आख़िरी सिगरेट
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चित्र : अनुप्रिया |
सच कहूँ मुझे आज तक तुम्हारा बेफिक्री वाला वो कंधा हासिल नहीं हो सका
है। जो प्रेमिकाओं को अनायास हासिल होता है। जिस पर वे सिर रखकर घंटों हँस या रो
सकती हैं और उनके प्रेमी ‘पेम्पर’ करते हुए उनसे कोई सवाल नहीं पूछते। मैंने भी वही सोचा था कि जब कभी मेरे
जीवन के धागे कमजोर पड़ने लगेंगे तो तुम बिना ‘जजमेंटल’ हुए मुझे अपने सीने में छिपा लिया करोगे। तब देर तक मैं तुम्हारी प्रेमिल
धड़कनों की धुक-धुक सुना करूंगी।
विशिष्ठ प्रेमी की तरह तुम मुझे अलमारी से अपनी पसंद की ड्रेस निकाल कर ये
कहते हुए दिया करोगे,”सारिका,ये पहनो न! इसमें तुम बहुत सुंदर दिखती हो।” मैं
शरमाते हुए तुम्हारी आँखों में अपनी छवि देख, तुमसे लिपट जाया करूँगी। फिर तुम
मुझे घुमक्कड़ी आशिक की तरह कहीं दूरSS नदी के किनारे घुमाने
ले जाओगे। नदी के बेफ़िक्र प्रेमी किनारों को लोढ़ती मखमली हवा हमसे सरगोशियाँ
करेगी। उसकी रेशमी छुवन में इतराते जंगली सफ़ेद फूलों में से एक फूल चुनकर तुम
मेरे जूड़े में टाँक दोगे और मैं नदी के पानी पर पड़ती अपनी युगल परछाईं को काँपते
हुए बहुत देर तक निहारती रहूँगी। काश! तुम समझ पाते कि वे बातें जो तुम्हारे लिए
तुच्छ फंतासी रहती आई थीं, मेरे लिए जीवन रूपी वीणा से निकली सुरीली धुन थी।
खैर, उसे जाने दो और अभी देख लो। मैंने तुमसे
कहा कि चलो खुशनुमा मौसम है कहीं घूम आते हैं। बिना मेरी बात पूरी सुने तुम पीछे
के वर्षों में की गयीं हमारी सारी यात्राएँ गिनाने बैठ जाते हो। “अरे बाबा! पहले सुन तो लेते। उस तरह के भ्रमण की बात मैं कह ही नहीं रही
हूँ। मैं तो बस यहीं किसी पार्क में…!” कहकर मैं अपने जीवन की विडम्बना
पर फिक्क से हँस पड़ती हूँ। उसपर तुम खिसिया पड़ते हो। तुम्हें लगता है कि मैं
तुम्हारा मज़ाक बना रही हूँ।
फिर जैसे-तैसे बाहर निकलने का मुहूर्त यदि बनता है तो तुम ज्यों के त्यों
कपड़ों में बाहर चलने के लिए मुझसे जिद करते हो। मैं कहती रहती हूँ कि जब तुम बाहर
निकला करो तो अपने आपको थोड़ा ठीक-ठाक कर लिया करो। एक तो ढलती उम्र ऊपर से निकली
हुई तुम्हारी तोंद, लोग देखेंगे तो क्या
कहेंगे? “बच्चे परदेश में करोड़ों कमाते हैं; माता-पिता! जैसे उजड़े चमन…।” आखिर अब अपनी-अपनी
देख-रेख के सिवा हमारे पास काम ही क्या बचा है!
उस पर तुम दो बार अपने पेट को सहलाते हुए मुझसे कहते हो कि “सब कुछ तो ठीक है। कहाँ निकली है मेरी तोंद? मैं तो हमेशा से स्मार्ट दिखता रहा हूँ और दिखता रहूँगा। तुम्हें विश्वास
न हो तो बोली लगा कर देख लो। घटे दर पर सही, अभी भी बिक सकता हूँ। तुम्हें ईर्ष्या
तो होगी लेकिन कहे देता हूँ कि अभी भी मुझे कोई हसीना मिल सकती है।“ तुम्हारा अपने प्रति जरूरत से ज्यादा बड़ा आत्मविश्वास देख मुझे हँसी आ
जाती है। जिसे मैं तौलिया से मुँह पोंछने के बहाने छिपा लेती हूँ। सोचकर ये कि कहीं
तुम चिढ़ न जाओ। और तुम्हारी खुशफ़हमी पर अपना माथा पकड़ लेती हूँ। लेकिन तुम पर उसका
कोई असर नहीं पड़ता।
चलो बातें तो बहुत हुईं। अक्टूबर की खुनक हवादार शाम है; कहीं सैर कर, मौसम का लुफ्त उठाते हैं। मैं तुमसे जब ये बात कहती हूँ तो तुम बिना सुने ही सिरे से मेरा प्लान नज़रअंदाज कर देते हो। मैं फिर तुम्हें मानते हुए कहती हूँ।
”चलो न! कुछ अपनी कहूँगी, कुछ तुम्हारी सुनूँगी। घर तो वैसे भी हमें अपनी
गोद से उतारने का नाम नहीं लेता।”
इतने पर भी तुम त्वरित हाँ नहीं कहते। बल्कि पहले खूब भाव खाते हो फिर
मेरे ऊपर एहसान जतलाते हुए चप्पल ढूंढने लगते हो। क्योंकि तुम जानते हो, मुझे
पटर-पटर चप्पल चटकाते हुए सड़क पर चलना बिल्कुल पसंद नहीं। मैं तुमसे कहती हूँ कि
चप्पल की जगह बिना लेस वाले ‘स्नीकर’
जूते और शरबती रंग वाला कुर्ता पहन लो जो मुन्ना ने जर्मनी से भेजा
है। तुम उस कुर्ते में मुझे बहुत अच्छे लगते हो। सुनते ही तुम बिदक कर कहते हो,”ये उम्र! और ये बातें! इस उम्र में क्या अच्छा, क्या
बुरा।” फिर मेरे साथ-साथ जर्मन के व्यापारियों को खचेड़ी
ध्वनि में कोसने लगते हो।
"जर्मनी का कुर्ता! सब माल भारत से जाता है। साले क्या जाने, जर्मनी वाले कुर्ता-पायजामा पहनना और बेचना।"
मैं तुम्हारी बेपरवाही घमंडी तान पर चिढ़ जाती हूँ। तुम चिढोगे इसलिए जान-बूझकर बाहर जाने का भाव त्यागती नहीं हूँ। तो तुम मेरा मन खराब करने का यत्न करते हो। और अपना मन पसंद खेल युद्ध-युद्ध खेलने लगते हो। उस के बाद यदि मन पर खिन्नता ज्यादा हावी हो गयी तो हम अपने-अपने कोने पकड़कर बिसूरने बैठ जाते हैं। क्योंकि हर वक्त उदारता दिखाने का ठेका मुझे तो मिला नहीं है। प्रोग्राम रद्द होने का तुम्हें ज़रा-सा भी मलाल नहीं होता है। तुम मस्त होकर टी.वी. देखने लगते हो। मेरा दिमाग़ ढेरों-ढेर जीवन के उबाऊ वाक़ये निकालकर मेरे सामने पटकने लगता है। देखते-देखते मेरे ‘मूड’ का सत्यानाश हो जाता है। लेकिन तुम्हारे व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आता। तुम पाँव पर पाँव चढ़ाये यथास्थान लेटकर मोबाइल पर उंगलियाँ फेरते हुए मुस्कराने रहते हो।
मेरे भीतर सोयी-सी झुंझलाहट उबलने को हो पड़ती है। गुस्सा उबलकर मेरा मन
खराब करे उसके पहले मैं उस जगह को छोड़कर घूमने के लिए तैयार होने चली जाती हूँ।
तुम अपनी जगह पर नहीं रुकते; मेरे
पीछे आकर मुझे उकसाने लगते हो। और अपनी सुबह से पहनी टी-शर्ट जिसने दाल, रायता और चाय सब कुछ थोड़ी-थोड़ी चखी होती है। उस पर बाथरूम ‘स्लीपर’ पहनकर
मुझे सलाह देने के लिए उतावले हो पड़ते हो कि जो कुर्ता मैंने सुबह से पहन रखा है,
उसी के ऊपर कोई भी चुन्नी ओढ़कर तुम्हारे साथ चल पडूँ।
क्योंकि तुम्हारे अनुसार अब मैं सोलह साल की सलोनी युवती नहीं रही इसलिए
सजने-संवरने का सवाल मेरे मन में पैदा ही नहीं होना चाहिए।
शायद तुम वे दिन भूल गए जब अपनी माँ के सुर में सुर मिलाकर कहा करते थे,"सारिका ये उम्र बच्चे पालने की होती है, सजने-संवरने के लिए जिंदगी पड़ी है। जब ये बड़े हो जाएँ तो सजी-धजी बैठी
रहना।"
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चित्र : अनुप्रिया |
मैं खुशी-खुशी तुम्हारी औलाद के पोतड़े धोने में अपना कीमती दिन खर्च कर
देती रही। सारा-सारा दिन शीशा क्या होता है, जाना ही नहीं। लेकिन तुम तब भी और अब
भी, मुझे सोलह साल की ही दुहाई देते जा रहे हो। मैं ऊब कर बुदबुदाती हूँ। तुम मेरे
एक-आधे शब्द से अंदाजा लगाते हुए कि मैं वही कह रही हूँ जो तुम समझ रहे हो।
देखते-देखते भारी मात्रा में तुनक जाते हो और बाहर की ओर दौड़ पड़ते हो। मैं जूते
पकड़े-पकड़े तुम्हारे पीछे दौड़ती हूँ, लेकिन तुम्हें जूते पहनाने में असफल ही रह जाती हूँ। जबकि तुम हमेशा
बेढंगे कपड़े पहनकर ही मेरे साथ चलते हो। मैंने तो तुमसे कभी नहीं कहा कि मैं पति
के साथ घूमने जाना चाहती हूँ, किसी बावर्ची के साथ नहीं। फिर
भी सोलह साल वाला ताना मारे बिना तुम्हारा पेट भरता ही नहीं। बच्चे भी मुझसे ही
कहते हैं।
“जस्ट चिल माम! जो समझ सकता है उसी को समझाया जाता है।”
मैं सोचती हूँ कि आख़िर तुम कब समझदार बनोगे! जो बच्चे तुमको भी कुछ समझा
सकें। और मैं अपने होने का आस्वाद लेते हुए तुम्हें अपनी गलती स्वीकारते हुए देख
सकूँ। इतना सुनते ही तुम चिढ़कर अपने पाँव पटक कर कहते हो, "जो करना है करो, नहीं तो जाओ मरो।”
वैसे भी सही बात तुम्हारे पास होती कब थी; जो अब होगी! इसलिए अपनी बेतुकी भड़ास मुझ पर निकालते हो और मैं,
"क्यों भई? मैं क्यों मरुँ! मैं तो भरपूर
जियूँगी" कहकर अपना काम चला लेती हूँ क्योंकि
हमारे यहाँ पति, पत्नी से मरने-कटने की बात कह सकता है लेकिन
पत्नी नहीं। क्या घर का माहौल शांत रखना सिर्फ मेरा ही कर्तव्य है? मेरी इस बात पर तुम बड़ी-बड़ी आँखें तरेर कर मुझे खा जाने वाले अंदाज़ में
देखते हो। मैं मौके की नज़ाकत देखते हुए दरवाज़े की ओर बढ़ जाती हूँ। तुम भी बाहर
निकलते हो और मैं चुपचाप ताला डाल कर तुम्हारी बेरुख़ी क्रिया-कलापों को दरकिनार कर
तुम्हारे साथ छत्तीस के आँकड़े को अपनी नियति मानकर घूमने चल पड़ती हूँ।
सोसायटी से निकलकर थोड़ी देर में सन्नाटे से भरे मन लेकर हम सड़क पर चल रहे
होते हैं। बिल्कुल “दो अंजाने शहर में…!” वाली तर्ज़ पर। तुम अपनी लंबी-लंबी ‘फ्लैमिंगो’
यानी राजहंस जैसी टाँगें घसीटते हुए तेज़ कदमों से आगे-आगे चलते चले
जाते हो, बिना ये ख्याल किए कि मैं भी तुम्हारे साथ हूँ। जिसके घुटने अब उतने
अच्छे नहीं बचे हैं, जितने हुआ करते थे। मैं तुम्हारी शर्ट का
कोना बमुश्किल पकड़ कर आँखों से धीरे चलने का आग्रह करती हूँ। लेकिन तुम तब और रौब
में आ जाते हो। कुल मिलाकर पाँवों को लथेड़ते हुए मैं तुम्हारा साथ मुश्किल से पकड़
पाती हूँ।
सड़क पर हम साथ-साथ तो चल रहे होते हैं। लेकिन मज़ाल है कि तुम्हारा साथ
रत्तीभर मुझे महसूस हो जाये। हम दो होकर भी अकेले-अकेले चलते रहते हैं, मीलों। मेरे सिवा सड़क पर चल रहे सभी लोग मुझे जोड़े में
दिखने लगते हैं। और इस बिना पर मेरे भीतर दुःख की सूखी दरारों में पीड़ादायक स्राव धीरे-धीरे रिसने
लगता है। मेरे साथ की गयी तुम्हारी कठोरता मेरे आगे-आगे मुँह चिढ़ाते चलती है।
लेकिन तुम्हारे भौंडेपन को जीवन का हिस्सा मानकर हमेशा की तरह इस बार भी मैं ही तुमसे
कहती हूँ।
"सुनो न! कुछ बोलोगे नहीं?"
"क्या बोलूँ?"
"कुछ भी। जो तुम्हें अच्छा लगे।” मैं कहती हूँ। और
मुस्कराने का उपक्रम करती हूँ।
“सच पूछे कोई तो मुझे कुछ भी बोलना अच्छा नहीं लगता, अब
तुम ही बोलो। क्या तुम चुप रह सकती हो?”
“ये बात मैं जानती हूँ। लेकिन लोग क्या सोचेंगे दो अजनबी साथ-साथ…।"
"सोचने दो सालों को। किसी के दिमाग से हम थोड़े ही चलेंगे। कहो तो मैं घर
लौट जाऊँ और तुम किसी ‘फेयर एंड हैंडसम’ के साथ हो लो और जीवन का लुत्फ़ उठाओ।"
"मैंने ये कब कहा कि तुम किसी और के मन से बोलो लेकिन कुछ अपना-सा तो कह ही
सकते हो। मुझे अच्छा लगेगा।”
“तुम्हें अच्छा लगाने का ठेका नहीं ले रखा है मैंने।“
मैं बिना गलती किए भी तुम्हें मनाने लगती हूँ। और तुम मुझसे कहते हो,“सारिका उम्र का ये वक्त तुम्हारे शांत रहने का है इसलिए
तुम कम बोलना सीखो और मुझे भी रहने दिया करो।”
तुम्हारी तुनक मिज़ाजी से थोड़ी देर मुझे कोई बात समझ नहीं आती लेकिन मन में
घुटन को नकारने की जिद फिर कुलबुलाने लगती है और मैं अपने भीतर की चहल-पहल समेटते हुए फिर से बोल पड़ती हूँ।
“क्यों! तुमसे एक बात पूछूँ?
"हाँ पूछो।"
"ये प्रेमी जोड़े जो पार्क में बैठे हैं, ये आपस में क्या बातें करते होंगे? किस
विषय पर ये इतना चहक़ते हैं? बड़ा मन करता है, उनकी बातें
जानने का।” कहते हुए मैंने अपनी ओर वाला तुम्हारा हाथ छूना
चाहा लेकिन तुमने उसे ही ऊपर उठाकर बाल संवारने का अभिनय किया। मैं मौन हो तुम्हें
देखती रह जाती हूँ।
“रचा लो न प्रेम! किसी से। सब कुछ ठीक से समझ सकोगी। बड़े आए प्रेमी जोड़े…।”
तुम कहते कम, भड़क ज्यादा उठते हो और ऊँचे स्वर में कहते हो,”थोड़ा कम बोला करो देवी जी। घूमने आई हो तो घूम लो न! जी भरकर,
मेरा दिमाग़ मत चाटो।"
बड़बड़ाते हुए तुम छिटक कर दूर चलने लगते हो। तुम्हें मनाने के लिए या अपना
मन अच्छा रखने के लिए तुम्हारा हाथ पकड़ने के लिए मैं फिर से लपकती हूँ। इस बार
मेरी ओर वाले हाथ में तुम जानबूझकर सिगरेट सुलगा लेते हो। चिंगारी के भय से मैं
तुमसे थोड़ा फासला बना कर चलने लगती हूँ।
हद तो तब हो जाती है जब पतले से फुटपाथ पर उल्टी दिशा से आने वाले पदयात्री
को तुम किनारे से जगह न देकर, हमारे
बीच से निकलने की जगह दे देते हो। मेरा मन खीझ के साथ कचपचा कर रह जाता है। लेकिन
आज तक मैं तुमको ये कहाँ समझा पाई हूँ कि दो के बीच में किसी तीसरे को निकलने की
जगह मत दिया करो, रिश्ते की बरकत चली जाती है। हालाँकि वो
अलग बात है कि हमारे रिश्ते में बरकत बची ही कितनी है!
इसके बावजूद मेरा मन तुम्हारी मृदुलता के लिए फिर तड़प उठता है। मैं चाहती
हूँ कि तुम पार्क में किसी कदम वृक्ष के तले…' नहीं, तुंरत मुझे ध्यान आता है कि कदम तो जमुना के
तीर पर होते हैं। और वैसे भी हम राधा-कृष्ण तो हैं नहीं। कोई बात नहीं। किसी कनेर
के नीचे ही सही, तुम्हारे हाथों में हाथ रखे आसमान पर तारे
निकल आने तक मैं तुम्हें देखती रहूँगी। लेकिन जब मैं तुम्हारी ओर देखती हूँ तो
तुम्हारी पुतलियों में अजीब सा चौकन्नापन मुझे महसूस होता है। जैसे कोई शिकारी
चाक्षुक निशाना साध रहा हो। जो बातें मैंने तुमसे कही ही नहीं थी। तुम मेरे
अंतर्मन को भी पढ़ लेते हो। और त्वरित मेरी योजना को सिरे से स्थगित कर पार्क के
वीराने कोने की ओर कान में ईयरफ़ोन ठूँस कर लपक लेते हो।
हवा पेड़ों पर कुलांचे भर रही होती है। लेकिन मेरे मन में ख़ुशी कभी नहीं भर
पाती। कुछ पंछी डालियों पर जोड़े बनाकर बैठकर संध्या मनाते हुए चहचहाते हैं। मैं
कभी भी तुम्हारे साथ खुशी से चहक नहीं पाती हूँ। फिर भी मैं तुम्हें अपने वक्त में ‘इनवॉल्ब’ करने की पूरी चेष्टा करती
रहती हूँ। यही हम औरतों को घुट्टी में पिलाया जाता है, शायद!
खैर, मेरा मन तुम्हारे मन में कभी अटा ही नहीं सो तुम गंगापारी कौए की तरह
अपनी टेढ़ी चाल चलते हुए आगे-आगे दौड़ते चल पड़ते हो। इस पर मैं अपने आप में फुसफुसा
कर मैं कहती हूँ,"दिन कितना ही बलवान
क्यों न हो, उसे भी ढल कर नरम तो होना ही पड़ता है। तुम हो
क्या चीज़, एक दिन…।" मेरा फुसफुसाना भी न जाने तुम
कैसे सुन लेते हो! पीछे की ओर कंधे झुकाते हुए मुझे ताना मारते हो।
"कभी दिमाग को चैन से भी रहने दिया करो और अपने मुँह को भी। हमेशा बक बक..।"
इतना कहने के बाद भी तुम गुस्सेल कनखियों से मुझे देखते हो जैसे जमकर लड़ना
चाहते हो। मैं अपना सिर नीचे की ओर झुका लेती हूँ। तुम अपने हाथों को छाती पर
बांधकर आगे-आगे निकल जाते हो,निचाट
अकेले। मैं कभी तुमको तो कभी पार्क में घूमते अधेड़ दम्पत्तियों को देखकर कुढ़ने
लगती हूँ। गहरी उदासी मेरे जी को छीलने लगती है। बहुत देर चुप रहने का भाव जब मुझे
तोड़ने लगता है तो ये सोचकर कि शायद अब तुम ठीक से ‘रिएक्ट’
करोगे, मैं कहती हूँ।
"ऐ सुनो न! कुछ तो बातें करो प्लीज़! सब हमारी तरफ ही देख रहे हैं। हम
कितने अजनबी और अकेले लगते होंगे उन्हें l लोगों को भी लगना
चाहिए कि आख़िर हम पति-पत्नी हैं !"
"किसी को फुर्सत नहीं तुम्हें देखने की, समझी महरानी!
या फिर तुम ऐसा करो कि एक तख्ती बनवाकर अपने गले में लटका लो। उसी पर मोटे-मोटे
अक्षरों में हमारे नाम लिखवा दो कि हम सगे पति-पत्नी हैं। बात करती हो...।"
तुम व्यंग में होंठ टेढ़े कर ऐसे हँसते हो जैसे मैं नई-नई ब्याहकर तुम्हारे
घर आई थी तब हँसा करते थे। तुम्हारी भाषा से पूरी तरह परिचित हुई नहीं थी। तुम
अपने भाई-बहनों के साथ हँसते-हँसते मेरी खूब मखौल उड़ाया करते थे। मैं तब भी झेंप
कर पानी-पानी हो जाती थी,अब भी इधर-उधर देखने लगती हूँ; किसी ने मेरी बेहूदी बातें सुन तो नहीं लीं।
"देखो, सामने देखो न! हमारी उम्र के ही होंगे वे
दोनों। कैसे एक दूसरे पर आँखें बिछाए बैठे हैं। एक हम हैं।" मैं अपनी बात सही साबित करने के लिए आवेशित हो उठती हूँ।
"फिर वही बात कर दी तुमने। चोचले करते हैं सब के सब...। भीतर कुछ और बाहर
कुछ और होते हैं। शांति रखो…।"
तुम्हारे इस तरह कहने के बाद मेरे सारे प्रयत्न चुक जाते हैं। मन क्या!
मेरे तो दांत खट्टे हो जाते हैं। हम दोनों के बीच हमेशा की तरह गहरा मौन अपनी जगह
ले लेता है। मैं पगडंडियों पर चलते हुए चीटियों की कतारों में रानी चीटी को खोजने
लगती हूँ। हज़ारों के साथ रहकर भी वह कितनी अकेली होती है। पेड़ की हर शाख मुझे
मुरझाई और अकेली-सी महसूस होने लगती है। लेकिन तुम्हारे ऊपर मेरे ‘लगने’ का कोई असर नहीं दिखता है।
"चलो, घर वापस चलते हैं,मुझे अब और नहीं घूमना।"
मैं अपना मन मारकर तुमसे कहती हूँ।
"क्यों? दो, चार सप्ताह का इकट्ठा घूम लो। हाल फिलहाल
मुझसे कह मत देना...।"
"नहीं कहूँगी।"
और इस प्रकार हम लोग हल्के होने की जगह मन को और भारी लेकर घर लौट आते हैं।
मैं फिर से ताला खोलती हूँ। पीछे-पीछे तुम घुसकर टी. वी. के आगे सोफे पर मुस्कराते
हुए फैल जाते हो लेकिन मुझे रसोई की ओर प्रस्थान करना होता है।
"घूम आई या दुःख समेट लाई?"
रसोई के कोने से जैसे एक व्यंग्यगित स्वर उठा और बर्तनों में बिला गया। मन
भांय-भांय बज उठा। सोचा खाना-पीना स्थगित कर जाकर लेट जाऊँ। फिर याद आया
गुड्डी-बीनू तो अपने में व्यस्त हैं लेकिन मुन्ना, रोज़ नौ बजते ही फोन लगाता है। ध्यान आते ही हाथ अपनी लय में आ जाते हैं।
खाना मेज पर लगा कर मैं तुम्हें आवाज़ देती हूँ। तुम किसी पुराने क्रिकेट मैच का
आखिरी ओवर देखकर ही उठोगे, कहते हो।
"मन करता है कि मैं खाना खाकर सोने चली जाऊँ।" मैं
थोडा झुँझलाकर ऊँचा कहती हूँ।
"किसी ने रोका है क्या! चली जाओ!" तुम कहते हो।
कसैले मन से प्लेट उठाकर मैं रूमाल से पोंछने लगती हूँ। बहुत देर बाद तुम
अपने होने के रुआब में भरे हुए गजगामिन चलते हुए खाने की मेज़ पर आते हो। मैं दो
प्लेटों में खाना निकाल तो देती हूँ लेकिन अपने गले में सूखे आँसुओं के गोले को
अटका-सा महसूस करती हूँ इसलिए अपनी प्लेट ढँक कर मैं बड़े बर्तनों में पानी भरने
के लिए किचन की ओर बढ़ जाती हूँ। सोच कर ये कि सुबह बर्तन यदि सूखे मिले तो कांता
बाई से कौन उलझेगा। बड़ी मूड़ी है वो भी। मुझे जो मिला, ऐसा ही मिला। मैं तुम्हें कनखियों से देखती हूँ। तुम अपने
साथ खुशी-खुशी भोजन करते रहते हो।
"अरे रे रे धीरे से।"
"....."
“मुझे सिंक में मत डालना प्लीज़। रात भर पानी में पड़े-पड़े मेरी देह अकड़
जाती है।"
मुझे महसूस हुआ कि बर्तन मेरे मन को गुदगुदाना चाहते हैं। नन्हीं-सी हँसी
के साथ मैं काँच के नीली आभा लिए डोंगों को धोने लगती हूँ। जैसे वे बर्तन नहीं
मेरे बच्चों के चेहरे हों। रसोई से लौटकर मैं देखती हूँ कि डाइनिंग एरिया में लगे
सफेद नेट के पर्दों से उलझ कर चाँदनी झाँक रही है। उसका दूधिया उल्लास छलका जा रहा
है। खाना ढँका छोड़कर मैं झटपट अपने बेडरूम की ओर बढ़ जाती हूँ। और बेड के पास वाली बड़ी
खिड़की खोल देती हूँ। श्वेत अभ्रांत चाँदनी चुलबुले खरगोश-सी उछल कर ‘बेड’ पर आ गिरती है।
गुलाबी चादर पर चाँदनी के छोटे-छोटे टुकड़े मेरे मन में रेशमी थरथराहट भरने
लगते हैं। मैं शाम का सारा गुस्सा किनारे रखकर तुम्हारी ओर फिर से प्रेम से देखना
चाहती हूँ। लेकिन तुम अपनी पौरुषी कठोरता में लिप्त ही दिखते हो। तुम्हारे ऊपर कोई
मौसम जादू नहीं बिखेर पाता है। थोड़ी देर खिड़की के पास रुक कर तुम अपनी सिगरेट की
डिब्बी उठाते हो और मैं नाइट क्रीम की ओर हाथ बढ़ाती हूँ। तुम मेरी ‘सेल्फ़ केयर’ को हमेशा की तरह खिल्ली
उड़ाने वाली दृष्टि से ही देखते हो। उस वक्त चाँदनी रात में तुम्हारी आँखें मुझे
बिल्ली की तरह लगती हैं। ऐसे मौकों की तलाश तुम्हें सदैव रहती आई है। मैं जानती
हूँ। लेकिन तुम कुछ कह पाते इतने में मुन्ना का फोन बज उठता है।
“हैल्लो ममा! कैसी हो?”
“अच्छी हूँ बेटा!”
“आज आप इतनी मरी-मरी सी आवाज़ में क्यों बोल रही हो, ममा
?”
“कुछ नहीं बेटा! मेरा माइग्रेन मुझे बहुत दुःख देता है। अच्छा छोड़ो। ये
बताओ, बहू और मेरी छुटकी तारा कैसी है?”
“ममा, हम सब लोग मजे में हैं। डैड से बात कराओ। कहाँ है वे?”
“ये रहे तेरे डैड! ऐ सुनो! मुन्ना...।”
“कह दो उससे, हम ठीक हैं। वह भी अपना काम-धंधा देखे,
और जिंदगी को मज़े से जिए!”
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चित्र : अनुप्रिया |
फोन लाउड-स्पीकर पर था सो उसे बताना नहीं पड़ा। उल्टे बेटा मुझसे ही बोल
पड़ता है। ममा मैं समझ गया; आज आप दोनों में झगड़ा
हुआ है न! कितनी बार आप से कहता आया हूँ; जैसे डैड अपनी पसंद
का पूरा ध्यान रखते हैं। उसी तरह आप भी अपने से प्यार करना सीखो। उनके पीछे पड़ना छोड़
दो। अपने जीने के लिए नए-नए साधन खोजना सीखो। जो किताबें मैंने आपको दी हैं उनको
पढ़ो। ममा! फॉर अस यू आर वैरी प्रीसियस! डैड को छोड़ दो उनके हाल पर। ही विल
मैनेज…!”
हालाँकि बेटा बड़ी आत्मीयता से मुझसे कहता जा रहा था लेकिन ज़हर भरे प्याले
में अमृत कहाँ अटता है! अब उसे कोई बताये कि छोड़ने का जिम्मा सिर्फ उसकी ममा का ही
थोड़े है। जब देखो तब कभी इसको छोड़ दो तो कभी उसको। अब वह तो ठहरा बच्चा! उसे कैसे
बताती कि तुम्हारे डैड के अक्खड़पन के साथ बाँधकर सबने मुझे छोड़ दिया है। अब बचे वे
ख़ुद तो क्या उन्हें भी मैं अकेला छोड़ दूँ? पर कैसे…!" इस धरती पर जब से आई हूँ, लोग कुछ न कुछ माँगते ही चले जा रहे हैं और मैं उनके लिए छोड़ती।
इतना सब देखने-सुनने के बाद भी तुम खिड़की के पास पड़े गोल स्टूल पर अपने
पाँव पर कोहनी टिकाये पिघलती हुई चाँदनी को दिन की आख़िरी सिगरेट के रिचुअल के साथ
पीते रहते हो। और मैं हारे हुए खिलाड़ी की तरह अपना मुँह तकिया में धंसाए उसे
भिगोने लगती हूँ।
"क्या जिंदगी है हमारी। एक चाँद बाबू हैं, जो अपनी
महबूबा के साथ मस्त हो रंगरलियाँ मना रहे हैं, एक मैं
बेचारा!"
“तुम और बेचारे” सोचते हुए मैं तुम्हारी ओर तल्खी से देखती
हूँ। तुम भी मेरी ओर चेहरा घुमाकर कुछ अलग ही भंगिमा में देखते हुए बेड के अपने
किनारे पर आकर लेट जाते हो। अपनी दाहिनी बांह मेरी ओर पसारते हो फिर समेट कर अपना सिर
रखे थोड़ी देर मुझे अजनबियों की तरह देखते रहते हो। मैं सोचती हूँ कि शायद दिन भर
सताने के बाद तुम मुझसे माफ़ी माँगना चाहते हो। और जब तुम ऐसा करोगे तब मैं तुम्हें
माफ़ करते हुए अपना वह सवाल तुमसे ज़रूर पूछ लूँगी जो संध्या सैर के वक्त पूछना
चाहती थी। लेकिन तुम कुछ मिनटों के बाद करवट बदल लेते हो।
मेरा सवाल वहीं के वहीं सिसकियाँ भरते हुए दम तोड़ देता है। जिसे सोचकर शाम
को तुम्हारे साथ घूमने गयी थी कि पेड़-पौधों से भरे उपवन में। प्रकृति को साक्षी
बनाकर तुमसे आज पूछ ही लूँगी कि "क्या तुम्हें इस उम्र में थोड़ा-सा प्यार हुआ है मुझसे?"
लेकिन नहीं। मुझे मेरे किनारे पर अकेला छोड़कर तुम अपनी नींद की दुनिया में
अकेले प्रवेश कर नाक बजाने लगते हो। मैं सोऊँ या जागूँ तुम्हें कभी फर्क नहीं पड़ा
तो अब क्या पड़ता।
भीगे मन से सोचते हुए मैं खिड़की की ओर देर तक देखती रहती हूँ। मेरी आँखों
के किनारे गीले होने लगते है। मेरे साथ किए गए तुम्हारे वर्तावों को मैं खूब
बीनती-पछोरती हूँ। किंतु कुछ सार्थक ढूँढ नहीं पाती हूँ। रात बढ़ने और पहर बदलने
के कारण चाँदनी के साथ-साथ अब चाँद भी मेरी खिड़की की सलाखों पर लटका हुआ-सा जान
पड़ता है।
चाँद का चेहरा अपने चेहरे पर झुका देखकर मेरी पलकें नरमाहट में उठने-गिरने
लगती हैं। मन भीगने लगता है। एक अबूझी शांतियुक्त लहर मेरे तनाव को घटाने लगती है।
कुछ रेशमी अहसास धड़कनों को छेड़ते हैं। उन्हीं को महसूस करने के द्वंद्व में मेरे
भीतर कुछ काँप उठता है। मैं अपनी आँखें मूंद लेती हूँ।
"चाँदनी मेरे आधीन है। लेकिन अपनी ख़ुशी के लिए वह पूर्ण स्वतंत्र है।"
मुझे लगा जैसे मेरे कानों में किसी ने फुसफुसाकर कीमती-सा कुछ कहा है। मुट्ठियाँ अनायास बँध गयीं, मानो कीमती उपहार को सहूलियत से सहेज लिया गया हो। मैं अपनी चेतना के उजास में ख़ुद को देखती हूँ। और बेड के अपने किनारे पर अपने साथ सोने की कोशिश करती हूँ। पर दृष्टि पटल पर छवि तुम्हारी उभरने लगती है। मेरी असहजता पर नींद की नाव में बैठा नाविक खिलखिलाकर हँसता है। तुम्हारी अनुदारता को झटक नींद की सपनीली दीवार पर मैं अपना हँसमुख चेहरा टाँकने का प्रयास करती हूँ, सोचकर प्रयास ही सफल होते हैं।
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यही तो माया है
ReplyDeleteबहुत सुनदार कहानी कल्पना जी, ऐसा लगा कि सभी औरतों की प्रौणावस्था में मन के झंझावातों का सजीव रेखाचित्र खींच दिया हो l आम औरतें अपने लिए जीना भूल जाती हैं l कई संवाद तो जैसे स्त्री मन के दर्पण की तरह हूबहू उतार दिए आपने l स्त्रियों की धुरी पति पर टिकी रहती है और पति यानि पुरुष की दूरी दर्जनों जगहों पर , ऐसे में स्त्री जीवन में एक भयानक निराशा उपजती ही है , खासतौर पर उम्र के इस मोड पर l पर आपने हल भी दिया है l आखिरी सिगरेट में चाँदनी को पीने की खवाइश और प्रयास ही सफल होते हैं में अद्भुत सामी मिलाया है आपने l अपनी चहनाओं के बंधन से कभी तो कहीं से निकलने का प्रयास करना ही होगा उसे l अच्छी कहानी के लिए बधाई
ReplyDeleteअनीता जी और वंदना जी आप दोनों का बहुत धन्यवाद .
ReplyDeleteआपकी कहानी पढ़ी। बात शीर्षक और कहानी के आरंभ से।
ReplyDelete'आखिरी सिगरेट', सिगरेट आधुनिक कवियों का प्रिय प्रतीक रहा है। एक कविता याद आती है -
जलती सिगरेट पूछती है मुझसे/ 'जलना' कब छोड़ोगे।
आपकी कहानी का उन्वान भी जिंदगी के इसी सच को बयां करता है और वही कहानी का आरंभ भी करवाता है -
'समय अच्छे अच्छों को बदल देता है।'
जिस उम्मीद के साथ कहानी शुरू होती है वह उम्मीद अंत तक कहानी में बनी रहती है।
जीवन का उत्तरकाल मनुष्य के लिए सबसे ज्यादा अहमियत रखता है। यह मनुष्य जीवन का वह दौर है जब वह जीवन अपने जीवन साथी के साथ बिताना चाहता है पर इस समय जब उसे हमेशा जीवन साथी के दुर्व्यवहार,दुत्कार और उसकी उदासीनता मिलती तब वह उस समय का इंतजार करता है कि कभी तो आयेगा वह वक्त जब वह अपनी इच्छाओं को पूरा होता देखेगा।
कहानी की नायिका सारिका भी इसी उम्मीद में पूरी कहानी में जीती नजर आती है।
एक तरह से यह कहानी मनोविज्ञान के साथ साथ समय का रिश्तों पर पड़ने वाले प्रभाव को भी रेखांकित करती है।
कोराेना काल के बाद देखा जाए तो मनुष्य के जीवन में एक बड़ा बदलाव आया है। वह जितना अकेला और संवेदनशून्य हुआ है उतना शायद ही कभी हुआ था। सारिका के दांपत्य पर यह स्थिति पूरी तरह से हावी है। फिर भी उसके व्यवहार के प्रति सारिका की सादगी जिंदगी के अंतिम दिनों में ' प्रयास ही सफल होते हैं' की उम्मीद के साथ एक नई सुबह के लिए तैयार दिखती है।
जीवन के आखिरी दौर में एक स्त्री के मनः स्थिति को आपने जिस संजीदगी से उकेरा है वह अपने आप में पूर्णता लिए हुए है।
एक अच्छी कहानी के लिए लेखिका को बधाई। भविष्य की कहानियों की प्रतीक्षा में...
आपकी कहानी पढ़ी। बात शीर्षक और कहानी के आरंभ से।
ReplyDelete'आखिरी सिगरेट', सिगरेट आधुनिक कवियों का प्रिय प्रतीक रहा है। एक कविता याद आती है -
जलती सिगरेट पूछती है मुझसे/ 'जलना' कब छोड़ोगे।
आपकी कहानी का उन्वान भी जिंदगी के इसी सच को बयां करता है और वही कहानी का आरंभ भी करवाता है -
'समय अच्छे अच्छों को बदल देता है।'
जिस उम्मीद के साथ कहानी शुरू होती है वह उम्मीद अंत तक कहानी में बनी रहती है।
जीवन का उत्तरकाल मनुष्य के लिए सबसे ज्यादा अहमियत रखता है। यह मनुष्य जीवन का वह दौर है जब वह जीवन अपने जीवन साथी के साथ बिताना चाहता है पर इस समय जब उसे हमेशा जीवन साथी के दुर्व्यवहार,दुत्कार और उसकी उदासीनता मिलती तब वह उस समय का इंतजार करता है कि कभी तो आयेगा वह वक्त जब वह अपनी इच्छाओं को पूरा होता देखेगा।
कहानी की नायिका सारिका भी इसी उम्मीद में पूरी कहानी में जीती नजर आती है।
एक तरह से यह कहानी मनोविज्ञान के साथ साथ समय का रिश्तों पर पड़ने वाले प्रभाव को भी रेखांकित करती है।
कोराेना काल के बाद देखा जाए तो मनुष्य के जीवन में एक बड़ा बदलाव आया है। वह जितना अकेला और संवेदनशून्य हुआ है उतना शायद ही कभी हुआ था। सारिका के दांपत्य पर यह स्थिति पूरी तरह से हावी है। फिर भी उसके व्यवहार के प्रति सारिका की सादगी जिंदगी के अंतिम दिनों में ' प्रयास ही सफल होते हैं' की उम्मीद के साथ एक नई सुबह के लिए तैयार दिखती है।
जीवन के आखिरी दौर में एक स्त्री के मनः स्थिति को आपने जिस संजीदगी से उकेरा है वह अपने आप में पूर्णता लिए हुए है।
एक अच्छी कहानी के लिए लेखिका को बधाई। भविष्य की कहानियों की प्रतीक्षा में...
बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति।नारी मन की एक एक परतों को खोलता कथ्य। आह भी वाह भी।
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