हँसो,जल्दी हँसो
चित्र : अनुप्रिया |
एहसासों की स्याही से कहानी लिखे
तो ठीक, नहीं तो उसे चेज़ करते रहना अब टाइफाइड के लक्षणों से कम नहीं लगने लगा था।
कभी-कभी प्रकाशित आकांक्षा मन को जाग्रत करने में चुक जाती है और धुँधले निष्कर्ष व्यक्ति को चलाने में सहायक बन जाते हैं। बहरहाल उस दिन ऑफिस से लौटकर मेरा मन था कि जल्दी सो जाऊँ
और सुबह देर तक सोती रहूँ। लेकिन बिस्तर पर पहुँचने के बाद स्मृतियों के चाँद ने
पुरज़ोर ज्योत्सना बिखेर दी तो नींद को चाँद के हिंडोले पर छोड़ मैं खिड़की में जा
बैठी। धरती के दुःख रात के नीरव बहाव में बहते जा रहे थे और मैं हमदर्द उजाले की तलाश में
भटकती जा रही थी। रात के स्याह सन्नाटे में पेडों पर हवा में झूलते पत्तों की खरखराहट और इक्का-दुक्का पंछियों के
चहकने से पहर बदलने की आहट ने विचारों से निकालकर मुझे खिड़की के दरमियाँ कर दिया।
घड़ी पर नज़र गई तो काँटे रात के डेढ़ बजाते दिखे। क्षितिज पर जिधर मैं देख रही
थी लपलापकर एक तारा टूटा और लकीर बनाता हुआ धरती की गोद में आ गिरा। देखते हुए विचार कौंधा। "टूटकर तारे जब ज़मीन पर गिरते ही हैं तो लोग तारे क्यों बन जाते हैं?
क्या गज़ब का कॉम्बिनेशन बिठाया है ऊपर वाले ने।"
"जागते रहोss!" सोसायटी के चौकीदार ने कबीर की भाँति सोए हुओं को आगाह किया तो मेरी तंद्रा भंग हो गई और मुझे लगा कि अँधेरा सब कुछ यकसां कर सकता है मगर आवाज़ें नहीं छिपा सकता। अचानक बीच पीठ में झुरझुरी महसूस हुई और रोएँ खड़े हो गए। जिस प्रकार मेरा मन रीता-रीता भटक रहा था, उसी तरह अक्टूबर की सहमी रात झींगुर की ताल पर मौन थिरक रही थी। शीशम की टहनियाँ हिल-डुलकर कृत्रिम उजाले में छाया के चकत्ते उकेर रही थीं। लाखों तारों में से एक, दो, तीन…को तर्जनी से इंगित कर मैंने माँ को टटोलने की कोशिश की।
“माँ कहाँ छिपी हो? आज बहुत-सी बातें करनी थीं।" बहुत खोजने पर जब
किसी तारे में माँ को रोपित नहीं कर पाई तो एक उदास भाव उठने ही वाला था कि शीशम
की अंतिम डाल पर एक चटक तारा दिखा। "ये माँ नहीं…,तो क्या नानी हैं?" हाँ, ये
नानी ही हैं! मैंने खुद से पूछा भी और कहा भी। मेरी नानी हँसती बहुत थीं इसलिए
पहचानने में देर नहीं लगी।
हँसी पसंद माँ की बेटी, एक
मेरी माँ,सोच-समझकर हँसती और इसी बिना पर डाँटते हुए मुझ से
कहती थीं,"नानी की तरह सारा दिन हँसती हो,ज़रा तमीज़ सीखो कृपा। ज्यादा हँसना उस दुःख को मौन पीना है जो अपने
हिस्से का होता ही नहीं।” ऐसा मेरी माँ को लगता था। जबकि हर
छोटी-बड़ी बात पर मैंने नानी को हँसते हुए ही देखा था, सो
हँसना मुझे अच्छा लगने लगा था। हालाँकि धीरे-धीरे जब मेरा अनुभव पका तो ज्यादा
हँसने, बेबात के हँसने, फ़ालतू में
हँसने और अति-हँसने में अंतर समझ आया। और ये भी कि नानी को कोई भी दुख, दुःखी नहीं कर सकता और सुख, हँसी से ज्यादा कुछ दे
नहीं सकता। इसीलिए शायद उन्होंने सुख-दुःख को हँसी के भाव तौल लिया था।
नानी की हँसी याद आई तो रात भी मुझे हँसती हुई-सी लगने लगी। रात की हँसी
यानी शून्य का महाविलास। बिरला ही कोई महसूस कर पाता होगा। सोचते हुए खिड़की की
नींद में खलल न पड़े,उसे बंद कर मैं बिस्तर की
ओर लौट आई। अरे! आप हँस रहे हैं? वस्तुओं को जागते-सोते नहीं
देखा? अरे भई! वस्तुएँ सोती भी हैं और जागतीं भी। इस बार
सर्दियों में सीलिंग फैन को देखना,कैसे चैन की नींद सोता है।
खैर, यकीन नहीं मानोगे पर बहुत समय से मेरे साथ किताबें सोती
हैं। वे मेरी व्यथा समझती हैं और मैं उनकी मनोदशा। गाव तकिया का सहारा लेकर मैं
बेड पर बैठ गयी और रघुबीर सहाय की कृति उठा ली। मौका पाते ही कवि कानों में
फुसफुसाया,“हँसो हँसो जल्दी हँसो...!” “क्यों भई! हँसना इतना आसान है! जो कभी भी, कहीं भी
हँस पडूँ? बचपन की बात और थी!” यादों
की रेल से नानी की याद जो उतरने वाली थी,मेरे साथ यात्रा
करने लगी।
बात उन दिनों की है जब बच्चों के लिए शिमला,मनाली लंदन और गोवा सब नानी के घर में सिमट आते थे। वार्षिक परीक्षा खत्म
होने की प्रतीक्षा माँओं को पूरे वर्ष रहती थी। आठवीं की परीक्षा के बाद मैं भी
नानी के घर गई थी। घर के बाहर अहाते में झूला बन चुकी चारपाई में नानी अकेली बैठी
थीं। सूरज पश्चिम की ओर यूकेलिप्टस की झाड़ में अटका कसमसा रहा था। दो-चार गौरैयाँ
अहाते में फुदक कर दाना खोज रही थीं। नानी मुस्कुराते हुए ऊँगली उठाए हवा में
गोल-गोल कुछ बना रही थीं। मैंने चारों ओर देखा, दूर-दूर तक
कोई नहीं था। माँ नम आँखों से नानी के गले लग गईं। नानी ने हँसकर माँ को पुचकार
लिया। “अरे कोई सुन रहा है? देवा आई है,
ज़रा पानी ले आओ।” नानी ने माँ को टटोल कर जब
तसल्ली से अपने पास बिठा लिया तब मेरे बारे में पूछा।
चित्र : अनुप्रिया |
”देवा,किरपा कहाँ है?” माँ ने
मेरा मुलायम हाथ उन्हें पकड़ाया तो खींच कर उन्होंने मुझे अपने पास बिठा लिया और
बहुत देर तक वे मेरे हाथ की उँगलियाँ, नाख़ून, बाँहें, कंधे, सिर, माथा, कान, चेहरा हँसते हुए
टटोलती रहीं। उस दिन नानी मुझे कुछ नहीं, बहुत ज्यादा अजीब-सी लगी थीं या हो सकता
है कि समझदारी में नानी को पहली बार मैंने इस तरह जिंदगी को टटोल कर तलाशते हुए
देखा था सो मेरी घुटन और बेचैनी चरम सीमा लाँघने को उत्सुक हो पड़ी थी। रात खाना खाने के
बाद जब माँ मुझे मिली। एक कसक के साथ मैंने उनसे पूछा,“माँ,
नानी को कब से दिखना बंद हो गया है? या वे
जन्मांध हैं?”
“जनमान्ध..न नहीं तो, किसने…?” लैम्प
की मद्धिम रोशनी में मैंने देखा, माँ का चेहरा लाल हो आया
था। ज़रा-सी हवा लगते ही अपनों का दर्द कैसे सतह छोड़ आँखों में तिर जाता है,
उस दिन देखा। नानी की मौन पीड़ा को जब माँ की आँखों में टीभते हुए
पाया तो मैं खिसककर उनसे चिपक गयी। माँ की धड़कन बज रही थी। पता चला, साँसें प्रेम में ही नहीं, दुःख में भी बहुत शोर करती हैं। उस दिन पता चला कि माँ के जीवन के दुखों में से आधे दुखों का कारण नानी के जीवन में
आई काली आँधी है। वे उसी में धूल-धूसरित हुई पड़ी थीं। मैंने माँ का रुख अपनी तरफ
मोड़कर कहा ,“नानी के बारे में और बताओ न माँ।”
”नानी ज़मीदार पिता की इकलौती सन्तान थीं। उनके पिता बड़े चाव से जिंदगी जीने वाले रईस इंसान थे। नानी की माँ का देहांत उनकी कम उम्र में ही हो गया था। फिर भी उनके पिता ने दूसरी शादी नहीं की। बेटी की परवरिश अपनी चाची, ताई और भाभियों की मदद से करते गए। नानी के पिता खाने-पीने के शौक़ीन थे। शुद्ध मावे के पेड़ों को भी वे ताज़ा-ताज़ा खाते या पीतल की चाक़ू से छीलकर, क्योंकि पेड़ों के ऊपर पड़ी पपड़ी उन्हें दो-चार दिनों में ही सख्त लगने लगती थी। उनकी इस आदत ने पेड़ों के छिलके खाने वालों की एक जमात इकट्ठी कर दी थी। उसी चहलपहल में नानी का सारा दिन ख़ुशी-ख़ुशी निकल जाता। तुम्हारी नानी अपने पिता के साथ हिली-मिली थीं। वक्त के साथ आँख-मिचौली करते हुए जब वे दस वर्ष की हुईं, इस शर्त पर उन्हें ब्याह दिया गया कि गौना सोलह वर्ष की होने पर दिया जायेगा। जैसा उनके पिता ने चाहा वैसा ही हुआ। सोलहवें साल में नानी सौ बीघे ज़मीन की मालकिन बनकर सुसराल आ गईं और बिना किसी अकड़-धकड़ के नाना की गृहस्थी सम्हालने लगीं। समय की पीठ पर डोलते-डोलते हवाएँ भी निशान छोड़ जाती हैं सो नानी पहले दो से तीन हुईं, फिर चार और फिर देखते-देखते दस बच्चों की माँ बन गयीं। तेज़-तर्रार अपनी सास के साथ भी वे इतनी शांति और सामंजस्य से जीती गयीं कि बिना किसी दबाव के उनके सुबह-शाम ढलते और उगते रहे।” कहते-कहते माँ अचानक मौन हो गयीं।
“पर माँ! नानी अपनी बात पर खुद ही क्यों हँस पड़ती हैं? ये तो बुरी बात होती है ?” मैंने ज़ोर देकर कहा।
“हाँ, है तो! लेकिन रात के अँधेरों से ज्यादा दिन के अँधेरे खतरनाक-डरावने होते हैं। इनमें फँसा आदमी कहीं का नहीं बचता। दिन का अँधेरा सिर्फ कमरों के कोने ही काले नहीं करता बल्कि मन के कोनों को भीतर तक धुँधला बना देता है। जिन में चाँद न जादुई रंगत बिखेरता है, न तारे टिमटिमाते हैं। और न ही इनमें रात के अँधेरों जैसी आत्मीयता होती है। बेतुके अँधेरे के फेर में पड़कर तेरी नानी लगातार अपने को भूलती जा रही हैं।” माँ ने अबकी कुम्लाही-सी उबासी ली। अचानक मुझे अजीब सी गंध महसूस हुई। खिड़की से झाँका तो अहाते में जहाँ नानी सोयी थीं,पक्की नाली से बदबू उठ रही थी। उसी को हवा बहाकर मेरे कमरे तक ला रही थी। “नानी वहाँ कैसे लेट सकती हैं? वहाँ तो कितनी बदबू…।” कहते हुए मैंने माँ की ओर देखा तो लगा बर्फ़ से गीली पिछौरी ने उन्हें कसकर लपेट लिया। रात का सन्नाटा मेरे कानों में भाँय-भाँय बज उठा। सहमकर मैंने अपने घुटने माँ के पेट में छिपाने चाहे।
"कृपा ये तेरी नानी की नियति है या समय की कुचाल ठीक से मुझे भी नहीं पता लेकिन जब तुमने पूछा ही है तो ध्यान से सुनो।"
"ठीक है ठीक है माँ! बताओ न!"
"तेरी नानी के जीवन में अँधेरा कोई टेर पुकार के थोड़े आया है। वह तो बिना किसी संकेत और प्रमाण के आ डटा है। नहीं तो हँसते-मुस्कराते अपना आधा जीवन बुनते-बुनते एक दिन उन्हें दीए की ज्योति में किरणें फूटती-सी क्यों दिखने लगातीं। जब उन्होंने अपनी बात सबको बताई तो जानकारों ने उनकी आँखों में मोतियाबिंद उतर आने की बात कही। उम्र के अधरस्ते पहुँचते नानी के कई बेटे-बेटियाँ गृहस्थी वाले हो चुके थे। उनकी छोटी-गहरी आँखों में मोतियाबिंद की सफेदी फ़ैलना एक आम बात माना गया क्योंकि इस मर्ज़ का इलाज़ संभव हो चुका था। पर क्या पता था कि कलकल बहती मीठी नदी को परिस्थियाँ भीतर की ओर मोड़कर ही दम लेगीं। बस एक बात का मलाल आज भी है और बना रहेगा कि पहले उन्हें डॉक्टर को दिखाना ही चाहिए, का निर्णय देर से लिया गया। फिर जब मोतियाबिंद का ऑपरेशन सीतापुर के खैराबाद के आई हॉस्पिटल के जाने-माने सर्जन एस के मित्तल से करवाने का निश्चय किया गया। तो वहीं बार-बार अस्पताल आना-जाना न पड़े, किसी ज्यादा अक्ल वाले की सलाह पर नानी की दोनों आँखों का ऑपरेशन एक साथ करवा दिया गया। नानी के साथ-साथ हम सब खुश थे। पट्टी खुलने का दिन आया तो डॉक्टर ने पूरी सावधानी से पट्टी भी खोली। दोनों हथेलियाँ मलते हुए चाव से वह बोला,"माताजी आँखें खोलिए और बताइए कैसा दिख रहा है?" “इधर देखिए मेरी ओर! बताइए कितनी उँगलियाँ हैं?”
"अरे! आँखें तो खोलो डाक्टर।" नानी ने कहा। डॉक्टर को जैसे करेंट छू गया। नाना बताते थे, उसका चेहरा फक्क पड़ गया। आगे झुककर उसने अपना हाथ नानी की आँखों के आगे ऊपर-नीचे किया लेकिन नानी ने पलकें नहीं झपकाईं। क्लीनिक में अचानक अकूत अँधेरा उमड़ पड़ा। चारों ओर सन्नाटा खिंच गया। कुछ मिनटों तक कोई किसी से बोल न सका।
चित्र : अनुप्रिया |
”माताजी एक बार खिड़की के बाहर देखने की कोशिश कीजिए” डॉक्टर ने खेद के साथ कहा।
“कुँए में झाँकने पर जैसा दिखता है, वैसा ही कुछ…।"
नानी ने चेष्टा रहित कहा। जीवन के दावानल में भीगी लकड़ी-सी नानी धुंधक उठी थीं,
देखने वालों ने महसूस किया। डॉ. ने हाथ मसलते हुए नाना से कहा–
“आई एम सॉरी, सो सॉरी। इट इस वैरी सेड,
ऐसा होना नहीं चाहिए था। इस फ़ील्ड में काम करते हुए मुझे बीस वर्ष
हुए पर ऐसा केस तो कभी नहीं आया।” अँधेरे की छटपटाहटें
डॉक्टर के चेहरे पर पसर गईं लेकिन नाना अपने निर्णय पर शर्मिंदा थे या नहीं,
ये किसी ने नहीं जाना। हाँ, नानी की आँखों पर काली
ढक्कनदार पट्टी ज़रूर बँधवाकर घर लौट आए थे। उसके बाद नानी की जो विधि बिगड़ी
उन्होंने क्या किसी ने कभी नहीं सोचा था। नाना पूजा के दौरान कई दिनों तक
चुपके-चुपके रोते रहे थे। बताने को क्या! लोग कुछ भी बताते रहें! लेकिन जो महिला न
कभी खद्दर पर रीझी, न सिल्क के लिए मचली, उसने अपनी आँखों का जाना भी सहज स्वीकार लिया, यह
अचंभा था। उनके जीवन में पहले वस्तुओं ने फिर व्यक्तियों ने चुपके से अपनी-अपनी
जगहें बदल लीं। नानी किसी गरीब की तरह बस सारा दिन हँसी को धोने-सुखाने में
गुजारने लगीं।
मैंने देखा कि तेरी नानी को अँधेरे के साथ सामंजस्य बैठाने के बाद पहले
आवाजें प्रिय हुईं। फिर जब खामोशियों की झिड़कियाँ उन्हें बेतहाशा सुनाई पड़ने लगीं
तब हर उस मौके पर वे हँसकर उसकी अहमियत गिराने लगीं जो उनके लिए अनिवार्य और कीमती था। लम्हा-लम्हा उनके
सुख-दुःख हँसी में बिला गए। ज़ाकिर हुसैन तबले की रियाज़ के लिए जितने प्रतिबद्ध
होंगे, नानी निरंतर हँसी के लिए प्रयासरत रहने लगीं और
देखते-देखते उनकी साँसों में हँसी जीवन की तरह उतर गई। अँधेरे से भरे ठोकर खाए
दिनों की शुरुआत में जब वे एक जगह बैठे-बैठे ऊब जातीं तो दीवारों का सहारा लेकर चल
पड़तीं, और किसी न किसी से टकराकर बैठ जातीं। हाथों से
दीवारों को टटोलती, कानों को उनसे लगाकर जीवन की आहट ऐसे लेतीं कि
देखकर मन कसैला हो जाता। आँगन में बैठ कर चौके की ओर दीदे फाड़ कर देखतीं तो मन
होता कैसे अपनी आँख से थोड़ी-सी रोशनी लेकर अम्मा की आँख में रख दूँ। कोई किसी को
पुकारता तो उसकी दिशा में उठ पड़तीं और फिर टकरा जातीं। माथे पर चोट फूल आती,
बैठकर सहलाते हुए ज़ोर से हँस पड़तीं। उनके दिन इतने हँसने लगे कि रात
की बेचैनियाँ तिरोहित हो गईं। इतने पर भी दुःख का मन नहीं भरा और वह ज्यादा नुकीला
होकर उन्हें गुदगुदाने लगा तो उनका हँसना तीव्र से तीव्रतर होता चला गया। इस तरह गझिन दुख
के एक-दो दृश्यों में नहीं, तेरी नानी दयनीयता की पूरी
पिक्चर में बदल गईं।” अबकी मेरी माँ ने सिसक कर पीठ फेर ली
थी।
माँ को हमेशा लगता रहा था कि नानी अपनी पीर छिपाने के लिए हास-परिहास का
चोंगा जबरन पहने रहती हैं। वरना किसी न किसी से तो उन्हें शिकायत होती? कभी तो मन का क्षोभ उगल कर अपना मन शांत कर लेतीं। लेकिन
नानी को न बहू, बेटे, बच्चे से शिकायत थी
और न ही ऊपर वाले के प्रति नाराज़गी। मानो दुनिया के सारे दुःख एक तरफ और नानी की
हँसी एक तरफ। जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गयी, मैंने देखा,
नानी के हिस्से की धूप जब सब में बंट गई तब नानी अकेले छाँव-भरी आहटें
तलाशने के लिए मजबूर हो गईं। नानी अपने सुख-दुःख की उलीचन में हँसी को गूँदने
लगीं। धीरे-धीरे घर के चेहरे पर जो स्थाई रूप से तनाव जमा था, पिघल गया। सभी अपनी-अपनी ओर लौट गए और नानी सबकी ओर लेकिन
पहुँची कहीं नहीं। इतने पर भी समय उनके प्रति कानाफूसियों और दैहिक भाषा के साथ
भड़ास उगलता चला गया।
जैसे ही उनका समय पूरा धुँधला हुआ अब नानी को सुबह से लेकर शाम तक किसी न किसी की जरूरत पड़ने लगी। न चाहते हुए भी लोगों की खिसियाहटें बढ़ने लगीं। इसकी भनक लगते ही नानी ख़ुशी-ख़ुशी अपने कामों को आगे की ओर स्थगित करना सीखने लगीं। कपड़ों के रंग ऊँगलियों से टटोलतीं तो बिना चोटी हफ़्ते-हफ्ते गुज़ारने लगीं। जुएँ उनके स्थाई संगी बन गए। खाना खिलाने वाले को जल्दी होती तो वे दाल-सब्ज़ी कटोरी की जगह थाली में उड़ेल देते। जैसे गाय का चारा। उन्हें दिया जाने वाला गिलास भर दूध हमेशा ही ज्यादा गर्म रहने लगा। परमानेंट उसपर पानी का पहरा लगा दिया गया। तीन कपड़ों में से उनका साथ सबसे पहले ब्लाउज ने छोड़ा। नामुराद ऐसे कहीं दब जाता कि खोजे नहीं मिलता। अब बिन बटनों के ब्याउज का तो खोना ही ठीक था। उसके बाद जब पेटीकोट भी उन्हें समय से नहीं मिलने लगा तो द्रोपदी की तरह वे एकवस्त्रा हो गयीं और जीवन तमाम गाँठ बाँधकर धोती पहनती रहीं। खैर, धोती उनके प्रति सदा समर्पित इसलिए बनी रही क्योंकि नानी खुद उसे धोकर नल की टोंटी या गुसलखाने के पास खूँटी पर जैसे टाँग देती वैसे ही दूसरे दिन उन्हें मिल जाती।
मैंने देखा, गरमी की धूप उनके पायताने
घंटों खड़ी रहती,नहाने को तीसरा पहर लग जाता तो उफ़ न करतीं।
चप्पल पलंग के पास न मिलने पर नंगे पाँव चल पड़तीं। तलवों में कुछ गड़ जाता तो उसके
लिए डाँटना दूर, उनके हँसने में
इजाफ़ा हो जाता। प्यास जब गला खरोंचती तो उनकी हँसी का ताप बढ़ जाता। इस बात का
अंदाजा मेरी माँ को हुआ जब उन्होंने ख़ुद प्यास लगने पर धोखे से पूछ लिया था,”अम्मा पानी पियोगी?” और नानी दो गिलास पानी एक साथ
गटक गयी थीं। नानी के मौन पर माँ स्तब्ध थीं। फिर तो उनकी उम्र ज्यों-ज्यों ढलती
गयी सुबह से लेकर शाम तक उन्हें अपनी बारी का इंतज़ार रहने लगा। वहीं हँसी अपना
दायरा बढ़ाती चली गयी। माँ अति व्यस्तता में कभी-कभी अचानक बोल पड़तीं,“कृपा तेरी नानी की हँसी के नीचे अनगिनत ज़िन्दा नासूर हैं। काश! कोई उनके मौन को पढ़ पाता और लिहाफ़ उठाकर मरहम लगा देता!”
चित्र : अनुप्रिया |
दुनिया की नंगी सच्चाई को आँख वाले से ज्यादा बिना आँख वाले साफ़-साफ़ देख लेते हैं और हँसी अपने बचाव में बड़े बेतुके तरीके अपनाती है। मुझे नानी को देखकर समझ आ गया था। उसके बाद नानी के घर जब भी जाना हुआ, उन्हें नहलाना, बालों में कँघी करना, घर में इधर-उधर घुमाना, मैं अपने जिम्मे ले लेती। जब आँखें मींचे नानी हँसी में लहालोट नज़र आतीं तो मैं उन्हें नीले आसमान की रंगत, भोर की नारंगी धूप, अबोध मुस्कान, अपनी हथेली पर मेंहदी का गेरुआ रंग दिखाने को मचल उठती लेकिन उम्र की ढलान पर वे पहले से ज्यादा हँसने और सोने लगी थीं। उनकी छाती से पल्ला सरकता तो मुझे बहुत झेंप लगती। एक दिन मैंने उनसे कहा,”नानी आप ब्लाउज पहनने लगो। मुझे अच्छा नहीं...।” “अच्छा किरपा, अपनी आजी की अँगिया अबके लेती आना।” कहकर तेज़-तेज़ हँसने लगी। उनका हाथ चौखट पर रखा था किसी ने दरवाज़ा खोल दिया। उनकी कानी ऊँगली पिर गयी, नाख़ून नीला पड़ गया। देखने वाले कराह उठे लेकिन नानी उस टीसती नील पर भी हँसती रहीं।
"नानी, हँसने और रोने में कितना अंतर होता है?
आप इतना क्यों हँसती हो? जबकि आपके मुँह में
एक भी दाँत नहीं, जिन्हें देखकर कोई दूसरा भी हँस सके?"
इस बार मैंने उनसे गुस्से में पूछा था।
“किरपा, रोना किसी को सीखना नहीं पड़ता और हँसी सीखने
में उम्र निकल जाती है। अब जबकि हमें हँसना आ ही गया है तो सोचती हूँ कि आखरी दम
तक बस हँसती रहूँ..!” कहते-कहते वे रुक गईं लेकिन उनके
शब्दों की आँच मेरे मन को तपाने लगी थी। उनकी हँसी मेरे भीतर हिल्की बनकर उभरना
चाह रही थी। तब तक नानी ने टटोलकर मुझे अपनी गोद में खींच लिया और नरम हथेली से
माथा सहलाकर हँसने लगीं। नानी के काले वर्तमान ने विस्तृत हो मुझे ढँक लिया।
गरमी की छुट्टियाँ फिर आई थीं। नानी के घर जाने की तैयारियों में माँ जी-जान से जुटी थीं तभी ननिहाल से खबर आई, ‘नानी नहीं रहीं’ डॉक्टर ने उनकी मृत्यु का कारण 'अति ख़ुशी' बताया था।
"माँ, ऐसी कौन-सी ख़ुशी थी जो नानी सहन नहीं कर सकीं और हँसी ने उनको दुनिया से मुक्त…?" मैंने पूछा। “कृपा, तुम एक! दम! चोsप” रहो और जाओ यहाँ से। रोते हुए माँ ने इतनी व्यग्र कठोरता से कहा कि मेरी लघु अधपकी भावुकता चटख गयी। मैं जानती थी कि उत्तर उन्हें मालूम था मगर वे देना नहीं चाहती थीं। मैं जाकर दूर बैठ गयी। रोते-रोते ज़मीन पर ऊँगली से माँ कुछ लिख रही थीं, जिसे पढ़ पाना असंभव था।
"जागते रहो जी! जागते रहो।" चौकीदार की खुरदुरी,
ख़ुमारी में डूबी, भरभरायी आवाज़ मुझे वर्तमान
में लौटा लाई। नज़र घड़ी पर पड़ी तो महसूस हुआ कि रात अपने अंतिम चरण में डोल रही
थी। सहाय की कविता ‘हँसो हँसो जल्दी हँसो’ की किरचें अर्थ के साथ मेरे जेहन में गहरे धँस चुकी थीं। "समझा था जिसे हँसी का नगीना, वही दरका हुआ शीशा
निकला।“ मैंने किताब तकिया के नीचे खिसका दी और आँखें मूँद लीं।
****
कानपुर से 2022 में निटक के अक्तूबर -दिसम्बर अंक में प्रकाशित |
दिल को छूने वाली कहानी
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद अनीता जी!
Deleteनमस्कार कल्पना जी।आपकी कहानी जो निकट मे आई है हंसो ....।बहुत बढ़िया कहानी है।मार्मिक ।एक बात कल्पना आपके पास बहुत अच्छी भाषा है।जिसका उपयोग आप बहुत अच्छे से करती हो।जो शब्द कही खो से गए थे वे मुझे दोबारा से पढ़ने को मिले।शब्दों का बेवजह प्रयोग आप नहीं करती हैं।ये देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा।बिना भूमिका बांधे आप कहानी कहती हैं।कहानी कहने का जो शिल्प है वह मासूम है।कोई मिलावट नहीं।किसी की भाषा अच्छी होती है।किसी का शिल्प।कहने का तात्पर्य है कि कोई मामूली विषय पर भी अपने शिल्प से ऐसे कहानी गढ़ता है पाठक दंग रह जाता है।ये कला हर किसी को नहीं आती। इसके विपरीत एक लेखक ऐसा भी होता है कि महत्वपूर्ण और बहुत अच्छे विषय पर कहानी लिखते वक्त शिल्प का ऐसे प्रयोग करता है।कहानी का सत्यानाश हो जाता है।आप ऐसी कमी से दूर हैं।आपकी कहानी मे नानी और मां को लेकर जो बुनावट है वह बिना लाग लपेट सच्ची है।कोई लंबे विस्तार नहीं।कहानी रोचक बन पड़ी है।बधाई लें।बाकी तो मैं भी आपकी तरह अभी विद्यार्थी ही हूं।अभी मैने आपकी महोदय कहानी नहीं पढ़ी है।पढ़ते ही बताऊंगी।मेरी कहानी पढ़कर भी अपनी प्रतिक्रिया देना।मुझे प्रतीक्षा रहेगी।😊
Deleteबहुत धन्यवाद पूनम जी! जल्दी ही मैं आपकी कहानी पढ़कर अपनी राय से आपको अवगत कराऊंगी.
Deleteआपकी लिखी रचना सोमवार 23 ,जनवरी 2023 को
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
संगीता जी आपका बहुत धन्यवाद!
Deleteबहुत ही सुंदर कहानी
ReplyDeleteदिल को छूती, सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteकितनी गहन मर्मस्पर्शी कहानी- हार्दिक बधाई कल्पना जी
ReplyDeleteकहानी नानी की हँसी पर है परंतु आँखें नम कर जाती है। पढ़ते पढ़ते अपने आसपास की उन वृद्ध औरतों के चेहरे नजर आते चले गए जो कमोबेश नानी के ही हाल में हैं। नानी की तरह वे हँसती नहीं हैं और रोना भी भूल चुकी हैं। वृद्धावस्था में शरीर का कष्ट उस पर आँखों का ना होना, स्थिति को कितना दयनीय बना देता है।
ReplyDeleteबहुत ही हृदयस्पर्शी लाजवाब कहानी
ReplyDeleteअद्भुत शिल्प सौंदर्य।
👏👏🙏🙏
बहुत मार्मिक कहानी कल्पना जी, आँखें नम हो गई l नानी की हँसी और उनका दुख, माँ और नानी का वार्तालाप आपने जिस तरह से दर्शाया वो भावुक कर देने वाला है l कई पंक्तियाँ इतनी सघन हैं कि देर तक मन में चलती रहेंगे , बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteआप सभी साहित्य प्रेमियों के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ .
ReplyDeleteदिल को छुति सुंदर कहानी।
ReplyDeleteहँसी के पीछे छिपी रूदन की मार्मिक कहानी...
ReplyDelete