भानपुरा की लाडली बेटी
पतझड़ आने पर बाग़ दुःख नहीं मनाता क्योंकि उसे मालूम होता है कि सारे मौसमों में एक पतझड़ ही तो है जो बसंत को अपने दुपट्टे में बाँधकर लिए चला आता है। लेकिन जब किसी कुटुंब-तरु पर बेवक्त पतझड़ किसी पत्ते को झपटता है तो उस डाल का दुःख सम्हाले नहीं सम्हलता पर इसके परे समय अपनी धुन में निरंतर चलते हुए अपनी अमिट छाप संसार की किसी भी नाज़ुक या कठोर डाल पर छोड़ता चलता है। इसी को शायद नियति कहते हैं।
समय जिस रास्ते को एक बार तय कर लेता है, उसे मुड़कर नहीं देखता और न ही किसी स्फटिक शिला पर बैठकर प्रतीक्षा करता है, कोई प्रबुद्ध-समृद्ध आकर उसकी आरती उतारे और पाँव के निशान लेकर धरोहर के रूप में अपने पास सुरक्षित कर ले। काल जीवन को सम्हलने का मौका दिए बगैर अपने पीछे दौड़ाने में सुख मानता है। इसके बावजूद भी दुनिया में घटित-अघटित सब कुछ लिखा जाता है। जब शब्द, स्याही और कलम नहीं बने थे तब प्रकृति अपनी तरह का इतिहास लिखती थी क्योंकि हमारी मानवीय चेतना और सोच के ऊपर कोई है, जिसके इशारे पर हवा चलती है और सूरज दहकता है। उसके यहाँ जितना हाथी का मोल है, उतना ही चींटी का। उसे जितनी बरगद की आवश्यकता है उतनी ही छुईमुई की ज़रूरत होती है। वह अपनी तरह से प्रकृति के साथ तालमेल बैठाकर कर विहार करता है।
कहने का मतलब जो कुछ भी पृथ्वी पर
लयबद्ध क्रियात्मकता के साथ घट रहा होता है, उसे लिपिबद्ध करने का काम कोई अदृश्य करता चलता
है। आखिर वह छिपा हुआ लिपिक है कौन? एक सवाल ज़हन में
उठता है। जैसा कि सब जानते हैं, सवाल, अपनी पूँछ में उत्तर बाँधकर अवतरित होता है। उत्तर मिला। संसार का लिपिक कोई और नहीं काल स्वयं है। वही उसके निहोरा घूमता है, या हो सकता है कि संसार स्वयं अपने लिपिक के प्रति निहोरा है! कौन जाने?
लेकिन एक बात पक्के तौर पर कही जा सकती है कि कला और काल को यदि कोई
मात देकर बाँध लेता है तो वह और कोई नहीं, जाग्रत चेतना
का प्रबुद्ध लेखक होता है।
एक चैतन्य लेखक अपनी तीक्ष्ण बुद्धि
और गीली संवेदना से लबालब हृदय की कलम से बाह्य और अंतर जगत को करीने से कागज़ पर
लिख डालता है। लेखक की कलम में आकाश-पाताल, सागर-गागर, नदियाँ-कुँए, सूरज-चाँद-सितारे, और समस्त
प्रकृति एक समय में छिपकर रहते हैं। साथ में लेखक की मौलिक तार्किकता के साथ समाज
को समझने की समझ और सही बात कहने की उसकी छटपटाती निर्मोही दृढ़ता।
ऐसा कई बार सुना जाता है कि जितना दुःख ताया लेखक होगा, उतना ही उसकी गंभीर कलम होगी। कुछ अपना और कुछ दुनियावी दुःख उसे चैन से बैठने नहीं देता है। दर्द की दहकती ज्वालायुक्त तड़पन की दम पर सच्चा लेखक सात कोने के भीतर हुईं घटनाओं-दुर्घटनाओं को निर्ममता से घसीटते हुए समाज के सम्मुख रख देता है और उसके लिखे में पाठक अपने दुखों की निवृति या खुलासा पाकर भीग भीग जाता है। इसलिए शायद सुख नहीं, दुःख हमें एक दूसरे के साथ जोड़ देता है। दुःख के दिनों में साथ निभाने वाला साथी सुख के साथी से ज्यादा अपना और भरोसेमंद लगने लगता है।
खैर, मैं जिस की बात कहने जा रही हूँ, वे बेहद निर्भीक, जुनूनी, भाषा सम्पन्न और तटस्थ स्वभाव की लेखिका थीं। वैसे तो वे किसी परिचय की मोहताज नहीं लेकिन फिर भी मैं बड़े सम्मान और अपनेपन के साथ आपको बताना चाहूं तो उनका नाम ‘मन्नू भंडारी’ है। अभी हाल ही में भारतीय विशाल साहित्य सरोवर के मोहक तट से उनका जीवन तम्बू साहित्यिक सरोकारों सहित उखड़ चुका है। लेकिन हमें अब भी पूरा विश्वास है कि वे कहीं गयीं नहीं हैं। वे अपनी लिखित कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से हमारे बीच सदा सदा मुखरित होते हुए पाई जाती रहेंगी क्योंकि मुझ जैसा एक नहीं, उनके अनेक और अनन्य पाठक हैं, वे उन्हें आदर के साथ अपने हृदय में स्थान देते रहेंगे। लेखिका अपने पाठकों की दृष्टि से फलता फूलता रचना संसार देखकर अपना होना सुनिश्चित और स्थाई बनाकर हमारे साथ चलती रहेंगी।
इस क्षणभंगुर संसार में लेखिका के बारे में लंबे समय से अक्सर सुनती आ रहती थी कि मन्नू जी बहुत बीमार रहने लगी
हैं लेकिन एक दिन उनका वास स्वर्ग बन जाएगा, अंदाजा तो था पर इतने जल्दी ऐसा हो
जाएगा, नहीं पता था। इस घटना को मैं जल्दी इसलिए कह रही हूं क्योंकि मन्नू जी से मेरी पहचाना अभी नई नई बनती जा रही थी जो अभी छोटी थी। विस्तृत होकर उसमें अपनेपन का तनाव आना अभी बाकी था पर सब कुछ सबको मिलता नहीं। बावजूद इसके जिसने भी उनके गोलोक धाम जाने की खबर
सुनी उसकी आँखें लेखिका के प्रति नम हुए बिना न बच सकी।
लेखिका के प्रति भावुक होने के लगभग सभी के पास दो कारण हैं। एक तो उनका भावनात्मक समृद्ध-सुदृढ़ और वृहद रचना संसार है, जिसमें मानव-पीड़ा की दहकती कहानियाँ भरी पड़ी हैं। दूसरे विशालकाय एकाकीपन की जंगम नीरवता का उनके कोमल स्त्री मन पर लगा दंश था। वे जितनी बड़ी और महान लेखिका थीं, उतनी ही बड़ी मानवीय पीड़ा की भोग्या भी रहीं। लेखकीय जीवन के विस्तार के बाद उनके हिस्से आया उनका अपना अवसादीय जीवन का आकाश घट-घट कर भी कभी घट न सका। अन्ततोगत्वा उनको इस निस्सार संसार को अपनी इकलौती बेटी रचना के हवाले छोड़कर जाना ही पड़ा। हालाँकि सुनने में ये भी आया कि मन्नू जी ‘मरने’ के नाम पर चिढ़ कर कहा करती थीं,“जाने कैसे लोग अपने मरने के लिए भगवान को गुहारते रहते हैं? मेरे पास मौत के लिए वक्त नहीं है।" लोग पूछते क्यों? तो वे उसका कारण भी बताती थीं। वे कहा करती थीं कि अभी उनके पास लिखने के लिए बहुत कुछ बाकी है।" इतनी प्यारी और साहित्य के प्रति समर्पित लेखिका को भी काल ने अपने गाल में समा लिया। ईश्वर उनकी आत्मा को चिर शांति प्रदान करें। हां, इतना ज़रूर प्रार्थना करूँगी कि अगले जन्म उन्हें अपनों का बेहद स्नेहिल संग मिले। वे अपनों के द्वारा खूब दुलारी और सराही जाएं।
वैसे आपको अगर अपने और लेखिका के परिचय की बात बताऊं तो भारत की महान लेखिका मन्नू भंडारी से मेरा परिचय “एक कहानी ये भी” के ज़रिए हुआ था। हुआ ये था जब मैंने विद्यालय में पढ़ान शुरू किया तो कक्षा दसवीं की कोर्स-बुक में उनकी आत्मकथा "एक कहानी ये भी" का संपादित अंश पाठ के रूप में संकलित पाया था। उसे जब विद्यार्थियों को पढ़ाना शुरू किया तो स्त्री के उपेक्षित और अपेक्षित जीवन को अपने आस-पास छितराया हुआ पाया। उपेक्षा की वजह जब समझ आई तो हां हजूरी वाली अपनी जीवनशैली में थोड़ा व्यवधान उत्पन्न हुआ सा लगने लगा क्योंकि उस अंश में उनके स्त्री जीवन और मन की नरम-गरम छवियों के अंकन मुझे अति मोहने लगे थे।
उसी पाठ में एक वाक्य था–"घर स्त्री का नहीं होता, लेकिन स्त्री घर की होती है।" पढ़ते और पढ़ाते हुए मेरी चेतना चकरा गई। कहां तो मेरी माँ घर और घर का एक छोटा सा कोना रसोई को अपना निज स्थान मान कर गौरवान्वित होती रहती थीं और मुझे भी अपने चौके को राम-रसुइयाँ कहकर उसमें रहने के गुर सिखाया करती थीं और कहां उस स्थान का नाम "भटयारखाना" के रूप में जानना समझना मेरी निजता में स्वमान की सेंध जैसी लगी। मन्नू जी के पिताजी रसोई को “भटयारखाना” कह कर संबोधित करते हुए अपनी बेटी यानी कि मन्नू भंडारी को उससे दूरी बनाये रखने के लिए हिदायत देते हुए पुस्तकों से सगापा बनाने को प्रेरित करते। इस प्रकार उस शब्द को पढ़ते-पढ़ाते मैंने रामरसुइया का समानार्थी शब्द भटयारखाना तभी जाना था। जो एक गहरे झटके के साथ आत्मस्वाभिमान पहचाने की सुध में प्रतिपादित हुआ था।
इस बिना पर मैंने जाना था कि बड़े-बड़े महलों में स्त्रियों के प्रति दमनकारी छोटे-छोटे हिस्सों में उन्हें बांधने की गहरी साज़िश पितृसत्ता ने रची थी। और इस प्रकार मन्नू जी को पढ़ते हुए स्त्री जीवन की कठिनाइयों की अलग रूप में शिनाख्त हुई थी। उनकी कलम की तासीर को महसूस कर मेरा अति भावुक मन लेखिका से मिलने को ललक उठा था। आगे जब-जब मैंने वह पाठ छात्रों को पढ़ाया मन्नूजी एक अलग रूप में मेरे समक्ष रूपायित होती चली गयीं। साल-दर-साल निकलते गये, फिर एक दिन राजीव (पति) जो वायुसेना में कार्यरत हैं, का ट्रांसफर दिल्ली हो गया। तब तो मुझे ये लगने लगा कि अब अपनी प्रिय लेखिका से रू-ब-रू होने से मुझे कोई रोक नहीं सकेगा। उनसे मिलने की चाहत समेटे मैं विश्वपुस्तक मेला जाती रही लेकिन उन्हें छोड़कर बहुत से रचनाकारों से मिलना होता रहा पर मन्नू जी से न मिल सकी।उसके बाद लेखिका के आवास पर जाकर उनसे भेंट करने की योजनायें बनती-बिगड़ती रहतीं। उसका कारण था, उनकी तबियत खराब की बातें अक्सर मित्रों के द्वारा मुझ तक पहुँचते रहना इसलिए घर जाकर उन्हें तकलीफ़ में न डाल दूँ का भाव मुझे पीछे खींचता रहा। मैं उनसे मिलने के लिए उनके अच्छे होने की कामना करती रही और अब वे हम से बहुत दूर जा बसी हैं।
वैसे तो जो बात
मैं लिखने जा रही हूँ, किसी के लिए नई नहीं है; फिर भी
आपको बता दूँ कि हिंदी की प्रसिद्ध कहानीकार और उपन्यासकार मन्नू भंडारी का जन्म 3
अप्रैल 1931 को मध्य प्रदेश में मंदसौर ज़िले
के भानुपुरा गाँव में हुआ था। उनका बाल्यकाल को भानुपुरा की मिट्टी ने ही सिरजा
था। आज जब लेखिका हमारे बीच नहीं हैं तो हम सबके साथ-साथ उनकी जन्मभूमि भी कितनी
उदास हुई होगी? कौन जान सकता है; उस
मिट्टी के दुःख को जो लेखिका के कोमल तलवों को कभी गुदगुदाती रही थी। उस स्थान
के दुःख का ठिकाना नहीं होगा जिसने अपनी लाड़ली बेटी को खोया है। दिल्ली की शहरी
हवा ने दौड़कर जब मंदसौर भानुपुरा की हवा को उसकी बेटी मन्नू के जाने की चिट्ठी
सुनाई होगी तो सारे वायुमंडल में कैसा तो शोक व्याप्त गया होगा। कभी वहाँ की आबोहवा
को अपने होने की गमक से मन्नू जी ने ही महकाया था। वह स्थान भी महान होता है,
जिस पर महान आत्माएँ जन्म लेती हैं।
ऐसा सुना जाता है
कि मन्नू जी के बचपन का नाम ‘महेंद्र कुमारी’ था। उनके पिता का नाम सुख संपत राय था। सुख संपत राय उस दौर के विचारवान
जाग्रत व्यक्ति थे। भारत में जब स्त्रियों को सात कोठे के भीतर उनकी खाल सड़ने के
लिए बंद रखा जाता था। सीधे मुँह स्त्रियों से कोई बात नहीं करना चाहता था। उस समय
के जाने-माने लेखक और समाज सुधारक संपत राय ने स्त्री शिक्षा पर बल देते हुए
लड़कियों को ये चेताया कि उनकी जगह सिर्फ रसोई ही नहीं विद्यालय भी है। उनकी
दृष्टि में लडकियाँ सिर्फ वंश-बेल अर्थात पिता को पुत्र पैदा कर सौंपने का माध्यम
न होकर शिक्षा की अधिकारिणी भी हैं, बताया। ये बातें
सुनते-समझते हुए तो यही लगता है कि मन्नू जी के दबंग और प्रखर व्यक्तित्व निर्माण
में उनके पिता का भरपूर योगदान रहा होगा। अपनी बेटी के जीवन को सींचने के लिए
उन्होंने वैचारिक जल का भरपूर प्रयोग किया होगा। पिता द्वारा मिली अखंड दृढ़ता ही
थी जो उनके हर संघर्ष में उन्हें उबारती रही होगी। अन्यथा वैवाहिक जीवन के क्लेश
में स्त्रियाँ टूटकर बिखर जाती हैं। मन्नू जी की माता का नाम अनूप कुँवरी था। जो
धीर-गम्भीर स्त्रीगत कोमल स्वभाव की धनी महिला थीं। उदारता, स्नेहिलता,
सहनशीलता और धार्मिकता जैसे गुण जो लेखिका के अंतर्मन को हमेशा
सहेजते रहे, उन्हें अपनी माँ से ही मिले होंगे। इस सब के
अलावा मन्नू जी के परिवार में उनके चार बहन-भाई थे। बचपन से ही उन्हें, प्यार से ‘मन्नू’ पुकारा जाता
था इसलिए उन्होंने अपनी लेखनी के लिए जो नाम चुना वह ‘मन्नू’
था। पुस्तकें ऐसा बताती हैं कि मन्नू भंडारी ने अजमेर के ‘सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल’ से शिक्षा प्राप्त की और
कोलकाता से बी.ए. की डिग्री हासिल की थी। उन्होंने एम.ए.तक शिक्षा ग्रहण की और
वर्षों-वर्ष तक अध्यापनरत रहते हुए कितनी ही महिलाओं को अपनी भूमिका में सशक्त
रहने की प्रेरणा दी। तमाम तरह के पूर्वाग्रहों,विचारधाराओं
और बौद्धिकता के अतिरेक से सर्वथा मुक्त रहते हुए एक स्वच्छंद राह की अन्वेषी
मन्नू भंडारी अपने एक साक्षात्कार में कहती हैं,” मैं नहीं
जानती कि मेरे लेखन पर मार्क्सवाद का प्रभाव है या किसी विचारधारा का किंतु ये
ज़रूर पता है कि मैंने जिंदगी को अपनी नंगी आँखों से पोर-पोर देखा और जैसा
देखा-महसूस किया बस उसी को अपनी कहानियों में अभिव्यक्ति दे दी है।” उनके इस कथन के साक्ष्य में उनके रचना संसार में मील के पत्थर के रूप में
तमाम कृतियाँ मौजूद हैं। जैसे- महाभोज,आपका बंटी,यही सच है,मैं हार गई, स्वामी,
त्रिशंकु आदि इत्यादि।
मैं उस दौर को
याद करती हूँ, जब अपने देश में अंग्रेजी हुकूमत ने सिर्फ शारीरिक
रूप से ही नहीं बल्कि आत्मिक और वैचारिक रूप से भी मनुष्य को तोड़ा था। उस भयानक
समय के माथे पर तमाम खून बहने के किस्से दर्ज हैं। उसके बाद भले भारत स्वतंत्र हो
चुका था लेकिन रूढ़ीवादी कोख में दबे, सहमें, जकड़े मन की आंतरिक जकड़न बची रह गयी थी। सघन और लम्बे दासत्व के बाद पुरुष
वर्ग फिर भी आज़ादी का सुख मना रहा था। लेकिन स्त्री-दुर्दशा के झंडे और ऊँचे होकर
फ़हरने लगे थे। मौन सिसकियाँ रात-रात भर तकिया भिगोती रहीं लेकिन सुनने वाला कोई
नहीं था। जाति-धर्म और लैंगिक असमानता के चंगुल में फँसकर शारीरिक रूप से स्वतंत्र
समाज फिर से कराहने लगा था। वैसे भी कहा जाता है, शारीरिक
गुलामी से ज्यादा मानसिक दासता किसी भी कौम को ले डूबती है। त्रासद मानसिक दैन्यता
से उबरने का साधन यदि कुछ है तो वह साहित्य है। हम साहित्य पढ़कर और लिखकर अपने
दुःख से मुक्त होने की कामना कर सकते हैं। उस दौर में स्त्रियों के अबोले दुःख को
अगर किसी ने तरज़ीह दी तो वे थे क्रांतिकारी लेखक। जिन्होंने बिना समाज की परवाह किये
अपनी-अपनी कलमें उठाई और अंधी-दमघोंटू कुरीतियों को अपने लेखन का विषय बनाकर लिखना
शुरू किया। उस समय के क्रांतिकारी लेखकों की सूची में
एक स्त्री-नाम ज़ोरशोर से उभर कर सामने आया था- वह नाम था ‘मन्नू
भंडारी’ का। तमाम स्त्रियों की पीड़ा को उन्होंने लिखकर शांत
किया। वही नाम बाद में हिंदी जगत का एक लेखकीय चमकीला चेहरा बन गया।
लेखिका ने
लैंगिक असमानता, वर्गीय असमानता, पितृसत्ता और
आर्थिक असमानता की मार को सहते मानवों को अपनी कहानियों के किरदार बनाकर खूब ढंग
से उनके दुःख को उजागर किया। सही तो कहा किसी ने कि अँधेरा तभी तक ताकतवर रहता है
जब तक दीपक शांत रहता है। जैसे ही अँधेरा प्रकाश के सम्मुख आता है, उसे खत्म होना ही पड़ता है।
सामाजिक सड़ी-गली
कुरीतियों पर उनके लेखन ने खूब कुठाराघात किया। स्त्री मन को समृद्ध बनाने के लिए
मन्नू भंडारी ने एक नहीं, कई एक बेहतरीन कहानी कृतियाँ और उपन्यास दिए। मन्नू
भंडारी ने एक कहानी लिखी थी 'यही सच है' उस पर साल 1974 में बासु चैटर्जी ने 'रजनीगंधा' नाम से एक फिल्म बनाई थी। मन्नू भंडारी की
सबसे प्रसिद्ध और अमर कृति 'आपका बंटी' को माना जाता है। आपने अपने लेखन में विषय के रूप में पिछड़े वर्ग की पीड़ा
और स्त्रियों की कुंठाओं को चुना और खूब दिल से कागज़ पर उकेरा।
जिसने उनको तनिक
भी जाना उसको, उनकी हिम्मत-साहस का एहसास हुए बिना नहीं रहा। मन्नू
भंडारी की विशेष मित्र प्रसिद्ध कथाकार आदरणीया सुधा अरोड़ा जी अपनी फेसबुक वाल पर
लिखती हैं,“अपने बहुत विनम्र लहज़े के साथ-साथ, बहुत हिम्मती, बहुत स्वाभिमानी, बहुत बहादुर और बेहद जांबाज़ थीं आप, पर कभी-कभी,
नहीं, अक्सर ही आपकी भी हिम्मत जवाब दे जाती
थी। अपनी इस हार को सबसे छिपाने की कश्मकश में सारा असर आपकी नसों पर आ जाता था जो
इस क़दर टीसती थीं कि देखने वाला भी घबरा जाए। अपने जीवट को बचाए रखने की कोशिश
में देह और मन के बीच जो रस्साकशी चलती थी, वह आपके बहुत
करीबी लोगों ने ही देखी। बाहर के लोगों ने तो न आपके मन के भीतर झाँकने की कोशिश
की, न आपको कोई रियायत दी बल्कि आपने भी लांछन और तोहमतें ही
झेलीं। आखिर क्यों वही आपको दिखाई देती थीं और छीलती थीं ? नहीं
दिखता था आपको अपने पाठकों का ऐसा बेइंतहा प्यार -- जो बार-बार मुझे आपके ही
पुराने खतों का ज़खीरा खोल-खोल कर पढ़ कर आपको सुनाना पड़ता था। सन 2009 में जब कथा देश के लिए हरि नारायण जी के साथ यह निर्णय लिया था कि एक अंक
आप पर केंद्रित करना है तो आपने कहा था- जब लेखक लिखना बंद कर दे तो उसे जीना भी
बंद कर देना चाहिए। बार-बार आपको मुझे याद दिलाना पड़ता था कि कोई बात नहीं,
जितना लिख लिया, वह अनूठा है, नायाब है। रचना की गुणवत्ता देखें, तौल के हिसाब से
तो बहुत लोग लिखते हैं, वैसे लेखन का होना,न होना बराबर है।”
सही तो कह रही
हैं सुधा अरोड़ा जी कि ये कतई जरूरी नहीं कि लेखक कितना लिखता है? बल्कि वह कैसा लिखता है, वह जानना-समझना नितांत
आवश्यक होता है। इस बात के हवाले से कहा जाए तो मन्नू जी ने बेहद संवेदनात्मक
तथ्यपूर्ण और दबंग लेखन किया है। उनके बारे में लिखते हुए मुझे गौरव का अनुभव हो
रहा है कि एक स्त्री कैसे अपने भीतर पौरुषी साहस समेटे जीवन की ऊबड़-खाबड़ रास्तों
को समतल करते हुए यात्रा करती रही। वे मेरी ही नहीं अनेकों की प्रेरणास्रोत रही
होंगी। मन्नू भंडारी मिरांडा कॉलेज में बतौर हिंदी की प्राध्यापिका के पद पर लम्बे
समय तक बनी रहीं और उन्होंने साल 1991 तक प्राध्यापिका का
कार्यभार संभाला। सेवानिवृत होने के बाद वह दो साल तक उज्जैन में प्रेमचंद सृजनपीठ
की निदेशिका (1992-1994) के पद पर कार्यरत रही थी। उन्होंने
अपने लेखन कार्यकाल में कहानियाँ और उपन्यास दोनों लिखे हैं। ‘मैं हार गई’ (1957), ‘एक प्लेट सैलाब’
(1962), ‘यही सच है’ (1966), ‘त्रिशंकु’,
‘तीन निगाहों की एक तस्वीर’ और ‘आँखों देखा झूठ’ उनके द्वारा लिखे गए कुछ महत्त्वपूर्ण
कहानी संग्रह है। जहाँ ‘आपका बंटी’ पढ़कर
कितने ही माता-पिता को बच्चों के लालन-पालन और जीने का सलीका मिला होगा। वहीं
‘स्त्री सुबोधिनी’,’सयानी बुआ’,’एक प्लेट सैलाब’ जैसी कहानियाँ पढ़कर कितनी ही
स्त्रियों को अपने जीवन की दलदलीय जमीन पर दमदारी से खड़े होकर साँस लेने का होश
आया होगा। ये बात तो वे ही जाने लेकिन हिंदी साहित्य सदैव मन्नू भंडारी जी का ऋणी
रहेगा, ये मैं अच्छी तरह से जानती हूं। अस्तु!
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यू.पी. मासिक के 2023 जुलाई अंक में प्रकाशित |
मन्नू भंडारी के जीवन और लेखन पर अनमोल जानकारी
ReplyDeleteअनीता जी, बहुत धन्यवाद
Deleteदो बार पढ़ी फिर भी मन ना भरा मित्र, आपकी लेखनी में जादू हैं।
ReplyDeleteमन्नू भंडारी जी मेरी प्रिय लेखिका हैं हिंदी साहित्य को पढ़ने और लेखन की समझ मुझे शिवानी जी के बाद मन्नू जी की रचनाओं को पढ़ कर ही आया । उनके बारे में इतने विस्तार से पढ़ना वाकई सुखद लगा। बहुत बधाइयां कल्पना जी आपको। आप लिखते रहिए हम आपको ढ़ूढ कर पढ़ेंगे।
आपकी प्रतिक्रिया का अब इंतजार रहने लगा है। मित्र! आपकी पारखी नज़र का कमाल है जो अच्छाई खोज लेती है। सादर हार्दिक आभार व्यक्त करती हूं 💓
Deleteशिवानी के बाद मेरी दूसरी प्रिय लेखिका रही हैं,मन्नू भंडारी।अंतर्मन की गिरह खोलने में दक्ष,बाल मनोविज्ञान को प्रस्तुत करती आपका बंटी।जब जब उसे पढ़ा है, आंख नम हुए बिना नहीं रही।कितना कुछ उनका लिखा पढ़ा और जिया भी है।आपकी भावभीनी श्रद्धांजलि
ReplyDeleteआपने उचित ही कहा। पुरानी पीढ़ी ही ने नहीं, नई पीढ़ी की भी वे साहित्यक पथ प्रदर्शिका हैं। सादर आभार
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