दिव्या माथुर की कविताओं में मानवीय चेतना के संघर्षों की आँच


कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में एक स्थापित हस्ताक्षर दिव्या माथुर समकाल की चर्चित कवयित्री भी हैं। नई कविता की टकराहटें हों या छंदबद्ध गीतों की मधुर तानाकशी, छोटी बड़ी बहर की ग़ज़लें या नज़्में, उनके अपने मौलिक व भावनात्मक बिम्ब-प्रतीक पाठक-मन को सहजता से आंदोलित करने में सक्षम हैं। उनके सात कविता संग्रह: ‘अंतःसलिला’,’रेत का लिखा’, ’ख़याल तेरा’, ‘11 सितम्बर: ‘सपनों की राख तले’, ’चंदन पानी’, ‘झूठ, झूठ और झूठ’, ‘हा जीवन हा मृत्यु’ (ई-संग्रह) और ‘सिया-सिया’ (बाल-कवितायें) जैसी कृतियों में संग्रहित कविताओं को पढ़कर खुरदुरे यथार्थ के सत्य को आच्छादित होते हुए देखा और महसूस किया जा सकता है। 


जिस प्रकार ज्ञान-कर्म-अर्थ हमारे अन्न हैं। उसी प्रकार कर्म का मौलिक रूप गति तत्व होता है। इसी के द्वारा निर्जीव व सजीव दोनों तत्वों के जीवित रहने का बोध जिस प्रकार साधारण इंसान को होता है, उसी प्रकार कवि को लगातार होता रहता है। किसी के द्वारा कविता करना माने अपने बाहर-भीतर जमी कठोरता को त्याग देना होता है। इतना भावपूर्ण कार्य, भावनाविहीन व्यक्ति कर ही नहीं सकता। कविता की गुणवत्ता पहचानने वाले से पूछो तो वह भी यही कहेगा कि शुद्ध कविता ही जीवन के असंबद्ध भाव विन्यासों को संबद्ध करने का कार्य करती है। उसी प्रकार दिव्या माथुर भी दो देशों में सामजस्य स्थापित करते हुए कहती हैं: तुम झूठे हो / मैं सच्ची / तुम सच्चे हो / मैं झूठी / क्या जीवन बीतेगा / यूँ ही / सबूत इकट्ठा करते / अग्निपरीक्षा देते / संबंधों को स्थगित करते। नहीं, ये बात वे भी जानती हैं कि कविता रुकी तो जीवन रुक जाएगा और जीवन रुका तो कविता मर जायेगी क्योंकि कविता का सीधा तादात्म्य प्रकृति से है और प्रकृति का मनुष्य से। 


गगनचुम्बी वर्ल्ड-ट्रेड-सेंटर के ध्वंस होने की घटना ने पूरे संसार को सम्वेदनात्मक रूप से झकझोर कर रख दिया था। नृशंसता, बर्बरता और पागलपन की चीखों से वहाँ का आसमान चीत्कार उठा था। मातम, सूनापन, वैधव्य और अनाथ बच्चों की गहरी उदासी को देखते हुए दिव्या माथुर का रचनाकार बराबर गहरे दर्द में अतिशय पिघल-पिघल कर उनकी पीड़ा को कागज़ पर उकेरता रहा और ‘11 सितम्बर: सपनों की राख़ तले' संग्रह के रूप में प्रकाशित हुआ (जिस पर उन्हें माननीय प्रधानमंत्री की भी अनुशंसा प्राप्त हुई: मैं उस काव्य माध्यम की प्रशंसा करता हूं जिसमें आपने विश्व आतंकवाद से पीड़ा और यातना को सहन करने वाले सभी लोगों के दर्द, करुणा और समझ को व्यक्त किया है।) कविता ‘मलबा’ से: “लगता है ये रौरव नरक मुझे/हो रहा है तांडव अग्नि का/यह किसका हाथ वह किसका पाँव / यह धूलधूसरित सिर किसका।” 11 सितम्बर की आग में झुलसे एक फ़ायर-फ़ाइटर की व्यथा में आप एक कविता ‘मरहम’ लिखती हैं: ”कौन? कौन हो तुम?/आईना पूछता रहता है /एक डरा हुआ विकृत चेहरा/ तुम ही तो हो, यूं कहता है/मैं किसी को दोष नहीं देता/ लोथड़े हैं मेरी बाहें दो/आँखों की जगह दो गड्ढे हैं/ वे मुझ कुरूप को चाहें क्यों……..।” 

साहिर लुधियानवी जी कहते हैं: “ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाँव में/गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी/ये तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है / तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी।” सोचना तो कवयित्री का भी यही है लेकिन समय की वक्र दृष्टि उनकी रचनाधर्मिता में दुःख की एक गहरी लकीर खींच देती हैं और उनका मन कराह उठता है। तदनुसार कानपुर के यशस्वी कवि प्रमोद तिवारी का एक गीत याद आता है। नदिया धीरे-धीरे बहना / नदिया घाट-घाट से कहना / मीठी-मीठी है मेरी धार / खारा-खारा सा संसार / तुझको बहते जाना है / सागर से पहले तुझको / गागर-गागर जाना है / सागर की बहना नदिया / गागर से कहना नदिया / गति में है जीवन का शृंगार / साधो न लहरों पर तलवार


इस गीत का उल्लेख यहाँ करना इसलिए ज़रूरी था कि जो बात कवि प्रमोद तिवारी समझाना चाहते हैं, वही भावभूमि पर दिव्या माथुर ने अपनी जीवनरूपी भारतीय नदी को दूसरे देश के झंझावाती वातावरण,पाश्चात्य विचारधारा और तकनीकी घायल उड़ानों के बीच भारतीयता के साथ स्वयं से जोड़े रखा है। जहाँ साधारण व्यक्ति अपने ‘कम्फर्टजॉन’ के बाहर निकलने की सोचता तक नहीं, वहीं हमारी लेखिका अपनी रचनाशीलता को ससम्मान पराये परिवेश में भी गतिमान रखती हुई दिखाई दे रही हैं। क्योंकि वे जानती हैं कि भले प्राणों पर पहरा पराया हो लेकिन देह रूपी पिंजरा उनका अपना है। और वही संतोष उनकी जिजिबिषा को सहेजता रहता है: “चारों प्रहर / पहरे पर रहता है / तुम्हारा शक/ मेरी दृष्टि की भी/तय कर दी है /तुमने सरहद/ प्रणय तुम्हारा/ लेके रहेगा मेरे प्राण/ क्या मुझे मिलेगा त्राण/ आज़ाद है मन मेरा लेकिन/तन का छुटकारा सपना है/ क़ैद तुम्हारी हो बेशक/पिंजरा तो मेरा अपना है।”


दिव्या जी की कविताओं को पढ़ते हुए उनकी सहजता स्वत: पाठक के मन को छूती है। उनकी गद्य व पद्य लेखन में भारत कहीं व्यंजनात्मक ढंग से मुखरित हुआ है, कहीं अभिधा और कहीं लाक्षणिक रूप से  परिलक्षित दिखता है। जिस प्रकार एक स्त्री अपने पिता का घर छोड़ते हुए उतना ही लेकर अपने जीवनसाथी के निकेतन नहीं जाती है, जितना उसका पिता उसे हाथ उठाकर देता है बल्कि वह अपने अंतर्मन की पोटली में माँ  के घर की संस्कृति रीति-रिवाज, हँसी-ठिठोली परा और आर्वाक (आदान-प्रदान) के समस्त भेदों को भी गाँठ बाँधकर लिए जाती है। तभी तो कहा जाता है स्त्री संवेदना और संस्कृति के संवाहिका होती है। चाहे अपनी माँ हो या भारत माँ: “उसकी सस्ती धोती में लिपट/ मैंने न जाने / कितने हसीन सपने देखे हैं/ उसके खुरदरे हाथ/ मेरी शिकनें सँवार देते हैं/ मेरे पड़ाव हैं/ उसकी दमे से फूली साँसें / ठाँव हैं/ कमज़ोर दो उसकी बाँहें / उसकी झुर्रियों में छिपी हैं/ मेरी खुशियाँ/ और बिवाइयों में / भविष्य।”


खैर, दिव्या माथुर को भले प्रवासी साहित्यकार माना जाता हो लेकिन उनका हृदय पूरी तरह भारतीयता से आप्लावित है। चाहे उनकी आनंदमयी मुस्कान देख लो या कविताओं में भावनात्मक उर्वरता। दोनों में गंगा-जमुनी तहजीब की सुगंध देखने को मिल जायेगी। उनके भारतीय मन की पुष्टि इस कविता की भाव व्यंजना देखकर की जा सकती है, जिसमें सतत स्व-अवलोकन की सहज परिणिति हुई है। "माँ होने के नाते मैं दोषी हूँ / मेरे गर्भ से ही तो जन्मा था यह संसार/ पालन-पोषण में इसके क्या त्रुटि रह गई।"  दरअसल दिव्या जी की कविताओं से गुजरते हुए मैंने कई बार देखा है कि उनकी कविताओं में एक द्रुत प्रवाह है। जो अपने अंतः की हलचलों, और अंतः संघर्षों से प्रेरित होकर, भाव अनुमोदन के साथ एक बिंदु पर पहुँचकर अत्यंत क्षिप्रता से मुड़ जाता है। और पाठक अपने आसपास फैली तमाम समकालीन द्वंद्वों की उठा-पटक महसूस करने लगता है। "हर रात मैं अपने पलंग की चादर बदलती हूँ/ हर रात तुम लौटते हो/ बासी बासी।" चुटकी भर शब्दों में आपने स्त्री जीवन का पूरा उपेक्षित रहस्य रच डाला है। वहीं दूसरी कविता में बहु प्रचलित कविता "आसमान में सुराग हो सकता है,एक पत्थर तबियत से उछाल कर तो देखो यारो।" वाले मूड में कहती हैं "ना सुने कोई तो क्या कीजिए/ दस्तक देने में हर्ज ही क्या है," जिस प्रकार धूमिल राजनैतिक बितंडावाद को महसूसते हुए एक कविता रचते हैं: “सेना का नाम सुन/ देश प्रेम के मारे/ मेजें बजाते हैं/ सभासद भग भग भग कोई नहीं हो सकती / राष्ट्र की संसद एक मंदिर है / जहाँ किसी को द्रोही कहा नहीं जा सकता / दूध पिए मुँह पोंटे आ बैठे जीवनदानी गोद...।" उसी प्रकार परिवार भी तो एक प्रकार की संसद है और माँ उसकी न्यायाधीश। दिव्या माथुर एक कविता ‘कढ़ी’ शीर्षक से लिखती हैं: "आज सुबह मैंने कढ़ी बनाई छोटी छोटी गोल मटोल पकौड़ियां/यू खनक रही थी पतीले में/ज्यों फुदकते थे बच्चे/बरसात से भीगे आंगन में।" जिस प्रकार धूमिल भारती मूल्यहीनता, भ्रष्टाचार का बोध अपनी कविता में कराते हैं। दिव्या माथुर की कविता "कढ़ी" को पढ़कर बूढ़ी होती माँ के जीवन की मूल्यहीनता गहरे से महसूस की जा सकती है। 



'चन्दन पानी' संग्रह के प्राक्कथन में मशहूर लेखक और राजनयिक डॉ पवन वर्मा लिखते हैं: रिश्तों पर आधारित रचनाओं के इस संग्रह में कोई ऐसा रंग नहीं है जिसे दिव्या पकड़ने में सफल न रही हो। जहां एक ओर दिव्या ने सब में मैं उसकी छब देखूँ हँसते लोग लुगाई जी् / याद आये वो यूँ जैसे दुखती पाँव बिवाई जीऔर काली बदरिया आई घिर / इक हूक उठी ओ माई फिरजैसे गीत लिखे, वहीं कैसे कह दें कि वो पराया है / उसके ख्वाबों में हम सँवरते हैं अथवा ग़ुंचों की तबाही का क्या कीजे / आँधी की गवाही का क्या कीजेऔर कुछ आग और लगानी होगी / चंद लपटें ये जलायेंगी नहीं जैसी सशक्त गज़लों की भी रचना की है। जैसे छायावादोत्तर काव्य में तमाम प्रकार की प्रवृत्तियों का संश्लेषण निहित दिखाई पड़ता है। उसी प्रकार दिव्या माथुर की काव्य प्रवृत्तियों में मूलतः उदारतावादी तत्व तो हैं ही साथ में भारतीय प्रेरणा और उसके उत्स, पश्चिम-प्रेरणा और उसके उत्स की वैचारिकी आदि में सामंजस्य के कथ्य की जैवसंश्लेषणता है। दिव्या माथुर की कविताओं में शिल्प से ज्यादा भावों के प्रति सतर्कता रखी जाती है। उनकी किसी भी कविता को छूओ तो आपको नेह निर्झर झरता-सा प्रतीत होगा। वे अति कडुवी बात अपनी सहजता की कलम से कह जाती हैं जो पढ़ने वाले को झन्न से लगती तो है लेकिन उसे गाल सहलाने का अवसर नहीं मिलता। जिस तरह नई कविता की विशेषता यह थी कि उसमें कविता के नएपन और ताजगी का होना अनिवार्य था उसी प्रकार दिव्या माथुर की कविताओं को परिसीमित नहीं किया जा सकता। इस प्रकार उनकी काव्यात्मकता में सभी प्रकार की काव्य विधाएँ शामिल है। जैसे वे मुक्त छंद की लयात्मक कविता भी लिखती हैं तो छंद मुक्त कविता भी रुचि से लिखती है और उनकी छंदोबद्ध गीत कविता भी पढ़ी जा सकती है: “सूखे पत्ते सी डोलूँ मैं / अक्ल मेरी बौराई जी / सबमें मैं उसकी छब देखूं / हँसते लोग-लुगाई जी / याद आए वो यूं जैसे / दुखती पाँव बिवाई जी।” अथवा “आग कुछ और लगानी होगी / चंद लपटें तो जलायेंगी नहीं / धधक रहा है लहू लावे सा / आग को आग बुझाती है कहीं।”


जहाँ दिव्या जी ‘वृद्धा’ कविता रच कर सामाजिक भाव शून्यता लिखती हैं: “एक तूफ़ान बाहर मचल रहा है और एक अन्दर / सूखे पत्तों सी खड़खड़ा रही है सांस और ख़ाली शंख की तरह बज रहा है घर।” और कविता ‘ऐत तहानी औल मम्मा’ से: “बहुत रात हो गई मुन्ना/बेटा अब तो तू सो जा /‘बछ ऐत तहानी औल मम्मा, छुना बी दो ना’/अब मुन्ना बड़ा हो गया है / कहता है मैं बहुत बोलती हूँ।” तो दूसरी ओर ‘सिया का पालना’: "चंदन का है बना पालना/ रंग बिरंगी झालर /जिस पर सोती सिया बिछा है/ उस पर बिस्तर सुंदर,” अथवा "जगी सिया और ली उसने / ऊं ऊं कर अंगड़ाई / किसकी गोदी चढ़ूं मैं पहले / यह उलझन उसको आई।"  जैसी नन्हे कोमल मन वाले बच्चे को दुलराने हेतु लोरीनुमा गीत कविता भी रचती हैं।


जबकि स्वाधीनता आधुनिक युग के मनुष्य का केंद्रीय भाव है किंतु इसके विपरीत उनकी कविताओं में से अधिकांश में जीवन की वस्तुगत परिस्थितियों की अभिव्यक्ति हुई है, वह भी परिधि में रहते उसका वितान बड़ा करते हुए: “रेत पर थी स्पष्ट लिखी/ सूखे की कथा /पर पढ़ने को / ना था कोई बचा।" ‘मृगतृष्णा’ कविता से: "कब समझूंगी रेत हूँ मैं / और बाहर सब है रेगिस्तान" एक और उदाहरण देखिये: "समय महत्व खोने लगता है मरू में/ प्रसाद आत्मा को मिलता है मरु में," अंतहीन मरु कविता की पंक्तियों में समय की लाचारी और आत्मा की सत्यता का क्या खूब चित्र कवयित्री द्वारा खींचा गया है। मरु माने ऐसा स्थान जो बियावान, निर्जन है। उस सुनसान प्रदेश में समय क्या हाथापाई कर सकता है? क्योंकि समय को अपने खिलवाड़ रचने के लिए जीवन चाहिए है और अंतहीन मरु का जीवन शुष्क है। लेकिन उसी कविता में कवयित्री भाव-करवट बदलते हुए भिन्नभाव दशा को प्राप्त हो जाती हैं, और कहती हैं कि जिस स्थान पर समय भी अपना महत्व खोने लगता है लेकिन जीने की चाहत हमें जिंदा बनाए रखती हैं। ऐसी एक-दो नहीं अपितु दिव्या माथुर के यहाँ अनेक-अनेक कवितायें आपको मिल जायेंगी। 


दरअसल दिव्या माथुर की रचनाओं में जो जीवन है वह भारतीय मूलक है। भारत की जीवन विधि और परंपराएं परदेश जाकर भले विच्छिन्न हो गयी हों लेकिन धर्म, दर्शन, अध्यात्म, नैतिकता, इतिहास, पुराण, सामाजिक उत्सव, पर्व-त्योहार, मनोरंजन और ज्ञान-विज्ञान सब की अभिव्यक्ति उनकी कविताओं में भारतीय रूप से सहज व्याप्त है। दिव्या जी सात सागरों के पार रहते हुए भी अपनी आवश्यकतानुसार उसी प्रकार उक्त तत्वों के साथ अपनी जीवन कविता में प्रस्तुत हुईं दिखती हैं जिस प्रकार एक सुचारु रूप से भारत में रहने वाला कवि दिखा सकता है।


उनकी भारतीयता से भरे मन की एक कविता: “एक बौनी बूँद ने अपना कद लंबा करना चाहा/ बाकी बूंदे भी देखा-देखी / लंबा होने की होड़ में / धक्का-मुक्की लगा लटकीं / क्षण भर के लिए लंबी हुईं / फिर गिरीं / आ मिली अन्य बूँदों  में / पानी-पानी होती हुई / नादानी पर अपनी।" इस कविता को पढ़ते हुए ‘बूँद और सागर’ अमृतलाल नागर का सर्वोत्कृष्ट उपन्यास याद हो आया। कभी व्यंग्यकार अमृतलाल नागर जैसे लेखक ने मानो बूँद में समुद्र को और समुद्र में बूँद-बूँद की परिकल्पना करते हुए रचनात्मकता का एक दुर्लभ चित्रण किया था। उसी प्रकार समकालीन आकांक्षाओं के बियावान में कवयित्री दिव्या माथुर भी अपने को एक बूँद मानती हैं जो महराब से लटकर अपना कद लम्बा कर लेना चाहती हैं। ये चाहना सिर्फ़ इनकी ही नहीं है अपितु ये आज की सहज ही नियति है। हर आदमी वह पा लेना चाहता है जो वह होता नहीं है; क्योंकि व्यक्ति के भीतर एक ख़रग़ोशनुमा मन रहता है जो रंगीन कलाबाज़ियों से बाज़ नहीं आता है; वही खरगोश सबको बूँद-बूँद करना चाहता है। लेकिन ‘बौनी बूँद’ कविता पढ़ते हुए हम जब नीचे की पंक्तियों पर पहुँचते हैं तो बूँद की आकार हीनता पर कवयित्री को सत्यता की परिधि में पछताता हुए भी पाते हैं। इतना साधारण-सा दिखने वाला ये कवित्य-बिम्ब इतना सहज नहीं है, क्योंकि पछतावा करना भी किसी ना समझ की वश की बात नहीं। इसके लिए भी जीवन और कर्म का तात्विक विधान व्यक्ति को ज्ञात होना बेहद आवश्यक है। दिव्या की कविता, ‘बौनी बूँद’ को Poems for the Waiting Room (in a Department of Health Project supported by the Arts Council of England) में सम्मलित किया गया है।  इसी कविता के लिए उन्हें इंटर्नैशनल लाइब्रेरी औफ़ पोएट्री का उत्कृष्ट उपलब्धि पुरस्कार भी मिला।


खैर, ऐसा कम ही देखा जाता कि एक साहित्यकार की कलम को हर विधा में महारत हासिल हो लेकिन हमारी प्रिय लेखिका दिव्या माथुर जी की कलम में ये खूबी कूट-कूट कर भरी है। वे जितनी संवेदनात्मक कहानी लिखती हैं, उतनी ही तरलता से मानवीय करुणा, पुलक, धैर्य, पीड़ा, क्रोध और क्षोभ को कविता के केंद्र में रखकर पंक्ति-दर-पंक्ति मानवीय सुख-दुःख कह जाती हैं। तभी तो ‘हँसो तुम पर निगाह रखी जा रही है’ रघुवीर सहाय की कविता पढ़ते हुए हमारा मन भीगता है। उतना ही दिव्या माथुर की कविता ‘व्यवसाय’ पढ़ते हुए मन अतल दुःख महसूस कर उठता है:”मज़हब जिनका भारी जेबें /ताज़ा कलियाँ उपलब्ध उन्हें  सोने की लौंग हर रात नई / एक बिस्तर नहीं नसीब जिन्हें / दलाल इधर दबोचते हैं / तो ग्राहक उधर खरोंचते हैं/हो गर्भपात या कि रक्त स्त्राव/कभी तन्हा इन्हें न छोड़ते हैं……।”


गंगाप्रसाद विमल जी उनके बारे में सही कहते हैं कि ”दिव्या माथुर का विधान सहज व स्वानुभूत यथार्थ से अभिप्रेरित होने के साथ-साथ संगीतात्मक लय से भी संपन्न है।” कवयित्री के शब्दों की तरलता अर्थ की व्यापकता को ‘मुट्ठी’ कविता में देखिये: “धड़क रहा है दिल जब तक/ धड़क रही है रेत भी/ बाहर या मुट्ठी के बाहर/ रेत है केवल रेत ही।” कुछ शब्दों की कविता में जीवन का सर्वोपांग यथार्थ गुंथा दीखता है। एक पल ‘रेत’ जीवन का पर्याय लगती है तो दूसरे पल निरर्थकता का घना बोध करा जाती है। चार पंक्तियों की कविता में अर्थ की द्वंद्वात्मकता लिखना आपके ही वश ही बात है। एक कविता ‘झूठ’ में दिव्या जी की लेखनी के जादू में यथार्थ की वैज्ञानिकता शब्द का अस्तित्ववाद और मानवीय चेतना की आँच को महसूस किया जा सकता है। मेरी ख़ामोशी / एक गर्भाशय है/ जिसमें पनप रहा है/ तुम्हारा झूठ/ एक दिन जनेगी ये/ तुम्हारी अपराध भावना को / मैं जानती हूँ कि तुम साफ़ नकार जाओगे /  इससे अपना रिश्ता / यदि मुकर न भी पाये तो / उसे किसी के भी गले मढ़ दोगे तुम / कोई कमज़ोर तुम्हें /फिर बरी कर देगा/ पर तुम/ भूल के भी न इतराना/ क्यूंकि मेरी ख़ामोशी एक गर्भाशय है /जिसमें पनप रहा है /तुम्हारा झूठ।


'रेत का लिखा' संग्रह के प्राक्कथन में प्रसिद्द लेखक कन्हैया लाल नंदन जी ने लिखा है, 'जापानी कवि, सिनोहारा हिरोशी की एक कविता मुझे यात्रा की निरंतरता का महाभिलेख जैसी लगती है: एक कोरा कागज़ मेरे दिमाग़ में रेगिस्तान भर देता है' और ऐसा ही महसूस होता है दिव्या की कविताएं पढ़ने के दौरान।  यात्रा की निरंतरता के लिए ज़रूरी है चलना, जिसे दिव्या ने 'रेत का लिखा' हुआ पढ़ना माना है। जीवन में समूचे वैविध्य को - उद्भव से उत्सर्ग तक, उत्सव से अवसाद तक, सार्थक से निरर्थक तक, आदि से अंत तक एक तटस्थ सहचर की तरह पढ़ना ही इन कविताओं का मूल स्वर है, उस स्वर को अपना साधुवाद देता हूँ।'  डॉ कमल किशोर गोयनका जी लिखते हैं: रेत का लिखा कवियत्री की दार्शनिक दृष्टि का प्रतीक है।  रेत पर जो भी लिखा जा सकता है, वह क्षणभंगुर ही होगा।  दिव्या माथुर भौतिकता एवं उपभोक्ता संस्कृति के संसार में रहने पर भी जीवन की इस यथार्थता को गहराई के साथ अनुभव करती हैं।'


अंत में, एक महत्वपूर्ण बात अवश्य जोड़ना चाहूंगी और वो है दिव्या जी की रचनाओं में लोकप्रिय मुहावरों का बाहुल्य, विशेषतः 'ख़याल तेरा' संग्रह में तो उन्होंने अद्भुत प्रयोग किये हैं, उदाहरणतः '‘है वहम मुझे आया भी था / ऊँठ के मुंह में ज़ीरे सा / आज मुझे बहला न सका / क्यूं पूरी तरह ख़याल तेरा।और मुल्ला की दौड़ कविता से 'झक मारके ख़याल तेरे / वापिस यहीं तो आएँगे / गिरहबन कस पूछूंगी तब / कहाँ जनाब थे भटका किए?’ अथवा सरे आम सीना ताने चैन चुराने अबला का / निर्मम डाकू सा आता है कभी-कभी ख़याल तेरा,’, ‘कालीन पे मेरे ठूंठ सा / बैठा रहता है ऊँठ सा' और 'कुत्ते की टेढ़ी पूँछ है / क्या सुधरेगा कभी खयाल तेरा,‘ अथवा तेरी तरह ये ज़िद्दी नहीं / ढल जाते अनुरूप मेरे / कुम्हार की मिट्टी जैसे हैं / चिकने-लचीले ख़याल तेरे,', इक तो करेला ख़याल तेरा / और ऊपर से नीम चढ़ा’, पढ़ कर पाठक के चेहरे पर मुस्कराहट खिल उठती है।  और वैसे ही उनकी 'गुदगुदी' जैसी पचासियों रचनाएं मन को सचमुच गुदगुदा जाती: 'सखियाँ मुझसे हैं पूछती / क्यूं बेवजह मैं रहती हूँ हंसती / क्या मैं हो गयी हूँ बावरी / मन में करते गुदगुदी मेरे / ख़याल तेरे कोई देखे न,' या 'सीधा मेरी आँखों में / बेधड़क घूरती बिल्ली सा / वह एक निडर ख़याल तेरा / टांगों की बीच पूछ दबा / मेरी एक धत से भाग लिया,'


जिस प्रकार के समय में हम जीने के लिए विवश हैं। जिस प्रकार सत्ता, पूँजी, मनुष्य के सुख-दुःख पर कॉपरेट जगत का कसता हुआ शिकंजा और कसता जा रहा है। उसी प्रकार आत्महीन ध्वनियों में मानवीयता का उलंघन और तिरिस्कृत भावनाओं की चीखों के बिम्ब दिव्या माथुर की कविताओं में खूब देखने को मिलते हैं। रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में: ”कविता ही हृदय को प्रकृत दशा में लाती है और जगत के बीच क्रमशः उसका / अधिकाधिक प्रसार करती हुई / उसे मनुष्यत्व की उच्च भूमि पर ले जाती है।” इस अभेदी कठिन वक्त में भी दिव्या माथुर सहज ही विपन्न यथार्थ को कविता में विश्सनीयता के साथ प्रस्तुत कर रही हैं।


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लेखिका के बारे में….

दिव्या माथुर: वातायन-यूके और आशा फ़ाउंडेशन की संस्थापक-सदस्य, रौयल सोसाइटी ऑफ़ आर्ट्स की फ़ेलो, ब्रिटिश-लाइब्रेरी की 'फ़्रेंड', आप पद्मभूषण मोटुरी सत्यनारायण सम्मान और आर्ट्स-काउन्सिल औफ़ इंग्लैंड के आर्ट्स-अचीवर जैसे अनन्य सम्मानों से अलंकृत, बहुत से विश्वविद्यालयों द्वारा सम्मानित हैं। नेहरु केंद्र-लन्दन में वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी, विश्व हिंदी सम्मेलन-2000 की सांस्कृतिक उपाध्यक्ष, यूके हिन्दी समिति की उपाध्यक्ष और कथा-यूके की अध्यक्ष रह चुकी हैं। आपका नाम ‘इक्कीसवीं सदी की प्रेणात्मक महिलाएं’, आर्ट्स कॉउंसिल ऑफ़ इंग्लैण्ड की 'वेटिंग-रूम में कविता', ‘ऐशियंस हूज़ हू', आर्ट्स कॉउंसिल ऑफ़ इंग्लैण्ड की 'वेटिंग-रूम में कविता' और 'सीक्रेट्स ऑफ़ वर्ड्स इंस्पिरेशनल वीमेन' जैसे ग्रंथों में सम्मलित है। एक बहु-पुरस्कृत लेखिका, अनुवादक और सम्पादक के रूप में आपके आठ कविता-संग्रह, आठ कहानी-संग्रह, एक उपन्यास, शाम भर बातें (दिल्ली विश्विद्यालय के बीए-औनर्स पाठ्यक्रम में शामिल) और छै सम्पादित संग्रह प्रकाशित हैं। जयपुर लिटरेचर फ़ेस्टिवल, विश्व-रंग-भोपाल, कोलंबिया विश्विद्यालय-न्यू यॉर्क, महात्मा गांधी हिंदी विश्विद्यालय-वर्धा, जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों द्वारा आमंत्रित की जा चुकी हैं। आपके चार नाटकों का सफल मंचन हो चुका है। दूरदर्शन ने आपकी कहानी, सांप सीढी, पर एक टेली-फ़िल्म बनाई है। डा निखिल कौशिक द्वारा निर्मित ‘घर से घर तक का सफ़र: दिव्या माथुर’ को विभिन्न फिल्म-फेस्टिवल्स में शामिल किया जा चुका है।

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