पीली चिड़िया
खिड़की से आती संघ्या की अंतिम किरण
प्रभा को उदास कर रही थी। उसने फिर से किताब उठाकर अपनी पसंदीदा कविता ‘आज की स्त्री’ पढ़नी चाही।
"स्त्री कूटती आई है/ ख़ुशी के धान/ अँधेरे की
ओखली में…!"
पंक्ति के अर्थ में प्रभा को अपना और अपनी
माँ का भूला-सा जीवन याद आने लगा। उसकी उदासी मिटने के बजाय बढ़कर सातवें आसमान तक
जा पहुँची।
“जिन बातों की पर्देदारी में मैंने अपना जीवन हवन कर
दिया। लेखिका ने खुलेआम लिख दिया? जबकि स्त्री और पीड़ा
का चोली-दामन का साथ है। वह जा भी कहाँ सकती है?” अवसाद
में जकड़ी रहने वाली प्रभा अब निश्चेष्ट हो नकारात्मकता की नदी में बह चली थी।
"निरी बेवकूफ हो गई हैं आज की कवयित्रियाँ।" अचानक तुनक कर प्रभा बुदबुदाई और उसका क्रोध इतना बढ़ता चला गया कि उसके
दिमाग़ की नसें तड़कने लगीं। अपने इर्द-गिर्द घिरे रहने वाले सन्नाटों में वह खो
जाती मगर उसकी कलाई पर तेज़ चुभन का उसे एहसास हुआ।
“क्या मेरे जीवन की चुभन इतनी बढ़ चुकी है कि वह कहीं भी
और कभी भी महसूस होने लगे?” उसके अचेतन में एक प्रश्न
कौंधा और ध्यान उस हाथ की ओर चला गया जो कुर्सी के हत्थे पर निश्चेष्ट रखा था। उसी
हाथ की कलाई पर एक मच्छर डंक धँसाए आराम से उसका खून पी रहा था। मच्छर के पेट से
खून साफ़-साफ़ झलक रहा था।
”क्या ये मच्छर मेरा खून पी रहा है?" उसके जेहन ने अब जल्दी-जल्दी प्रतिक्रियाएँ देनी शुरू कर दी थीं।
“हाँ, ये तेरा ही खून…।“ अंतस चेतना से निकली आवाज़ मन के तहखाने में गूँज उठी।
"तो मैं इसे पीने क्यों दे रही हूँ?” प्रश्न फिर से कौंधा।
“इसका अंदाज़ा मुझे नहीं, तुझे
होना चाहिए।“
रोशनदान की ओर से आती आवाज़ पर प्रभा
की आँखें टिक गईं। वहाँ बैठी पीली चिड़िया ने पंख फड़फड़ाए। प्रभा ने
दूसरे हाथ में पकड़ी किताब मच्छर के ऊपर धड़ाम से पटक दी। अचानक हुए प्रहार से मच्छर
ढेर हो गया। प्रभा की धमनियों में बहने वाला खून कलाई पर पसर गया। लाल खून का गाढ़ा
रंग देख उसे अजीब तो लगा किन्तु अचंभित वह अपनी चुभन शांत होने पर थी। उसने रोशनदान
में चिड़िया को देखना चाहा मगर चिड़िया आसमान की ओर उड़ान भर चुकी थी। प्रभा ने पेंसिल उठाकर कविता की पंक्ति काटी और अपनी पंक्ति,“स्त्री हाशिये पर नहीं, जीवन के केंद्र में रहती आ रही है।” लिख दी और एक गहरी साँस ली। अनायास मुस्कान उसके होंठों पर खिल गयी।
“हमारी निष्क्रियता ही दूसरों को खून पीने का मौका देती
है, क्यों प्रभा जी!" गहरी और
सान्द्र आवाज़ के साथ उसने अपने आप को बाहों में समेट लिया।
***
साहित्य एक्सप्रेस में प्रकाशित |
लघुकथा डॉट कॉम में प्रकाशित |
बेहतरीन संदेश देती लघुकथा । सच स्त्रियाँ स्वयं ही इस्तेमाल होती रहती हैं ।
ReplyDeleteएक गुज़ारिश --- कवयित्रियाँ ऐसे लिख लें । अक्सर टाइपिंग की गलतियाँ हो जाती हैं ।
आपकी लिखी रचना सोमवार 26 दिसंबर 2022 को
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
सार्थक लघुकथा।
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
बढ़िया लघुकथा।
ReplyDeleteसार्थक संदेशयुक्त अच्छी लघुकथा।
ReplyDeleteसादर।
बहुत सुंदर संदेशप्रद लाजवाब लघुकथा ।
ReplyDeleteसुन्दर सन्देशप्रद लघुकथा !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और भावपूर्णलघुकथा 👌👌👌नारी जीवन का ताना बाना कुछ इस तरह से बुना गया है कि उसमें दूसरों के खून पीने की सम्भावना बहुत बढ़ जाती है। लघुकथा के लिये आभार आपका!क्रिसमस और नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं ♥️🙏
ReplyDeleteवाह! वाक़ई ऐसा ही है, सशक्त रचना!
ReplyDeleteआप सभी मित्रों का हार्दिक आभार!!
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