-झगड़ते मदन भी मेरे निर्णय के प्रति लगभग आदी हो चले हैं।

 

आज लाइब्रेरी में घुसते हुए मैं देखती हूँ जहाँ मैं रोज़ बैठती आ रही थी, वहाँ एक स्त्री अपनी बिटिया के साथ पहले से डटी बैठी होती है। मैं लाइब्रेरियन से पूछती हूँ,"आप भूल गईं क्या? ये कमला बहन हैं। इन्होंने अपनी बेटी को हिंदी व्याकरण पढ़ाने के लिए आप से फोन पर बात की थी और मिलने भी आई थीं। आज फिर से मिलने आई हैं।

"ओह! मैं कैसे भूल सकती हूँ?" 

कमला जी किसी काम से लाइब्रेरी आई थीं। बहुत देर तक दूर से मुझे देखती रहीं फिर पास आकर बैठ गयीं और बातों ही बातों में वे मुझसे मुखातिब हो कर बोली थीं।

"आपकी हिंदी बहुत अच्छी है, है न!"

“अरे! आपने कैसे जाना?” मैंने चौंक कर पूछा था

कुछ तो आपको देख कर लग रहा है और कुछ ये जो ग्रंथपाल जी हैंये मेरे पड़ोस के मुँह बोले देवर लगते हैं। इन्होंने कई बार बताया कि आप बहुत मन से किताबें पढ़ती हैं। आँधी-पानी में भी आप पुस्तकालय आना बंद नहीं करतीं और जो इतना अच्छा पढ़ सकता है तो वह पढ़ा भी जरूर सकता है। आप ज़रूर मेरी बेटी को हिंदी पढ़ा सकती हैं।कमला जी की स्नेह भरी दृष्टि और मेरे प्रति उनका भरोसा मुझे भीतर तक गुदगुदा गया था। मेरा बूढ़ा मन जवान हो उठा था। 

"अरे ऐसा कुछ नहीं..." मैंने संकोच से अपना अकिंचन व्यक्त किया। पता नहीं क्या सोचकर उन्होंने अपनी बिटिया को हिंदी पढ़ाने के लिए मुझसे कहा था? और मैंने सहज स्वीकार भी कर लिया था। लाइब्रेरियन के बताने पर मुझे सब याद आ जाता है।

"नमस्कार! कहिए क्या हाल है?" कमला के पास बैठते हुए मैं कहती हूँ।

"अच्छी हूँ मैडम! मैं चाहती हूँ कि अभी से मेरी बिटिया को आप हिंदी पढ़ाने लगें!बिना किसी किन्तु-परंतु के कमला बोल पड़ती है।

"पर मुझे याद हैआप ने अप्रैल से शुरू करने के लिए कहा था।"

"तब ऐसा ही लगा था क्योंकि इसके पापा हिंदी देख लेते थे।"

कौन से स्कूल में पढ़ती है?" 

"देवीना पब्लिक स्कूल!"

"नाम तो बहुत सुना हैइस स्कूल का।"

 

चित्र : अनुप्रिया 

"हाँ जी,आप ठीक कहती हैं मैडम! लेकिन वहाँ हिंदी को अंग्रेजी में पढ़ाया जाता है जो मुझे हानिकारक ही नहीं बहुत खतरनाक भी लगता है। शारीरिक गुलामी से मानसिक गुलामी आदमी को ज्यादा पेरती है। खैर उसे छोड़ो,आप अपनी तरह से इसे हिंदी पढ़ा दीजिये ताकि  भाषा के साथ-साथ मेरी बेटी की छाया भी सुधर सके और मुझे कुछ नहीं चाहिए।" अपनी बेटी की ओर कमला स्नेह से देखती है। 

"नाम क्या है बिटिया का?" मैं पूछती हूँ।

"ख्याति!" कमला कहती है।

"बहुत प्यारा नाम है। बिल्कुल साहित्यिक।

 

मैं एक बात और कहना चाहती हूँ।कमला ज़रूरी-सा चेहरा बनाकर कहती है।

जी निसंकोच कहिए।कलाई पर बंधी घड़ी मैं भी देखती हूँ। 

वैसे तो मैंने सोचा था कि मैं ख्याति को लेकर आपके घर आ जाया करूँगी पर अब असमर्थ हूँ।

ऐसा क्या हुआ ?”

मैडम,ख्याति के पापा हार्टअटैक में दुनिया से चले गये। जाने वाला तो लौटेगा नहीं मगर मेरी बिटिया की पढ़ाई बरबाद हो जाएगी। क्या आप मेरे घर आकर ख्याति को पढ़ा दिया करेंगी…? मेरे पास एक पोलियो ग्रस्त बच्चा भी है। इसका छोटा भाई। मैं चाहकर भी हालातों से सामंजस्य नहीं बिठा पा रही हूँ।कमला की आँखें भींग आती हैं।

“..........”

मैडम!

मेरे अचानक मौन पर कमला मुझे टोकती है। "कमला जी, आपके पति के लिए मुझे अफ़सोस है लेकिन आप मुझे थोड़ा समय दीजिए। रात तक मैं आपको फोन से जरूर बता दूँगी।मैं कमला से कह तो देती हूँ लेकिन मदन का तमतमाया चेहरा मेरे जेहन में घूम जाता है। वहीं कमला खुश दिखती है। उसकी खुशी और अपनी खुशी के मायने पता नहीं क्यों! मुझे एक जैसे लगते हैं। कमला के जाने के बाद बहुत कोशिश की मगर मेरा मन किताबों में लगता नहीं है। मेरे प्रति कमला की विश्वास भरी बातें बार-बार मेरे कानों में बजने लगातीं। आखिरकार मैं घर लौट आती हूँ। 

 

बहुत समय के बाद घर की दोपहर मुझे भली-सी लगती है। अंदर न जाकर मैं सोफे पर बैठ जाती हूँ और सेंटर टेबल पर सिमोन की बुकदि सेकेंड सेक्सजो पिछले हफ़्ते इश्यू करवाकर लाकर रखी थी, उलटने-पलटने लगती हूँ। धीरे-धीरे दोपहर कब तिपहर में बदलती है और कब आसमान से अँधेरा झरने लगता है, मुझे पता नहीं चलता है। मदन के आने का आभास लिए दरवाज़ा खोलकर कान उनकी बाइक पर टिका देती हूँ। अपने समय से मदन घर पहुँच जाते हैं। उनके अंदर घुसते ही मैं अपनी बात बिना किसी लाग लपेट तुरंत कह देती हूँ। उसके बाद चाय बनाकर लाती हूँ। मदन की आँखों से मेरे कहे के प्रति क्रोध मिश्रित मौन अवहेलना झरती हुई मुझे साफ़ दिखती है मगर उनके शब्द बर्फ बनकर जमे रहते हैं। जब बहुत देर तक पति कुछ नहीं बोलते हैं तो फिर से मैं उन्हें कुरेदती हूँ।

 

“...बोलिए न! कमला की बेटी को ट्यूशन पढ़ाने, क्या मैं उसके घर जा सकती हूँ? बहुत परेशान है वह इन दिनों। मेरे फोन का इन्तजार कर रही होगी?”

“.........”

तो मतलब आप नहीं ही बोलेंगे? ओके! ठीक है। लेकिन आगे से ये कभी ये मत कहना कि आप अहिंसा के समर्थक हैं। पुजारी हैं। किसी ने ठीक कहा है, बेवक्त की चुप्पियाँ हिंसा से कम नहीं होतीं मगर तुम्हारी इस चुप्पी को मैं हिंसा में नहीं 'मौनं स्वीकृति: लक्षणम्!' के तहत मान रही हूँ।ये बात मैं लगभग बेकाबू होते हुए झल्ला कर बोलती हूँ इसलिए मेरे गले में खरास उठ जाती है।

चित्र: अनुप्रिया 

मेरे इस तरह क्रोधित होने पर भी मदन अपनी चुप्पी नहीं तोड़ते हैं। बल्कि मेरे बिफरने के बाद तो उनके चेहरे पर अहम-भरा संतोष झलकने लगता है जो मुझे हिला कर रख देता है। वैसे तो पति की इस जैसी हज़ार चुप्पियों पर अपना स्वाभिमान-आत्मविश्वास मैं सूखे पत्तों की तरह लुटाती आ रही थी लेकिन अब और नहीं। एक अबूझी शक्ति मेरे मन को शांति से भरने लगती है।

 

मैं एक संकल्प के साथ मोबाइल उठाना चाहती हूँ कि कमला को बता दूँ पर दासता करने में निपुण मेरे हाथ आगे नहीं बढ़ते हैं। मैं चुपचाप टेबल पर डिनर लगा देती हूँ और फ़रमावरदार औरतों की तरह पति के प्रतिउत्तर की प्रतीक्षा करना उचित समझती हूँ। लेकिन चुपचाप खाना खा मुझे नजरंदाज कर मदन जब बिना बोले कमरे में जाकर चैन ओढ़ अपनी करवट सो जाते हैं तो मैं भी गहरे तुर्श के साथ कमला का नम्बर घुमा कर उसे बता देती हूँ कि मैं लाइब्रेरी से लौटते हुए उसकी बच्ची को ज़रूर पढ़ा दिया करुँगी। कहने के बाद आकर बिस्तर पर लेटना चाहा मगर मुझे अच्छा नहीं लगता है। मन में उठती गहरी उत्तेजक यथार्थपरक व्याकुलता और ठहरे जीवन की तरल व चलायमान नवीनता उत्सुक कर मुझे बेचैन बनाने लगती है तो दबे पाँव उठकर मैं बैठकी में चली आती हूँ। रोशनी के उपकरण प्रज्वलित कर सबसे पहले तेजस की व्याकरण की पुरानी किताब खोजती हूँ फिर ख्याति को पढ़ाने के लिए नोटस बनाने लगती हूँ। कार्यों की अनिवार्यता और स्वाभिमान की अर्हता कभी-कभी समय को भुला देती है। वह तो रात ढलने का संकेत मेरी थकी कमर और आँखें जब देने लगती हैं तो खिड़की का पर्दा हटा कर मैं बाहर देखती हूँ। अँधेरे फुटपाथ पर टिमटिमाते लैंप पोस्टों के मध्य, भोर अपना घूँघट खोलने को आतुर दिखती है। 

अँधेरे में अगर लैंप पोस्टों की भूमिका स्थगित नहीं की जा सकती है तो इनके जलने से रात की उपस्थिति भी नगण्य नहीं होती।बुदबुदाते हुए झटपट मैं किचन का मोर्चा सम्हाल लेती हूँ। और सही समय आने पर ताले की दूसरी चाबी मदन को थमा, ख्याति को ध्यान में लेकर मैं निश्चिंत लाइब्रेरी के लिए निकल पड़ती हूँ। 

***

20 23 कथा समवेत के जनवरी-मार्च अंक में प्रकाशित 



Comments

  1. स्त्री के आत्म गौरव को रेखांकित करती सशक्त कहानी

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    1. अनीता जी बहुत धन्यवाद! कहानी आपको पसंद आई , मेरा लिखना सार्थक हुआ।

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  2. हर प्रकार के दवाबों के विपरीत अपने फैसले खुद लेने की हिम्मत स्त्री को अर्जित करनी ही पड़ेगी l सशक्त स्त्री की प्रेरणादायक कहानी

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    1. वंदना बाजपेयी जी, आपने कहानी पढ़कर जो अमूल्य प्रतिक्रिया दी है, उसके लिए हृदय से आभार!

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  3. स्त्री की हिम्मत से जुड़ी बढ़िया कहानी। खूब बधाई

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    1. प्रगति गुप्ता जी, आपका बहुत आभार!

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