सहज मन से निकलीं गहन कविताएँ

"बाँस भर टोकरी" कृति की समीक्षक : वंदना बाजपेयी 

"धरती ने जगह दी

पेड़ को

पेड़ ने चिड़िया को

चिड़िया ने आकाश को

मैं भी तलाश रही हूँ जगह अपने लिए

मिलेगी कभी तो करूंगी प्रयास 

पेड़ बनने का "

वह कितना कोमल हृदय होगा जो पाने की जगह पेड़ बन जाने की अभिलाषा रखता होगाl एक ऐसा ही पेड़ साहित्य के आँगन में रोप दिया है अपने कविता संग्रहबाँस भर टोकरीके माध्यम से कल्पना मनोरमा जी ने। जैसा की कविता के लिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी का कथन है कि,जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।

 

कल्पना मनोरमा जी के कविता संग्रहबाँस भर टोकरीसे गुजरते हुए मुझे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के कथन  के अनुसार हृदय की उसी मुक्तवस्था के दर्शन होते रहे हैं जो रसदशा में पाठक के हृदय को अपने में निमग्न करने की क्षमता रखती है। कल्पना मनोरमा की मुक्तछंद शैली में लिखी गई कविताएँ अपने तमाम बिंबात्मक प्रयोगों, कथ्य की गहनता के बावजूद उस कोमलता को बचाए रखती हैं जो उनके हृदय के सहज और सरस भावों के उदगम स्थल से निकल रही हैंl कल्पना कि कविताएँ आज की तमाम बौद्धिक कविताओं से दूर सिर्फ तर्क से नहीं भाव से पाठक मन से जुड़ती हैं। उनकी स्त्री विषयक कविताओं में जहाँ एक ओर सदियों से सताई गई अभिशप्त स्त्री के दर्द की मुखर छटपटाहटें हैं, रूढ़ियों की जंजीरों को तोड़ने की अकुलाहट भी है तो वहीं अतीत और परंपरा से कुछ अच्छा सहेज कर भविष्य को सौंपने की उनकी गंभीरता भी दिखती हैl यहाँ पर उनका स्त्री विमर्श आधुनिक युग के मुखर स्त्री विमर्श का अनुसरण ना करते हुए बौद्ध-दर्शन के सम्यक मार्ग पर चलता नज़र आता है l वे उस बौद्धिक स्त्री की पक्षधर हैं जो आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपने विवेक को नहीं भूलती l उनकी स्त्रियाँ अपनी शिकायत दर्ज कराते हुए भी पारिवारिक सत्ता को जोड़े रखने की पक्षधर हैl लेकिन उनकी कवितायेँ सिर्फ स्त्री तक ही नहीं सिमटती बल्कि विश्व की तमाम समकालीन समस्याओं के प्रश्नों से जूझते हुए अपने पर्यावरण को बचा लेना चाहती हैl

 

कल्पना की कविताओं की सहजता उनके संग्रह में अपनी बात,मन से मन तकमें दृष्टिगोचर होती हैजहाँ वे स्वयं से प्रश्न करते हुए कहती हैं,“कविता की कसौटी पर अपने कवि कर्म को कितना कस  पाई हूँ और कितना छूट गया है, का विश्लेषण आलोचक की भांति विचारों में स्वतः स्फूर्त हो उठता हैl क्या मैं अपने द्वारा देखी, सुनी, जियी और भोगी जिंदगी की छटपटाहटों को कविता में ठीक से निरूपित कर पाई हूँ? क्या किसी मूक उर की वेदना को बिना जजमेंटल हुए कह पाई हूँ? विशृंखलित, अधूरी, बेकल संवेदनाएँ जिन्होंने जाने मेरे कितने पलों का चैन छीनकर उदार मन हो सोने नहीं दिया (क्या मैं उन सब घायल पलों की भावनाओं को कविता के अंतस में सँजो पाई हूँ) .... आज के आत्ममुग्ध समय में एक कवि की यह वेदना उसके अंतस की पीड़ा के उपजे अश्रु-जल से समग्र को हरितिमा प्रदान करना ही होता है l गंभीर साहित्यिक उद्देश्यों को साधने की इतनी निश्छलता ही गहन साहित्यिक कविताओं का गोमुख है l

 

समर्पण पृष्ठ पर ही मेरी दृष्टि दो पंक्तियों पर अटक जाती है ..

 

देहरी के भीतर बनी देहरी

वैसे ही नहीं बोलती बार कमरे के मन की

जैसे इंद्रधनुष में छिपा आसमान

नहीं करता उजागर अलग से

स्वयं को

 

कवि मन इंद्रधनुष के रंगों में डूब जाना चाहता है लेकिन कल्पना जी यदा-कदा दिखने वाले इंद्रधनुष की जगह उस आसमान की पीड़ा से भर उठती हैं जो सदा से सात रंगों को छिपाए हैंl देहरी के अंदर बनी देहरी.. एक स्त्री के सातों रंगों को, नव रसों को उसके अंदर बांधे रखती है l सदैव विद्यमान ये रस यदाकदा फूटता है किसी कविता में l

 

संग्रह की शीर्षक कविताबाँस भर टोकरीपिता  और पुत्री के  रिश्ते को दिखाती एक बेहतरीन रचना है l जहाँ पिता बाँस है और उसकी पुत्री बाँस से बनी टोकरी l बाँस बहुत मजबूत होता है पर उससे बनी टोकरी उसकी बेटी को इस आकार में गढ़ा जाता है कि वो अपनी सामर्थ्य भर वह सब सहेज ले जो उसमें भरा जाता हैl चाहें वो फूल हों, सब्जी भाजी हो या कुछ अन्य सामान..अपनी बेटी में ये स्थिरता सौंपता हुआ  बाँस संतुष्ट होता हैl वह बेटी की विदाई के साथ माठ लेकर उसकी ससुराल भी जाता हैl वो उसकी सहनशीलता और दूसरे परिवार में सामंजस्य को देखकर खुश भी है परंतु जब उसे अपना पोलापन यानी अतिशय अच्छे होने, मौन रहने,पीड़ा सहने पर हारती बेटी दिखती है तो वह कराह उठता है परंतु साथ नहीं छोड़ता। बाँस मृत्युपर्यंत एक स्त्री का साथ निभाता है ..

 

बाँस निभाएगा रिश्ता अपने भर

बेटी की अन्तिम साँस तक

नहीं लौटेगा बाँस छोड़कर अकेला

ब्याही बेटी को ससुराल में

 


इस कविता संग्रह पर समग्र रूप से बात करने के लिए मैंने इसे कुछ खंडों में विभक्त किया है l

 

कल्पना मनोरमा कि कविताओं में स्त्री

 

इस कविता संग्रह की 60 प्रतिशत कविताएँ स्त्री जीवन पर आधारित हैं l कहा जा सकता है कि इसका मूल स्त्री विषयक कविताएँ हैंl जिसका प्रारंभ वो स्त्री की कन्डीशनिंग से करती हैंl मनोविज्ञान कहता है कि किसी व्यक्ति के जीवन के प्रथम आठ वर्ष उसके पूरे जीवन के मनोविज्ञान की आधारभूमि हैl ये इस बात का भी सूचक है कि हमारे ऊपर उन कथित चार लोगों का कितना प्रभाव पड़ता है जिनसे हम गहरे जुड़े होते हैं l इन पर बनाई गई मजाकिया मीम्स से इतर ये जीवन का एक कटु सत्य है

 

वियोगी होगा पहला कवि,आह से उपजा होगा गान,निकल कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान!

 

अनुभूति के कवि सुमित्रानंदन पंत की ये पंक्तियाँ हमें यही बताती हैं कि कविता का जन्म वियोग और आह के बीच होता है लेकिन एक स्त्री के मन से कविता कब फूटी होगी, जिसे सदा होंठ सीने की कला सिखाई जाती रही हैl क्या कविता स्त्री का विद्रोह या दर्द से मुक्ति का एक छोटा-सा प्रयास ? “दोनों के बीचमें वो स्त्री पुरुष के बीच में सीखने और सिखाने वाले का रिश्ता बना बताती हैl विद्रोह से भरा मन जो सिखाने वाले को भी करता है विवश सीखने को तो वह यह कर बच निकलता है कि उसका जीवन कीमती हैl लोक मान्यताओं और खोखली मर्यादाओं में जीवन पर्यंत छला हुआ सीखने वाले का धैर्य तब चुक जाता हैl कल्पना  लिखती हैं...

 

और ऐसे चुक गया वर्षों का धैर्य

सीखने वाले के दिल से एक ही पल में

वह कर नहीं सकी बगावत सदियों से बंद अपने होंठों से

लेकिन उंगलियों ने छेड़ दिया विद्रोह

लिखी एक कविता

और हो गई वह हल्की हो गयी

 

एक स्त्री जीवन में समाज द्वारा, परिवार द्वारा और माता-पिता द्वारा लड़की की कॉन्डीशनिंग इस तरह से की जाती है इस पर कल्पना जी की कई कविताएँ हैं और हर कविता हर स्त्री को जैसे अपनी ही कहानी लगती हैl कविताबोलने की कोशिश मेंएक स्त्री की छटपटाहट हैl स्त्री अब बड़ी हो चुकी है,वह बोलना चाहती है, परिस्थितियाँ अनुकूल भी हैं, पर अपने मन की बात शब्दों में ढाल नहीं पाती इस पर कल्पना लिखती हैं ..

हैरान होकर ढूंढती हूँ कारण

शब्दों में आए अवरोध का

तो पाती हूँ चुप रहने के अनेक आदेशों को

चिपका हुआ बचपन के होंठों पर

 

मुट्ठियों में बंदकविता में वो महान वैज्ञानिक न्यूटन के तीनों नियमों की जीवन के नियमों के साथ तारतम्य स्थापित करते हुए प्रकृति के नियमों के विपरीत कंडीशनिंग की शिकार एक बच्ची की कहानी गढ़ते हुए कलात्मक बिंबों का प्रयोग करती हैं l एक बच्ची की मुट्ठी में कैद नारंगी रंग जिसमें सर्दी में उगते सूरज कि मद्धिम आंच की तरह गर्माहट है l जीवन की उजास के यह रंग उसकी मुट्ठी में कैद है l शीत ऋतु में  उगते हुए सूर्य की गर्माहट की तरह उसकी मुट्ठी में कैद है उसकी प्रतिभा, उसके सपने, उजास जिसे बढ़कर सूर्य हो जाना है, पर ..l न्यूटन के नियम  पके सेब के गिरने से हैं और यहाँ वो बिम्ब पपीते के पकने का लेती हैं l तीन नियम जो विज्ञान की आधारभूमि बने, कोई चीज जड़ है तो जड़ ही रहेगी, दूसरा बाह्य बल और तीसरा क्रिया प्रतिक्रिया का नियम को हरे और पीले पपीते से तुलना करती है, कौवे का बाह्य बल और अंततः पके फल को देखकर बच्ची का उछलना, सारे बिम्ब स्त्री जीवन के बिम्ब हैं l हरे पपीते की तरह सामाजिक व्यवस्था के पेड़ पर टंगी हैं स्त्रियाँ l कोई एक ही पकता है, अपने को व्यक्त कर पाती हैl कौवे की चोंच का बाह्य बल उसके संघर्ष हैं, जिनसे टकराना जरूरी है, यही समझने के लिए, स्थापित करने के लिए अपनी प्रतिभा को l बच्ची का उछलना एक स्त्री के प्रति दूसरी स्त्री की प्रतिक्रिया जो मुट्ठी में बंद करे हैं नारंगी रंगl कल्पना  लिखती हैं ...

 

बच्ची उछल पड़ती है

लेकर मुट्ठी में बंद नारंगी रंग

उसके साथ उछलती हैं

उसकी दो चोटियाँ

आँखों की दो पुतलियाँ

फ्राक का गोल घेरा

और साथ में सहेलियाँ और पेड़ की पत्तियां

घरों के ऊपर बनी अँटियाँ

दान चुगती चिड़ियाँ और गए की बछियाँ

अगर कोई नहीं उछलता

तो वो खेत से लौटते उसके पिता

 

यहाँ पिता पितृसत्ता के प्रतीक हैl सपनों वाली लड़की अपराधी है और अब शुरू होता है सपनों को कुचलने का दौर बच्ची डरी हुई है, कहीं पकड़ न लिया जाएआँखों में बसा नारंगी रंग /और फल पकने का रसीला अनुभवइसके बाद बच्ची की माँ भूल जाती है न्यूटन के सारे नियम... शुरू होती है प्रकृति विरुद्ध कन्डीशनिंगl जिसके बारे में सिमोनदि सेकंड सेक्समें कहती हैं, “लड़कियाँ पैदा नहीं होती बना दी जाती हैं l” यहीं से बच्ची का उछलना, कूदना, बोलना प्रतिबंधित हो जाता है .. मुट्ठी में बंद नारंगी रंग लाल जोड़े में बदल जाता है कविता का अंत कवयित्री एक बेहद खूबसूरत रूपक के साथ करती हैं ...चंचल नदी कैद हुई उस साँझ आँखों के छोटे घेरों में/ कभी ना सूखने के लिएएक बेहद सटीक और मार्मिक उत्तर हैं ये पंक्तियाँ उस शाश्वत प्रश्न का कि स्त्रियाँ इतना रोती क्यों हैंl

 

अपनी कवितास्त्री कोमें वो समाज के उस दोहरे चेहरे के परदे को हटाती हैं जो स्त्री से घनघोर परिश्रम तो करवाता है पर उसे दिक्कत है स्त्री के हँसने बोलने और प्रेम करने से..यहाँ  वो उसे कोमल और भयभीत बनाए रखना चाहता हैl पाश्चात्य स्त्री विमर्श और भारतीय स्त्री विमर्श की तुलना वो गिलहरियों और गौरैया से करती हैं l वैसे इस कविता को केवल स्त्री दृष्टि से ना पढ़ कर मानवीय प्रवृत्ति कि दृष्टि से भी पढ़ा जा सकता है l बड़े फलक की कविताएँ ही पाठक को ऐसी स्वतंत्रता देती हैं l कवितागिलहरियाँमें वे समाज को सचेत करते हुए लिखती हैं...

वो खोज लाएँगी

अपनी जरूरत का सामान कबाड़ से

और तीर लेंगी घोंसला अपना

***

सचेत होने की आहट मिलते ही

भागती हैं दबे पाँव

तुम्हारी नाक के नीचे से

***

गौरैया फुदकती है परात पर

आते की लोई से चाहती हैं वे बस चोंच भर चुग्गा

 

कल्पना इन तमाम कंडीशनिग की बात करते हुए भीअच्छी माएँकविता में कहती हैं, “अच्छी माएँ कोयल नहीं/ बया होती हैंl और अपनी संतान में संस्कार और परंपरा को बोने का कार्य एक माँ का कर्तव्य भी हैl वे कोयल की तरह अपनी जिम्मेदारियों को दूसरों के ऊपर सौंप कर सिर्फ शब्दों की धनी नहीं बनातींl बल्कि संसार के अंदर घर को बनाए रखने के संस्कार भी बुनती हैंl यहाँ कल्पना का स्त्री विमर्श आधुनिक डिस्कोर्स से अल्हड़ पहचान के साथ नजर आता है l वास्तव में आजकल ये गंभीर चर्चा का विषय है कि मार्ग से भटकता विमर्श को एक सही दिशा देना भी साहित्यकार का कर्तव्य हैl कहीं ऐसा न हो कि भोजन, शिक्षा और अर्थोपार्जन के अपने मूलभूत आवश्यकताओं के लिए संघर्ष करती स्त्री के खिलाफ अधिकारों का दुरप्रयोग करती स्त्री ही खड़ी हो जाएl वहाँ स्त्री का बया होना आवश्यक हैl वे लिखती हैं..

 

इसके बदले में माँओं को

प्यार नहीं

मिलती है बेरुखी नाराजगी

बेटियों की तरफ से

लेकिन वे फिर भी गढ़ती रहतीं हैं अपनी ढोलक

अंधेरे खटीक की तरह

लगन और मेहनत से

 

कल्पना की कविताओं में जीवन दर्शन

 

 जो लेखक जीवन को गहराई से देखता है उसकी रचनाओं में उसकी गहन मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण परिलक्षित होती है l कल्पना जी कई कविताओं में जीन का एक्स रे करके कुछ सूत्र पाठक को थमा देती हैंl अपनी कवितारेत होनामें वो लिखती हैं जीवन की उस त्रासदी को जहाँ अपनो से मिलती चोट से जर्रा-जर्रा छीजती सम्बंधों की परतें, मन को तब्दील कर देतीl रेत होना आसान नहीं हैl वहीं कविताभूलनामें वो किसी को भूलने के मनोविज्ञान को समझाती हैं l भूलना दुष्कर इसलिए हैं कि हमें अपने जीवन का वो हिस्सा भी किसी को भूलने के लिए भूलना पड़ता है, जिसको उसके साथ मिलकर साथ-साथ जिया होता है l किसी को भूलना वस्तुतः अपने जीवन को भूलना हैl यहाँ वे जीव के साइको फिजिकल नेचर की बात करती हैंl क्योंकि हम सिर्फ देह नहीं हैं, हम अपनी स्मृतियों से भी निर्मित होते हैं l “लौटती हूँ मैंकविता में एक स्त्री का मायके जाना वस्तुतः अपनी स्मृतियों के कोश में पुन: पुन: स्वयं को पहचानने का प्रयास है l

ठीक वैसे ही लौटती हूँ मैं

उस आँगन में

जहाँ उगाई और रोपी गई थी कभी

बड़े चाव से

 

मिलने अपने उन हिस्सों से

जो रहते आ रहे हैं

हमारे बाद भी उन घरों में

 

प्रेम पर हजारों बातें होती हैं l लेकिन अगर आपका स्वयं का प्याला खाली हो तो आप दूसरों को क्या देंगे अक्सर प्रेम के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें करते रिश्ते को डिपेंडेंट से अधिक और कुछ नहीं होतेl जिसके पास है ही नहीं वो दूसरे को क्या देगा? वो आत्मा में विलगित प्रेम के सामने पुरुष की देह तक टिकी दृष्टि की नींद करने से भी नहीं चूकतींl कविताप्रेमपथमें वो प्रेम की हजारों परिभाषाओं से इतर सेल्फ लव की वकालत करते हुए अपनी परिपक्व मनोवैज्ञानिक समझ को सिद्ध करती हैं l वे लिखती हैं...

निर्मित हुआ घनघोर बारिश के बीच

उसका एक नया प्रेमपथ

स्वयं से स्वयं तक का

वह निकल गई उस मखमली हरी घास से भरे रास्तों पर

कभी न लौटने के लिए

बिना शिकायत किए उससे

जिसने समझ था उसके प्रेम को

देह का व्यापार

 

आज का समय मशीन-सी तेज गति से विकास करता मानव कहीं ना कहीं मशीन बन गया हैl अपनापन एक विलुप्त प्रजाति हैl इसी खोए हुए अपने पन को कविताअपनापनमें लिखती हैं ...

 

कभी पकेगा तो बांटेंगे सभी के साथ

थोड़ा-थोड़ा अपनापन

कीनकी इन दिनों सबसे ज्यादा

कमी खलती है इसी बात की

 

और कविताघमंडी आदमी में लिखती हैं ...

सीखने लगें हैं सगे संबंधी

नजर अंदाज करने का हुनर

हम होने लगे अवसादी अकेले में जब्त

अपनी चिंताओं के साथ

 

कल्पना की कविताओं में  प्रकृति और पर्यावरण की चिंता

 

 कल्पना जी का कोमल कवि हृदय घर-आँगन और रिश्ते-नातों, भावनाओं को ही नहीं सहेजना चाहता अपितु वह पहाड़-पर्वत,नदी-हवा यहाँ तक की अपने आँगन कि गौरैया को भी सहेज लेना चाहता हैसंग्रह की कई कविताओं में उनकी ये छटपटाहट दिखाई पड़ती है l इंसान की स्वार्थपरकता को इंगित करते हुए वो कविता….

आदमी ने देखामें वो लिखती हैं...

नदी इतराई अपनी मिठास पर

बहती गई अपनी अपनी धुन में

आँखें मीचें

कोसी को बना दिया भयानक

 

समुद्र लहराया

अपने नमक पर

लील गया शहर के शहर

 

आदमी ने देखा

और बांध किया दोनों को

स्वादानुसार

 

जंगल काट कर बनते हुए घरों पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए वे करती हैं-

इतनी हाय हुज्जत के बाद भी

घर हैं कि बने जा रहे हैं

जंगल की छातियों पर

अब चिड़िया भी हो जाएगी शामिल

जल्द ही हमारे दुख में

 

कल्पना की कविताओं में समकाल

 

स्त्री, पर्यावरण, रिश्तों की भावनाएँ ही नहीं कल्पना ने समकाल की चिंताओं की गठरी भी अपने कलम के माध्यम से खोली हैl चाहें वो कोरोना की विभीषिका हो, गुलामी की, आधुनिक जीवन शैली की या भाषा कि समस्याl अपनी काव्य कथाभाषा के औजारउन्होंने भाषा और रोजगार के संबंध को गंभीरता से उठाया हैl कैसे एक फल बेचने वाला केले को बनाना कहता है क्योंकि वो जानता है उसकी बिक्री इससे अच्छी हो जाएगी l काव्य कथा आगे बढ़ते हुए शरीफा बेचने वाली शरीफ स्त्री की बात रखती है जो गाँव से आई है और अभी अपनी ही भाषा में फल बेंच रही है, और धूल फांक रही है l मंदिरों में भी पदच्युत हुई संस्कृत की बात करती है l दरसल भाषा भी बाजार के कब्जे में है और अंग्रेजी भाषा ने अन्य भाषाओं का बाजार खरीद लिया है l वे लिखती हैं..

 

इस बेचने और खरीदने के महान दौर में

क्या हम बचा पाएंगे?

अपने आपको पूर्ण भाषित

या गरिमामाई भाषा युक्त अपना व्यक्तित्व

जिसे अगली पीढ़ी को सौंपते हुए

नहीं काँपेंगे हमारे हाथ

 

चींटियाँ कतारों में हैंमें वे एक बिम्ब के माध्यम से बताती है कि आसमान के चाँद पाने के खातिर धरती पर युद्ध जारी हैंl खाई में गिरते बच्चे...जो कि पूरे मानव समाज के भविष्य का प्रतीक है, उसको छोड़कर आज का मानव भौतिक सुख के शक्कर के दाने की तरफ मुड़ जाता है l ये भूख किस सुख की हैl समकाल को दर्शाती एक बेहद गंभीर कविता ..

 

हमें किसके लिए उपाय खोजना चाहिए

भूख के या मृत्यु के ?

उड़ान से लौटते हुए

पूछा चिड़िया ने

और जा बैठी वो भी

शक्कर के दाने के पास

 

अंत में मैं यही कहूँगी कल्पना मनोरमा आज के समय में कविता का एक नया शिल्प रचती हैं l वे कठिन शब्दों का वितान नहीं रचती, सीधे पाठक के दिल में प्रवेश करती हैंl बिम्ब भी हैं तो सहज और सीधे l उनकी कविताएँ काव्य कथाएँ हैंl कविता में कहानी समाहित है, चिंताएँ और प्रश्न हैं, जो चिड़िया का एक घोंसला बचा लेने की भावुक हृदय गंगा में बहती हैंl उनकी कविताएँ इसलिए भी कविता का एक अलग संसार रचती हैं क्योंकि ये कविताएँ किसी पर अंगुली नहीं उठाती बल्कि धरती पर समन्वय, भाईचारे और प्रेम के बीज फैलाने के अपने प्रयास की बात करती हैं l और उनके अंखुआने के लिए धैर्य भी रखती हैं..

 

लौट आई घर की ओर 

और बो दिया बीजों को गमले में

तब से कर रही हूँ इंतजार

बीजों के अंखुआने का

 

वनिका प्रकाशन से प्रकाशित बेहद उम्दा कागज और छपाई वाली 120 पृष्ठ में समाई 47 कविताओं की यहबाँस भर टोकरीसाहित्य जगत में सहेज लेने योग्य हैl

 

कवि: कल्पना मनोरमा 

कृति : बाँस भर टोकरी 

समीक्षक: वंदना बाजपेयी 

प्रकाशक: वनिका प्रकाशन

कृति पृष्ठ : 120

मूल्य : 190 (पेपर बैक)

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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  1. अद्भुत कविताओं की सुंदर समीक्षा !

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