तू बड़ी या मैं
चित्र : गूगल से साभार |
भोला के गाँव का नाम चंदनपुर था। गाँव, पक्की सड़क के किनारे पर स्थित था। उस गाँव में प्राथमिक विद्यालय और छोटा सा चिकित्सालय था। विद्यालय और चिकित्सालय की बाहरी दीवारों पर संस्कृत और हिंदी के सुविचार और पशु आहार के विज्ञापन लिखे रहते। भोला के पिता एक किसान थे लेकिन अपने कार्यों में निपुण और नियम के पक्के। माँ पढ़ी-लिखी सुशील गृहणी थीं। वे भोला को जितना प्यार करती थीं उतना ही समय से स्कूल न जाने तथा पढ़ने में ढिलाई बरतने के लिए उसे डांटती थीं।
इस बात का फ़ायदा भोला की दादी खूब उठातीं। वे भोला
को उन बातों पर ध्यान नहीं देने देतीं, जिसे उसकी माँ कहती। दादी को सात वर्ष का भोला छोटा-सा
बालक लगता। वे पढ़ने में नहीं,खेलने-कूदने में उसकी मदद
करतीं। दादी की बातों को भोला दुलार समझता था और माँ की बातों को कठोरता से तौलकर
उनसे दूर भागता था। भोला अपनी किताबें, पेंसिल और रबड़ घर
में कहीं भी बिखेर कर छोड़ देता। देर रात तक दादी से कहानियाँ सुना करता। दिन में
भी जब मौका मिलाता चोर-सिपाही और परियों की कहानियाँ दादी सुनाने बैठ जातीं। रात
को देर तक जागने की वजह से भोला प्रत्येक दिन प्रार्थना सभा खत्म होने के बाद ही
विद्यालय पहुँच पाता। देर से स्कूल पहुँचने पर उसके अध्यापक को भी बहुत गुस्सा
आता। उन्होंने भोला से कई बार देर से पाठशाला आने का कारण जानना चाहा लेकिन उसकी
चुप्पी से वे निरुत्तर ही रह जाते। अंत में अध्यापक जी ने भोला के घर किसी के हाथ
एक पत्रनुमा काग़ज का टुकड़ा भेज दिया। घर में विद्यालय
से पत्र आया देखकर माँ हैरान हो उठीं। पत्र में भोला की शिकायतें लिखी थीं। ये भी
कि भोला कक्षा में आलस्य में बैठा ऊँघता रहता है। माँ सिर पकड़ कर बैठ गईं।
भोला खेल कर जब घर लौटा तो हमेशा की तरह माँ के पास न
जाकर गेंद बल्ला फेंक दादी से पानी माँगने लगा। “देख भोला तेरी पाठशाला से चिट्ठी आई थी। अपनी माँ को देखो
कितनी उदास है।” दादी के कहने पर उसने माँ को देखा तो मगर
कुछ पूछा नहीं। बहुत देर इंतजार करने के बाद माँ ने अपनी तरफ से उसे बुलाया।
"भोला, तुम्हारे विद्यालय से पत्र
आया है।" पानी पीकर गिलास जमीन पर फेंक कर उसने माँ की
ओर देखा ज़रूर लेकिन पत्र का आना और माँ का दुःखी होना, उसे
कुछ भी समझ नहीं आया। माँ को गुस्सा में देखकर बस उसने अपना सिर झुका लिया। भोला
को शांत देखकर दादी बोलीं।
"भोलू अभी बहुत छोटा है, पढ़
लेगा। अभी उसके खेलने कूदने के दिन हैं।" पोते को
अतिरिक्त पुचकारते हुए दादी ने उसे छाती से चिपका लिया।
"गया समय कब लौटा है अम्मा! और भोलू भी क्या छोटा ही
बना रहेगा? पढ़ाई न करे तो छोटा, बिस्तर
गिला करे तो छोटा, मेरा कहना न माने तो छोटा। आख़िर आप चाहती
क्या हैं?” भोला की माँ कहना चाहती थीं लेकिन सोचकर
मौन रह गईं। भोला की माँ आशावान महिला थीं। वे बेटे को अपने पति की तरह किसान नहीं,अधिकारी बनते हुए देखना चाहती थीं। भोला उनकी इस बात को क्या! किसी भी बात
को बिल्कुल नहीं समझता था। बेटे के इस रवैए से उन्हें अपना सपना टूटता हुआ-सा लगने
लगा था।
दूसरे दिन भोला आँगन के जाल में पड़े झूले में झूल रहा
था। इतने में उसके ताऊ जी का बेटा रमन अपने साथ बड़ा सा चाबी वाला मुर्गा लेकर
उसके पास खेलने आ पहुँचा। उसे वह खिलौना कक्षा पाँचवी में प्रथम आने पर मिला था।
भोला उसे थोड़ी देर देखता रहा। फिर अचानक झूले से कूदकर उसकी ओर झपट पड़ा। रमन
पहले से चौकन्ना था। उसने मुर्गे को अपनी पीठ के पीछे छिपाया और बोला। "मैं नहीं दूँगा तुझे….।"
कहते हुए रमन अपने घर भाग गया। भोला को ये बात बहुत बुरी लगी। वह
ज़मीन पर एड़ियाँ रगड़ने लगा।
"मुझे मुर्गा चाहिए, मुझे मुर्गा
चाहिए, मुझे मुर्गा….।" दादी
ने भोला को रोते हुए सुना तो बहार से दौड़ी-दौड़ी चली आईं।
"हुआ क्या मेरे बच्चा को?"
"दादी, रमन ने मुझे मुर्गा नहीं
दिया।" भोला ने हमेशा की तरह दादी से शिकायत कर दी।
"उसकी ये हिम्मत! अभी लाती हूँ।" दादी रमन के घर रवाना हो गईं और माँ जो अभी तक चुप थी, उसके पास आकर बोली।
"भोला, पहले समय से उठना, मेरी बात मानना और पढ़ना-लिखना सीखो। मैंने एक नहीं, तुम्हारे लिए दो-दो मुर्गे मँगवा दूँगी।" माँ
की बात उसे कभी अच्छी नहीं लगी थी सो आज भी कोई फर्क नहीं पड़ा। वह अपनी धुन में
दरवाज़े की ओर देखकर रोए जा रहा था।
"क्यों रो रहे हो भोला, वह मुर्गा रमन का था, तुम्हारा नहीं।" माँ ने उसके बाल सम्हालते हुए थोड़े रूखे स्वर में फिर से कहा और दिल बहलाने के लिए घर के बाहर बनी क्यारी में भोला के हाथों रोपे गए पौधे को दिखाने उसे साथ लेकर चली गईं। माँ अभी भोला को समझाने का प्रयत्न कर ही रही थीं कि खेत से उसके पिता भी आ पहुँचे।
चित्र : गूगल से साभार |
"अरे! आज तो माँ बेटे दोनों साथ-साथ। ये कैसे हो गया?
दादी कहाँ हैं भोला?"
"देखो न! भाई साहब का बेटा रमन एक चाबी वाल मुर्गा लेकर
खेलने आया था। उस खिलौने को देखकर भोला रोए जा रहा है।" माँ ने शिकायती लहजे में कहा।
"अच्छा ये बात है! तो चलो भोला को सच्ची वाला मुर्गा
दिखाता हूँ। उसमें रोना क्यों!"
“क्या कहा पापा?” भोला रोना भूलकर पिता
से बोला। पिता ने उसकी ऊँगली पकड़ी और अपने घर से दूसरी गली में छगन लाल मल्लाह के
घर मुर्गा दिखाने पहुँच गए। छगन मुर्गे को दाना चुगा रहा था। भोला के पिता को
देखकर अभिवादन करते हुए बोला।
"आइए बाबू जी, हम क्या सेवा कर
सकता हूँ?"
"छगन लाल, अपने मुर्गे से मेरे
बेटे को मिलाओ।" भोला के पिता ने भोला को आगे करते हुए
कहा।
"अच्छा! आज राजू को देखन वास्ते, बाबू
भैया आए हैं।" कहते हुए छगन ने मुर्गे की कलगी पर हाथ
फिराया।
"राजू, इनसे मिलो ये भोला भैया
हैं।" कहते हुए छगन ने भोला के पाँव के पास मुर्गे को
छोड़ दिया। गर्दन मटकाते हुए मुर्गा वहीं दाना ढूँढने लगा।
"पापा, क्या मुर्गा बोलता भी है?"
बिदक कर दूर हटते हुए भोला बोला।
"हाँ भैया……कुकड़ुकू कुकड़ुकू" छगन गले की कोई नस दबाते हुए मुर्गे की आवाज़ निकलने लगा।"
"चाचा आपसे नहीं…, पापा मैंने
मुर्गा…।"
"हाँ बेटा! मुर्गा बोलता है। बचपन में इसी की बांग सुनकर
ही मैं सुबह जल्दी उठकर विद्यालय जाता था।"
"बांग क्या होता है पापा?"
"सुबह-सुबह मुर्गे की पहली आवाज़ को बांग कहते हैं।"
"क्या इसने अब बोलना बंद कर दिया है।"
"अरे लल्ला, हम तो इसी के टेरने
से अब भी उठता हूँ। सुभा-सुभा मेरा राजू अपने पंजों पर खड़े होकर बांग मारता है।"
बूढ़ा छगन दाँत निकालते हुए बोला।
"लेकिन मुझे तो मेरी घड़ी उठाती है पापा।" छगन को अनसुना करते हुए भोला बोला।
"क्योंकि जब मुर्गा बोलता है तब तू और तेरी घड़ी दोनों
सो रहे होते हैं।"पापा मुस्कुरा कर बोले।
"क्या मतलब पापा!"
"चलो, अब घर चलकर बताते हैं।"
पापा घर की ओर मुड़ गए।
"बताओ न पापा!"
"मुर्गे की बांग सुनने के लिए तुझे सुबह जल्दी उठना
पड़ेगा। देर रात तक दादी की जो कहानियाँ सुनते हो, उसे बंद
करना पड़ेगा। तब कहीं जाकर मुर्गे की बांग तुझे सुनाई पड़ेगी।" भोला के पापा ने ड्रामिस्टिक अंदाज़ में अपनी बात भोला को बताई।
घर लौटते हुए अँधेरा घिर आया था। भोला को घर में
छोड़कर उसके पापा गाय को चारा देने चले गए थे। भोला की माँ ने खाना बनाकर उसे
खिलाया और अपने काम में व्यस्त हो गईं। दादी ने खाना खाया और भोला का हाथ पकड़ छत
पर सोने चली गईं। रात पूरी तरह से आसमान पर छा चुकी थी। पूरा आसमान चाँद तारों से
भर चुका था। दोपहर की घटना याद करते हुए दादी का मन भोला के प्रति पिघलने लगा।
उन्होंने एक नई कहानी सुनाने का मन बनाया और जैसे ही कहानी शुरू की।
"फूलों का एक नगर था। वहाँ के राजा का नाम भोलानाथ वीर
प्रताप सिंह…।"
"रुको दादी, मुझे नहीं सुननी
कहानी।"
“क्यों क्या हुआ? नई कहानी सुनाऊँगी।”
“नहीं दादी, मुझे मुर्गे की बांग सुनना
है।” कहते हुए भोला अपनी करवट मुड़ गया। दादी ने अचरज से
उसकी ओर देखा। उसकी माँ को कोसा कि उसने ही मुझसे अलग करने के लिए इसे पट्टी पढाई
है। फिर उदास मन से कंठी निकालकर माला फेरने लगीं। थोड़ी देर बाद भोला के पापा-माँ
भी छत पर आ गए। लालटेन बुझाकर सभी सो गए। ठंडी हवा के झोंके खाते हुए रात बीतने
लगी। चलते-चलते वह जब थकने लगी तो उसने अपना बिस्तर समेटना जैसे ही शुरू किया वैसे
ही सूरज ने पूरब का दरवाजा खटखटाने की बात सोची। पूर्व दिशा लाली से भरने लगी। उसी
समय गाँव के शांत माहौल में एक पक्षी की कुकड़ुकूं की तेज़ आवाज़ हवा में तैरते हुए
भोला के कानों में गूँज उठी।
"पापा क्या यही मुर्गे की बांग है?" तेज़ बोलते हुए भोला उठकर चारपाई पर बैठ गया। साथ में दादी भी उठ गईं।
दूसरी छत से माँ-पापा भी दौड़ते हुए उसके पास पहुँच गए।
"क्या हुआ भोलू क्या बुरा सपना देखा?" पल्लू ठीक करते हुए उसकी माँ बोली।
"नहीं मम्मी, मुर्गा बोला था अभी!"
भोला की बात सुनकर माँ ने पिता की ओर देखा। पिता ने आँख का इशारा
करते हुए कहा फिर बताऊंगा।
“सो जाओ अभी तो उठने का समय नहीं हुआ।” माँ ने कहा।
“नहीं मम्मी, अब मैं इसी समय रोज़
उठूँगा।”
"वादा ?" माँ ने रुखाई से
कहा।
"हाँ मम्मी,अब रोज जल्दी
उठूँगा।" भोला ने सुबह की नरमाहट को साँसों में खींचते
हुए कहा।
"फिर तो मैं रमन जैसे दो-दो मुर्गे मँगवा कर दूँगी
तुझे।"
"अगर में पढ़ने लगा तो…।" भोला
के चेहरे पर कुछ अलग-सा भाव आकर चिपक गया था।
"तो छगन वाला मुर्गा ही ला देगें।" पिता ने मुस्कुराते हुए कहा।
"सच्ची पापा!" भोला ने
मुर्गे की छवि याद की।
"हाँ भाई!"
भोला खुशी से दादी की चारपाई पर कूदने लगा। बस इसी
बात के लिए दादी ने उसे कई बार डाँटकर समझाया था कि कूदने से पलंग की निबाड़ ढीली
पड़ जाती है सो उस दिन भी दादी ने गुस्से में उसे घूरा। भोला चारपाई से कूद कर माँ
से लिपट गया।
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2023 जनवरी अंक में प्रकाशित |
घर के सभी लोग यदि बच्चे के सही पालन पोषण की तरफ ध्यान दें तभी उसके जीवन में भोर आती है
ReplyDeleteअनीता जी बहुत धन्यवाद
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०५ -०२-२०२३) को 'न जाने कितने अपूर्ण प्रेम के दस्तक'(चर्चा-अंक-४६३९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जी, बहुत धन्यवाद आपका .
Deleteशिक्षाप्रद कहानी।
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका ज्योति जी .
Deleteमनीषा जी आपका बहुत धन्यवाद
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