मानवीय मन की उथल-पुथल में निबद्ध कहानियाँ

लेखक : कृष्ण बिहारी 

‘जिंदगी की सबसे सर्द रात’ शिवना प्रकाशन से कृष्ण बिहारी का नया कहानी संग्रह। इस संग्रह में अलग-अलग विषय-वस्तु पर आधारित दस कहानियाँ हैं। ‘जिंदगी की सबसे सर्द रात’ कहानियों में जितनी शिद्दत से भारत का लोक-जीवन आया है, उतनी ही गरिमा और सौष्ठव के साथ अबु धाबी का परिवेश,समाज, कल्चर,हाव-भाव और जीवन-व्यवहार भी पढ़ने को मिलता है। कहा जाता है कि एक रचनाकार के लिए भ्रमण अति आवश्यक है। इस मामले में लेखक का अनुभव सघन है। कहानियां  पढ़ते हुए यह स्पष्ट दिखाई पड़ता है।


संग्रह की पहली कहानी भारतीय जमीन की है। ‘डुबकी’ कहानी में आमी नदी की चर्चा के साथ कमला के जीवट की बात भी शिद्दत से कही गयी है। पेवन और निहोरिया को जब बेटी होती है तो बभनौटी की तरह ये दोनों दुःख मनाने की जगह पंडित के पास जाकर अपनी नवजात पुत्री के लिए नाम विचरवाते हैं। पंडित उस बच्ची का नाम कमला रख देते हैं लेकिन माँ-बाप को कमला कहने में स्नेह प्रतीत होता है इसलिए वे लाड़ से उसे ‘कमलिया’ ज्यादा पुकारते हैं। लक्ष्मी का एक नाम कमला भी है इसलिए बेटी को वे दोनों गरीब दम्पत्ति अपने लिए भाग्यशाली मानते हैं। न जाने चलते-घिसटते कमला को आमी नदी से कब प्यार हो जाता है। कहानी की भाव-भूमि का अंदाजा इस वाक्य से लगाया जा सकता है। ”कहानी उस डुबकी की है जिसे अगर मौका मिलता तो न जाने कब उसने महिला तैराकी में हिन्दुस्तान का नाम रोशन कर दिया होता।” यह कहानी महिला सशक्तिकरण की बात करती है।


‘ढाके की मलमल’ कहानी इस वाक्य से शुरू होती है। “कहानी खाड़ी देश की राजधानी में नार्थ ईस्ट ट्रेडर क्लब की वह शाम…” ऑफिस स्टाफ़ अपने परिवार के साथ एक क्लब में पार्टी के लिए इकट्ठा है, उसमें कुछ लोग बिना परिवार के भी पहुँचे है, कुछ लोग नई ज्वाइनिंग वाले भी पहुँचते हैं। महक शुक्ला नाम की लड़की अनवर के साथ पार्टी में शामिल होती है। जिसे अनवर अपने दोस्त से मिलवाता है। महक शुक्ला को देखते ही कथा के नैरेटर के मुँह से अचानक उसका नाम  ‘मलमल’ निकल जाता है। जिसे सुनकर उसका एक मित्र बेहद खुश होकर कह उठता है, “क्या नामकरण किया है!” कुछ समय बाद महक शुक्ला को अपना नाम ‘मलमल’ पसंद आने लगता है। वह अपने बदले हुए नाम मलमल से चिढ़ती नहीं है बल्कि धीरे-धीरे अपने बारे में अनवर को बताती चलती है। अनवर को पता चलता है कि महक शुक्ला की तीन शादियाँ हो चुकी हैं और जिस शादी में वह अभी बसर कर रही है, वह महज एक कांट्रेक्ट है जो खत्म होने जा रहा है लेकिन उस समझौते वाली शादी को महक शुक्ला बचा लेना चाहती है। समझौते में बंधा ग्वाटम नहीं चाहता कि उसकी बीवी को किसी भी प्रकार से पता चले कि वह किसी अन्य स्त्री के साथ कांट्रेक्ट में विवाहित पुरुष की तरह रह रहा है। कांट्रेक्ट खत्म होने के बाद वह महक शुक्ल के साथ न रहकर अपनी पत्नी के साथ रहना चाहता है। ये कहानी बेहद दर्द समेटे हुए दिखी। अंत में कथा नायिका कहती है,”अनवर…ढाके की मलमल की तरह मैं भी ….” यानी कि ढाका की मलमल फिर भी सोलह चरणों से गुजर कर कम से कम ‘मलमल’ बन जाती है लेकिन चार शादियाँ करने के बाद भी महक शुक्ला को शादी का सुख नहीं मिलता है और वह अमेरिका लौटने का निश्चय कर लेती है। कहानी की बुनावट में ढाका की मलमल जैसा स्त्री-जीवन के दुखद चरण भी हैं।


‘बादशाह’ कहानी परतदार है। एक रिक्शा चालक जब ये जान जाता है कि उसके रिक्शे में बैठा व्यक्ति कहानी लिखता है तो वह थोड़ा विचार कर कहता है कि,”पैसे न हों तो ना दो बाबूजी…और कभी पैसों की जरूरत पड़े, हम से कहना….ज्यादा नहीं लेकिन दो-चार हज़ार की मदद मैं कभी भी कर सकता हूँ।” जिसे सुनकर कथानायक हतप्रभ सोचने लगता है कि आखिर रामआसरे ने ये क्यों कहा? दूसरे कहानी उस व्यक्ति की बात कहती है जो किसी भी हालत में घर-परिवार, रिश्तेदार और एक आम व्यक्ति की भी मदद करने के लिए तत्पर है क्योंकि उसके पास संतोष है और जितना वह कमाता है वह उसके लिए काफ़ी है। आज की भागमभागी सभ्यता में जुते व्यक्ति को रुककर सोचने के लिए ये कहानी मजबूर करती है।


‘अकेला चना’, ‘सेन चाइल्ड’ और ‘कीमा’ कहानियों में विद्यालयी दाँव-पेंच की बारीक पच्चीकारी है। कैसे एक एम्प्लाई को शोषित किया जाता है, कैसे बिना सही बताए उसे इतना टॉर्चर कर उस स्थिति में पहुँचा दो कि वह इस्तीफ़ा स्वयं लिख दे और उसका हिसाब-किताब भी ठीक से न करते हुए लच्छेदार वादों-बातों में घुमाते रहना, दर्द से भर देता है। दूसरी कहानी में किस कदर शिक्षा व्यवस्था पर अभिभावकों का दबदबा बढ़ता जा रहा है और एक शिक्षक कितना निरीह प्राणी बनता जा रहा है कि उसकी गर्दन न हो जैसे मुर्गी की गर्दन बन गयी है, जिसे कभी भी मरोड़ दिया जा सकता है। ‘कीमा’ कहानी बताती है कि बाहर के देशों में पैसे तभी कमाए जा सकते हैं जब आपके पास काबिलियत होगी और साथ में ये भी कि एक दूसरे की मदद करके दुनिया को बदरंग होने से बचाया जा सकता है। 


‘दो लाख का थप्पड़’ कहानी के लिए यही कहूँगी कि ये कहानी बहुत प्यारी है। जब ऐसा दौर चल रहा हो कि जहाँ अपने काम बनाने के लिए मित्रता को भी इस्तेमाल कर लिया जाता हो वहीं इस कहानी का नायक अपने मित्र के लिए कैसे नींद हराम कर पूरी रात उसकी तीमारदारी में बिता देता है। ’सर्वप्रिया’ कहानी पढ़ते हुए बार-बार हँसी आती रही। ऐसा नहीं कि कहानी में सब हँसने की बाबत ही लिखा गया हो।  इन दोनों कहानियों में अरबी शब्दों के प्रयोग ने जीवन्तता बढ़ा दी है और परिवेश विश्वशनीय लगने लगा है।  ‘अभागी’ और ‘ज़िन्दगी की सबसे सर्द रात’ कहानी में सम्वेदनाओं को इस कदर बुना गया है कि किरदारों के माध्यम से जीवन के उतार-चढ़ाव को ये कहानियाँ चित्रांकित करती चलती हैं और पढ़ने वाले को लगने लगता है कि कोई सामने बैठा अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव सुनाए जा रहा है। कहानी थोड़ी दूर चलती है कि एक कथानायक का संवाद आता है,“मेरी मुहब्बत लहुलुहान है…. खून से लथपथ है… अनगिनत चोटों से घायल है….” इसके बाद कथानायक अपनी अशरीरी हो चुकी प्रेमिका को जब याद करता है तो मन कचोट के साथ भारी होता चलता है। 


मानवीय मन की उथल-पुथल में निबद्ध कहानी संग्रह को पढ़ना यानी कि भारत और खाड़ी देश के जन-जीवन के संघर्षों को नजदीक से देखना और जानना है, साथ में यह भी समझना है कि समाज चाहे जहाँ का भी हो, लोग और उनके जीवन के संघर्ष, आशा, निराशा, उत्सव और भ्रांतियाँ एक जैसी होती हैं। निश्चित रूप से इन कहानियों को पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि इन कहानियों में कल्पना कितनी है, का तो पता नहीं लेकिन यथार्थ कथ्य के धरातल पर अपनी बात मजबूती से कहता दिखाई पड़ता है। 

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2023 के जनवरी-मार्च अंक में प्रकाशित 























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