मानवीय अपेक्षाओं-उपेक्षाओं की कहानियाँ
अभी हाल ही में मैंने सुधांशु गुप्त का कहानी संग्रह 'उसके साथ चाय का आखिरी कप' पढ़ा जो काफी चर्चित रह चुका है। इन कहानियों में एक ऐसा झरोखा है जो अनवरत खुला रहता है। उसी से झांकते हुए लेखक जीवन का स्थाई भाव उदासी और मेहमान सरीखे उल्लास को अपनी वैचारगी से देखता रहता है। इस संग्रह की कहानियों में कई एक प्रेम कहानियाँ भी हैं। लेकिन उन कहानियों में जो कथा नायक प्रेमी है, वह उच्छृंखलतापूर्ण रवैया नहीं अपनाता। वह जीवन-प्रेम के प्रति उत्सुक तो है लेकिन किसी भी प्रकार से स्त्री प्रेमिका को ठगता या ‘चीट’ नहीं करता है। उसके लिए प्रेम इत्मिनान है, वह मानव मूल्यों को संजोकर चलने में विश्वास रखता है।आपकी कहानियों की भाषा, बिंब, प्रतीक और सौन्दर्यबोध दुरूह नहीं है।
इस संग्रह की ही नहीं, आपकी
ज्यादातर कहानियाँ छोटे आकार की होती हैं लेकिन लेखक जिस मुद्दे को अपनी कहानी में
उठाता है, वह मुकम्मल और वैचारिक रूप से ज़ोरदार होता है।
किसी मामूली-सी बात को उठाकर कहानी में ढाल देना आसान नहीं लेकिन सुधांशु गुप्त इस
कला में सिद्धहस्त हैं। उनकी कहानियाँ पढ़ते हुए लगेगा कि कहानी का विषय क्या है?
लेकिन जब उसे पढ़ा तो मानवीय जीवन के अंदरूनी दुःख, शोक, घृणा, भय, लालच, प्रेम और हँसी-मज़ाक के गाढ़े दृश्य उकेरे हुए
मिलते हैं। आपकी कहानियों में वे बातें पढ़कर कोई भी आश्चर्य में पड़ सकता जिसे
सामान्य तौर पर कहा नहीं जाता, बस सोचा जाता है। कहानियों
में किरदारों के माध्यम से कहा, सोचा और बोला गया कोई न कोई
विचार ज़रूर पाठक को हतप्रभ कर जाता है। लेखक की दृष्टि कलात्मक रूप से सूक्ष्म है।
जिस तरह चित्र के भीतर एक चित्र होता है, उसी तरह गुप्त की
कहानियों में बाहर-भीतर की कहानियाँ समानांतर रूप से चलती हैं। आप सांसारिक स्थूल
विसंगतियों के साथ जीवन के अंदरूनी द्वन्द्वों की उठा-पटक को बड़ी शालीनता से
रुचि-रुचि गढ़ते हैं। लेखक जिस ताप के साथ कहानियों का वितान तानता है, उसी ताप के साथ पाठक को अपना भोगा, जिया, सोचा, कहा-अनकहा और देखा हुआ यथार्थ याद आने लगता
है।
इन कहानियों में इंसानी दुनिया की बसावट,बनावट, गिरावट, उठान, उत्थान-पतन, संकोच और उदारता, द्वंद्व,
छलावे और प्रेम इतनी बारीकी से लिखे मिलते हैं कि पाठक के सामने
दृश्य उपस्थित हुए बिना नहीं बचते हैं। कहानियों में एक ख़ासियत और इनके यहाँ मुझे
लगी, वह ये कि आप अपने किरदारों के नाम ‘संज्ञा’ में न रखकर ‘सर्वनाम’
में रखते हैं। लगभग कहानियाँ ‘मैं’ और ‘वह’ में लिखी गयी हैं। आप
जानते हैं कि नाम वर्ग, जाति और स्थान विशेष को इंगित करता
है इसलिए वे लोक के लेखक बन जाते हैं। आपकी कहानियाँ हर वर्ग और व्यक्ति की
कहानियाँ बन जाती हैं। आप किरदारों के आत्मिक द्वंदात्मक ऊहापोह के लेखक हैं। आपकी
कोई कहानी विचारों के बिना पूरी नहीं होती अपितु कहानी में किरदारों के आत्मिक
द्वंद्व इतने मानवीय और सजीव होते हैं कि जीवन में मिले कई व्यक्ति-दृश्य सफ़े पर
नमूदार हो जाते हैं। वे भाव उमड़ पड़ते हैं कि,”अरे फ़लानी
सिचुएशन में ऐसा तो मैंने भी सोचा था लेकिन कह नहीं पाया।” कहने
का मतलब सीखने वाला आपकी कहानियों से जीवन को बरतने का शऊर भी सीख सकता है।
संग्रह की पहली कहानी, 'उसके
साथ चाय का आखिरी कप' जिसके नाम पर संग्रह का शीर्षक भी है,
को पढ़ा तो एक ऐसा युवा जो किसी तिथि विशेष को याद कर बेहद खुश है
क्योंकि उसके जन्मदिन पर उसकी प्रेमिका उसे पार्टी देगी, चाय
पिलाएगी। कथा नायक अपने हाव-भाव से प्रेम को खूब प्रदर्शित करता है लेकिन कोई भी
प्रेम पगे कथनों का प्रयोग वर्जित समझता है। प्रेम की परिभाषा वहाँ मद्धिम ध्वनि
में उत्सर्जित होती है। ‘यह सपना नहीं है!’ कहानी में कथा नायक महसूस करता है कि वह सब भूलने लगा है और इसी भूलने और
याद रखने के खेल में उसको हुमा का किरदार मिल जाता है और वह गहरे द्वंद्व में
पत्नी-हुमा के मध्य सोचता रहता है कि इन दिनों में से कौन सपना है और कौन यथार्थ
है, का तानाबाना जो लेखक ने बुना वह एक बेहद वैचारिकी से भरा
है। ‘डबल बेड’ कहानी निम्न मध्यम वर्ग
के पशोपेश में पड़े उस पुरुष का बड़ा सुंदर चित्रण करती है, जिसे
शादी में मिलने वाले उपहारों और वस्तुओं से बहुत अपेक्षाएँ होती हैं। वह वीबी से
ज्यादा वस्तुओं पर निगाह रखता है। कहानी के अंत में जब उसे पता चलता है कि उसे डबल
बेड इसलिए नहीं मिल सका क्योंकि उसकी पत्नी ने ही मना कर दिया था। सुनकर वह बड़ा
नाराज़ होता है। लेकिन पत्नी का भावनात्मक वाक्य सुनता है, कम
जगह में मैं आपके ज्यादा करीब रह सकती हूँ।” तब उसे अपनी
पत्नी इंदु बहुत प्यारी लगने लगती है। कहानी की लंबाई कम होने के बावजूद भी कहानी
पूरी और अपने दृश्यों में गंभीर है। जीवन की तिक्त-सिक्त वास्तविता का आस्वाद एक
साथ लेना हो तो सुधांशु गुप्त की कहानियाँ पढ़ी जानी चाहिए।
एक बात और कहना चाहूँगी गुप्त की कहानियाँ मध्यम वर्ग की जद्दोजहद से भरी
खाँटी अपेक्षाओं-उपेक्षाओं की कहानियाँ हैं। जहाँ सपने तो हैं लेकिन यथार्थ बेहद
खुरदुरा और अभावों से भरा हुआ है। जैसे ये कहानी ‘सामान के बीच रखा पियानो’ पढ़ते हुए शहर-कस्बों के उन
घरों की याद आती है जिसमें जगह कम सामान ज्यादा अटा रहता है। जहाँ किसी को ख़ुशी
देने के लिए वस्तु उपहार में दी जाती है। इसी वर्ग में कैसे बेरोजगार व्यक्ति एक
सामान में तब्दील हो जाता है कि सामने होते हुए भी किसी को दिखता नहीं। कहानी पढ़ते
हुए दर्द की किरचें जो लेखक ने पंक्ति दर पंक्ति गूंथी है, एहसास
होता चलता है। ‘एक मौन प्रेम कथा’ कहानी
की अंतिम पंक्ति में कहानी का मंतव्य प्रकट होता है। इस कहानी को भी लेखक ने मौलिक
और सामाजिक जो भी दायरे बुने हैं, बेहद मानवीय और सच्चे से
लगते हैं। ‘के’ की डायरी’ कहानी में कथा नायक ने एक उक्ति सुनी होती है कि,”कहानियाँ
सडकों पर पड़ी मिल जाती हैं।” दरियागंज में फुटपाथ पर बिकने
वाली किताबों में वह अपने लिए किताबें छांटता है, वहीं उसे
‘के’ की डायरी’ मिल जाती
है। जो कि एक ‘के’ नाम की लड़की की है।
ये भी एक प्रकार की प्रेम कथा है। जिसे पढ़कर पाठक को आम जिन्दगी में प्रेम कैसे
आता-जाता है, के भेद पता चलेंगे। ‘नोटिस
बोर्ड’ कहानी एक विश्व विद्यालय जाने वाले उस विद्यार्थी की
कहानी है जो रोज एक ही बस से यात्रा करने से घबराता है। उसे लगता है कि प्रति दिन
एक ही बस में जाने से लोग पहचान लेते हैं और जान-पहचान बढ़ने से वह घबराता है। इस
कहानी को पढ़ते हुए युवा होते पुरुषों के मन की पशोपेश को बहुत सुन्दरता से लेखक ने
लिखा है। मनुष्य अपना जीवन कई स्तरों पर जीता है। वह यथार्थ में ना के बराबर रहते
हुए कभी किसी कल्पना या अभाव में फँसा रहता है। ‘अभाव’
कहानी एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो ऑफिस में अमूमन पाँच बजे तक
ड्यूटी करता है। चूँकि उसका मालिक उस दिन जल्दी निकल गया होता है इसलिए ये भी एक
घंटा पहले ऑफिस से निकल आता है। ये कहानी कोल्हू के बैल बने आदमी की जकड़न को सामने
रखती है। कैसे हम एक ढर्रे में चलने के आदी हो जाते हैं। और जब हमारा ढर्रा टूटता
है तो सभी दृश्य उसे अजनबीपन से भर देते हैं। बहुत सुन्दर कहानी।
‘पहली तारीख़’ कहानी दफ्तरों के भीतर चलने वाली धाँधली
का पर्दाफास करती है। अंतिम वाक्य को देखें,“उसे समझ नहीं
आया कि नौकरी उसने छोड़ी है या उसे निकाला गया है।” कहानी में
सुधीर को पहली तनख्वाह मिलती है तब वह खुद से पूछता है कि,”क्या
वह वाकई खुश है?” इन दो वाक्यों में जिंदगी का ताप निहित है।
‘कंट्रोल जैड’ संपादकीय दफ्तर के परिवेश की
कहानी है। जिसमें कंप्यूटर स्क्रीन से विलुप्त हुई कहानी को किसी के द्वारा
‘कंट्रोल जैड’ से कथा नायक पुनः स्क्रीन पर
देखता है तो उसे अचरज होता है। उसके बाद वह इसी टर्म के माध्यम से दुनिया से खो
चुकी चीज़ों को पा लेने की कल्पना करता है। इस कहानी में ऐतिहासिक कई मुद्दे आये
हैं लेकिन थोपे हुए नहीं लगते हैं। इसी प्रकार ‘कुछ हुआ क्या’
कहानी का पाठ रुला देता है। उस घर का चित्र है जिसमें एक बार भोजन
करने के बाद भोजन मिलेगा या ‘फ़ाका’ कुछ
निश्चित नहीं। कैलेंडर में फलानी तारीख में कौन ‘एफ’ लिखेगा पढ़ते हुए एक टीस उठती है। ’अकेली रोशनी’
के इस वाक्य में,” एक के घर में अँधेरा हो तो
बाकी घरों की रोशनियाँ खुद-ब-खुद बढ़ जाती हैं।” निहित है।
‘शायद लाइट दोबारा जाए’ कहानी में कटथ्रोट
स्पर्धा के बीच जब सभी प्रथम और द्वितीय पांवदान पर पहुँचना चाहते हों तब कथा नायक
ये कहे कि नहीं मुझे तीसरे पेड़ से ही फूल चुनना है लेकिन चिंता बस इतनी है कि उसके
लिए पहले और दूसरे से गुजरना होगा। कहानी मानवीय चेतना की बेहद बारीक ऊहापोह को
सामने लाती है। ‘प्यार कोई कांस्टेंट टर्म नहीं’ इस कहानी में लेखक ने आज के प्रेमी युगलों पर प्यारा सा तंज कसा है जो
संजीदा शब्दों और अनुभवों की गुनगुनाहट लिए दिखता है।
‘एक छोटी-सी इच्छा’ कहानी नकल करने की प्रवृत्ति को
उजागर करती है। इस कहानी का कथा नायक जिसने बहुत फ़िल्में देखी होती हैं। पिक्चरों
का बाथरूम सीन उसके जेहन में इस कदर उत्सुकता भर देता है कि वह पत्नी के साथ उसी
सीन को महसूस करना चाहता है। इस चाहना में स्त्री-पुरुष के मानसिक द्वंद्व और उसके
वातावरण की कठोरता को किस कदर लेखक ने बुना है कि पढ़ते हुए एक टीस मन को सालने
लगती है। इसी प्रकार ’अगले जन्म का प्यार", ‘धूप का एक टुकड़ा’,संत, सत्यवान
और सुधीर’,’सड़क पर’,बगैर सूरज के एक
दिन’, घड़ी अब भी बंद है’ और ‘टाइमिंग’ कहानियाँ हैं। जिनमें जीवन के खालीपन और
खिलदड़ेपन को अनुभव की कलम से बुना गया है।
जैसा कि इस पुस्तक के व्लर्व पर कथाकार विवेक मिश्र जी ने लिखा है कि,” सुधांशु प्रायोजित विमर्शों के डिजायनर कहानीकार नहीं
हैं। उनके लिए कहानी एक उत्पाद नहीं है और इसीलिए उनकी कहानियाँ बिलकुल अलग आस्वाद
की कहानियाँ हैं। इन्हें सही रूप में समझने के लिए पाठक को घटनाओं, परिस्थितियों से अलग उनके व्यक्ति और समाज पर पड़ने वाले प्रभावों को समझना
होगा।”
विवेक मिश्र जी के कथन से मैं भी पूर्णतया सहमत हूँ। आपकी कहानियाँ जीवन के
बियावान में प्रेम और हिंसा जो मीठे कथनों और प्रकथनों के नीचे छिपी होती है, को समझने के लिए जिज्ञासा, प्रश्नाकुलता,
संवेदनात्मक जागृति, जीव-जगत के प्रति
प्रतिबद्धता जगाती हैं।
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