बचपन वाली पीली पड़ चुकी किताब से
सच कहा जाता है कि रचनाकार के लिए विषयों की कमी नहीं होती, उसे रुक कर दृश्यों, वस्तुओं और व्यक्तियों को अलग नजरिए से देखना आ जाए। इन्स्टा पर घूमते हुए एक दृश्य पर नज़र टिक गयी। उसका कारण एक तो मुझे घीचा सिल्क की साड़ी बेहद पसन्द है। दूसरे मॉडल की सुंदरता को देखकर उसकी माँ का ख्याल हो आया।और जब माँ-बेटी दोनों याद आने लगीं तो "रिश्ते" नामक शब्द पर आकर विचारों की सुई अटक गई कि इन दोनों माँ-बेटी के बीच रिश्ता कैसा होगा?
संबंध का अर्थ मेल या जोड़ होता है। यानी कि किसी एक का किसी दूसरे व्यक्ति के साथ मेल होना या तादात्म...। संबंधी का अर्थ, वह व्यक्ति, जिसके साथ संबंध जोड़ा जाता है या कुदरती तौर पर जुड़ा होता है किन्तु इन दोनों प्रकार के संबंधों में कभी तनाव तो कभी मधुरता का आना-जाना अपरिहार्य माना जाता है। ये बातें श्रुति ज्ञान से प्राप्त की गई हैं।
लेकिन अब जबकि साथ में अपनी बुद्धि की बात सुनी-गुनी तो "रिश्ता" नामक शब्द या तत्व उस व्यक्ति से बड़ा होता है, महसूस हुआ, जिसके साथ ये जुड़ा होता है।
कितनी बार किसी रिश्ते में बंधे व्यक्ति को रिश्ते से निरस्त, स्थगित, दरकिनार या ख़ारिज कर दिया जाता हैं, या फिर व्यक्ति अपनी मर्जी से रिश्ते से स्वयं निकल जाता है। उसके बाद दो व्यक्तियों के बीच जो रिक्तता में बचा होता है, वह सिर्फ़ 'रिश्ता' होता है। यानी शब्द बन चुका रिश्ता जो हमेशा एक-दूसरे को आभास कराता रहता है कि कहीं किसी के साथ किसी के जीवन के तंतु जुड़े थे, जो अब नहीं हैं। यहाँ भी पीड़ा उत्सर्जित होती है, पर वह इन्सान को हिलाने वाली नहीं होती। नींद उड़ाने वाली नहीं होती। हाँ, एक गहरी टीस-सी रह-रह कर ज़रूर उठती रहती है, जो जब-तब असाध्य भी हो जाती है। उस स्थिति में पीड़ित व्यक्ति के द्वारा दो-चार बूँद आँसुओं को विसर्जित कर अपने को शांत करते देखा जा सकता है।
लेकिन दूसरी स्थिति में रिश्तों की रवानगी गंभीर हो जाती है। यहाँ 'रिश्ता' उड़ जाता है, व्यक्ति बच जाता है। किसी साज़िश के तहत व्यक्ति अपने हृदय से रिश्ते को निरस्त, स्थगित, दरकिनार या ख़ारिज कर देता है। यानी कि यहाँ रिश्ते को साँप की केंचुल की भांति छोड़ कर कुत्सित व्यक्ति प्रकट हो जाता है, जो बेहद पीड़ादाई स्थिति का द्योतक बन जाता है।
जितनी भी घरेलू यौन हिंसाएँ-दुर्घटनाएँ होती हैं, उनमें रिश्तों को धता बता कर व्यक्ति अपने इर्दगिर्द रहने वाले कोमल मन के रिश्तों को तहस-नहस कर डालता है। ऐसे रिश्तों से संबंध नाम तत्व अपनी गरिमा के साथ विदा हो जाता है, या जानबूझ कर दिया जाता है। ये एक अबूझ पहेली है। रिश्ता चट किया हुआ व्यक्ति जो बचता है, वह पशु की भांति सामने आता है। यह स्थिति जान लेवा हो सकती है। इस पीड़ा से गुजरने वाला ही बता सकता है कि वह क्या महसूस करता होगा। सुनने में तो आया है कि पीड़ित व्यक्ति अपनी स्मरणशक्ति तक खो बैठता है, और अवसाद तो यहाँ प्रसाद की तरह बाँटा जाता है।
पता नहीं कितने प्रकार के एजुकेशन के साथ सेक्स एजुकेशन पर बहुत बल दिया जा रहा है कि अन्य देशों के भांति भारत में भी इसे पढ़ाया-समझाया जाए। ये बातें देश हर तपके में धड़ल्ले से लगातार चलती रहती हैं। लेकिन रिश्तों को ठीक-ठाक पढ़ाने-समझाने की बात कम ही देखने-सुनने को मिलती है। आख़िर इस मुद्दे को कैसे सुलझाया जाए? तो मैं फिर कहूँगी कि इसके लिए बड़े-बड़े अध्यापकों की और न ही पाठशालाओं की आवश्यकता है क्योंकि रिश्तों की पाठशाला परिवार से बेहतर कोई हो ही नहीं सकती।पहले तो माँ-पिता अपनी भावनात्मक,अनुशासनात्मक क्षमता को परखें फिर ही शिशु को लाने की सोचें। शिशु के आने बाद बच्चे की माँ के साथ-साथ परिवार के हर सदस्य की जिम्मेदारी निश्चित हो कि नवजात शिशु से लेकर उसके बाल्यकाल तक जब भी कोई उसके पास आये पूरे होश-ओ-हवास में आये और अपनी कथनी और करनी से उस नन्हें शोधार्थी को शिक्षित करें।
जब माँयें अपने बच्चों को रिश्तों की पहचान करा रही होती हैं, उस दौर में रिश्तों की पढ़ाई में बच्चों के समक्ष वे अपनी
भूमिका चौकन्नी, धैर्यपूर्ण, अवलोकनीय, औदार्यपूर्ण और शुचितापूर्ण सुनिश्चित करें। रिश्तों की गरिमा समझें और समझाएँ। बच्चों को कोई
बात समझाने के लिए छोटी-छोटी नीतिपरक कहानियाँ सुनाई जा सकती हैं। वैदिक कालीन ऋषि कुमारों
और कुमारियों की ज्ञानपूर्ण निर्णय लेने एवं व्यवहार करने की बातें बताई जा सकती
हैं या और भी जो ज़रूरी हो सके किया जा सकता है।
रिश्तों की गरिमा को समझाने के लिए एक माँ को अच्छी कहानी सुनाने और आसु कहानी बनाने वाली होना चाहिए। जो पल में सिचुएशन के हिसाब से कहानी बना सके क्योंकि हम कितने भी बड़े क्यों न हो जाएँ जब अनुभव की किताब खोलने की बात आती है तो हम अपनी बचपन वाली पीली पड़ चुकी किताब से व्यवहार को अंजाम देते दिखाई पड़ते हैं। उसे हम संस्कारों वाली किताब भी कह सकते हैं।
संस्कार ग्रहण करना इमली का चूरन चाटना नहीं और संस्कार देना कोई वस्तु या उपहार देने जैसा कार्य नहीं कि उठा कर किसी को कभी भी पकड़ा दिया जाए। दरअसल संस्कार दिए नहीं जाते गढ़े जाते हैं, जिनमें दोनों लेन-देन कर्ता को उदार और सहज रहना पड़ता है। तितिक्षा का गुण ज्यादा मात्रा में संघनित कर दोनों को धारण करना पड़ता है। संस्कारवान बनने की चाह रखने वाले बालक या बालिका को श्रद्धा भाव को भी विनम्रता पूर्वक अपनाना पड़ता है। रिश्ते उसी परिवार के खुशनुमा हो सकते हैं जहाँ संस्कार निहित होते हैं। इसमें स्त्री की भूमिका मुख्य है।
खैर, इस तरह के कार्य करते हुए स्त्री को एक सुलझे और विकसित किसान की तरह अपने को समझना चाहिए। जिसकी दृष्टि में समाजिक हाव-भाव के लेसन प्लान हमेशा खुले होने आवश्यक हैं। माँ रूपी स्त्री फसल की तरह जब अपनी संतान को हर ओर से रक्षा, सुरक्षा, प्रेम, क्षमा, प्रोत्साहन, उदारता, आत्मबल, संतोष,जूनून आदि इत्यादि गुणों से सींच कर बड़ा करते हुए समाज रूपी बखार में सहेजे तो किसी और के द्वारा अपनी तारीफ करवाने या पाने का इंतजार न करते हुए अपने कंधे स्वयं थपथापाने का प्रयास कर सकती है। आखिर सृष्टि का मूलाधार मानव ही है।अस्तु
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आपकी लिखी रचना सोमवार 5 दिसंबर 2022 को
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
इस रचना को पांच लिंकों का आनंद पर चर्चा के बीच रखने के लिए संगीता स्वरूप जी आपका बहुत आभार
Deleteरिश्तों के उतार चढ़ाव और बचाए रखने के लिए मूलभूत बातें अच्छी तरह से आलेख में शब्द बद्ध की गयी हो
ReplyDeleteरिश्तों की गरिमा बनी रहे, आपसी सौहार्द और प्रेम बना रहे इसके लिए ज़रूरी है संतान को घर में स्वस्थ वातावरण मिले, सुंदर आलेख!
ReplyDeleteएक अलग सी, विचारणीय पोस्ट।
ReplyDeleteरिश्तों का जिक्र आते ही मुझे याद आती है जुट की वह जेवड़ी जो मेरे दादाजी गूंथते थे। उसे गूथने के लिए वह एक साधना सी करते थे। एम दम मौन..
ReplyDeleteगहनता लिए बहुत ही सुंदर सराहनीय सृजन दी। आपको ख़ूब बधाइयां।
प्रिय अनिता सैनी, गिरजा जी, अनीता जी ,देवेंद्र पांडे जी आप सभी का हार्दिक आभार।
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