कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
खैर, आज सुबह आँख खुलते ही अनायास दिमाग़ में एक अजनबी विचार ने दस्तक दी और दिन पार करते हुए भी टटका विचार बराबर मेरे साथ चलता रहा। किसी भी प्रकार से सुबह से शाम तक हर छोटी-छोटी घटनाओं और इच्छाओं में उसका दमन नहीं हो सका। एक छोटा-सा विचार दमदारी से अन्य विचारों के साथ मन में विहार करता हुआ जीवित बना रहा, और अब देखिये उसी की महिमा कि लिखकर उससे हाथ छुड़ाने बैठ गयी हूँ।
आज न जाने क्यों संसार में जीव के आवागमन पर थोड़ा हटकर ध्यान अटक गया। जब चिन्तन जीवन-मृत्यु को देखने लगा तो सुने हुए ज्ञान के अनुसार पता चला कि संसार में आवागमन में व्यक्ति द्वारा किए कर्म सूत्रधार की भूमिका अदा करते है। जिस तरह का कर्म जीव करता है, उसी के अनुसार इहिलोक-परलोक में फल को प्राप्त होता है। हमारी भगवत गीता ने भी इस बात की पुष्टि,”कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” ये कहते हुए की है।जिस तरह कर्म के द्वारा मनुष्य भौतिक लक्ष्य को प्राप्त करता है, उसी तरह मुझे लगता है कि कर्म में प्रेम के साथ यदि जोड़ दिया जाए तो मोक्ष को भी प्राप्त कर सकता है।
और मनुष्य चाहे तो चौरासी लाख़ जन्मों के फेर से स्वयं को बचा सकता है। कर्म करते हुए जीव की दृष्टि यदि सिर्फ प्रेम पर टिक जाती है तब उसके कर्म भी मोक्षित होने लगते हैं। जीव के हित में प्रेम हर उस बात को नकार देता है जो उसके चौरासी लाख योनियों में भटकने का कारण बनती है। यह तभी संभव होगा जब प्रेम को स्थूलता से न जोड़ा जाए।
जीव के जन्म-मृत्यु को यहाँ दीपक और कपूर के प्रतीकों से समझने की कोशिश करते हैं। दोनों ही पूजा-अर्चन की विधि वैविध्य में आते हैं। दीपक में रखी जो ज्योति जल कर प्रकाश को अवतरित होने का अवसर देती है, वही तेल के मन को जलाती है। यहाँ दीपक संसार, जीव बाती और तेल सांसारिक उपादान जिसके साथ जीव कार्य व्यापार करता है। दीपक जला, उजाला फैला, प्रार्थनाएँ की गयीं, स्तुतियाँ लुटाई गयीं और जैसे ही दीपक में तेल चुका वैसे ही बाती काली होकर मौन हो जाती है। लेकिन अपना नामोनिशान मिटाने में असमर्थ होती है। बासे दीपक को देखकर उसके जलने का पता लगाया जा सकता है। वह अलग बात होगी कि उसमें तेल कैसा जलाया गया था, उसी के अनुसार बाती के अवशेष बचेंगे। जीव ने जैसे कर्म किए होंगे उसके जन्म का निर्धारण होगा। श्रीमानो के घर जन्म मिलना भी श्रीयुत कर्मों का फल ही माना जाता है। मनुष्य के जीवन को इस तरह समझा जा सकता है।
उसी प्रकार प्रेम को कपूर की भांति इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि कपूर जितनी देर जलता है बस उतनी देर वह पूरे समर्तपण के साथ त्परता से सुगंध और प्रकाश लुटाता है और जब चुकता है तो अवशेष के रूप में थाली में या जिस बर्तन में वह जलाया गया, श्वेत धुआँ चिपका दिखता है। जो जीव कपूर की भांति कार्य करता है वह मोक्षित हो जाता है, उसका जन्म नहीं होता बस लोगों की जुबान पर धुंआ की भांति उसका नाम बचा रह जाता है।
प्रेम को साधना
और प्रेम की साधना दोनों कठिन है। इतिहास गवाह है कि जिसने इस संसार से
पीठ फेरी है, वह मोक्ष खोजने नहीं अपितु ईश्वर यानी कि प्रेम की ख़ोज में भटकता रहा है और जब मिला तो तत्वज्ञानी की उपाधि पा कर अपने नाम की खुशबू संसार के हाथों में छोड़कर मोक्षित हो गया। प्रेम को ईश्वर से कम मानना मानवीय नादानी है।
****
Comments
Post a Comment