अन्वेषण की आकांक्षी स्त्री
आओ आवरण बांचें सीरीज में अनीता सैनी 'दीप्ति' का कविता संग्रह 'टोह' जो Bodhi Prakashan से प्रकाशित है। आज मेरे सामने है।
अनीता ने संग्रह
के शीर्षक का चुनाव बहुत सोच-समझकर किया है। उसके बारे में कवयित्री क्या सोच रखती
है नहीं पता। लेकिन मुझे लगता है कि 'टोह' ज़िंदगी मापने का एक ऐसा टूल है जो व्यक्ति को हर उस बात के लिए सचेत करता
है, जिसका असर उसके जीवन पर हो सकता है।
बिना टोह लिए
किया गया कार्य वैसे ही होता है जैसे किसी बिल में पकड़ने जाओ चूहा और मिल जाए
नाग।
आवरण पर अंकित
चित्र और रंगों का समावेश भी बहुत सुंदर और परंपराओं को धता बताने वाला दिख रहा
है।
यह बात इसलिए
कही जा रही है क्योंकि स्त्री की साड़ी का रंग गुलाबी या लाल न होकर बैंगनी रखा
गया है। इतने चटख रंग पर स्त्री को कभी अधिकार ही नहीं था। उसके लिए 'पिंक'
यानी कि गुलाबी रंग ही निर्धारित किया गया था। स्त्री की भावनाएँ
पिंक कलर में ही ध्वनित हो सकती हैं, सोच की सीमित परिधि न
मालूम किसकी थी।
ख़ैर, आज स्त्री के लिए "टोह" एक व्यवस्था का नाम है। स्त्री का
स्वावलंबी सफ़र इसी टोह की उँगली पकड़े-पकड़े उत्तरोत्तर आगे की ओर बढ़ता जा रहा
है।
आवरणकार ने जिस
स्त्री को इस शीर्षक के लिए उकेरा है, उसका तादात्म हठी,
जुनूनी, उन्नतिशीला, स्वयंसिद्धा
और अन्वेषण की आकांक्षी स्त्री से है।
हठी स्त्री के
सिर पर विस्तृत गगन ने अपने साफा से छाँव की तो हिमालय ने अपनी गोद में उसे बैठा
लिया।
वैसे कवर वाली
स्त्री को आंगन, चौका, दालान, बगीचे आदि में भी दिखाया जा सकता था लेकिन तब टोह का अर्थ शायद संकुचित हो
जाता।
स्त्री की फर्श
से अर्श तक की यात्रा का उद्घाटन बराबर चित्रकार ने अपनी कूची से किया है।
स्त्री ने आंगन
से हिमालय तक की दूरी तय करने के लिए हमेशा टोह को एक टूल की तरह उपयोग में लिया
है।
स्त्री भले बाहर
से शांत दिख रही हो लेकिन उसके अंदर एक सघन छटपटाहट है, उन्नतशीला जिंदगी को टटोलने की।
दरअसल स्त्री आज
की ही नहीं अपितु बीते हुए उस वक्त की शिनाख्त कर रही है जो स्त्री के लिए अपने
हृदय में कटुता रखता था। वह टोह ले रही है, ऋतुओं और जीवन की,
मानवीय उन तमाम वृत्तियों की जो पल-पल अपना रूप बदल कर उसे चकित कर
रही हैं।
स्त्री टोह रही
है विकास का मन जो कभी-कभी आघात करने से नहीं चूकता। स्त्री अब तकनीकी आँधी से
निपटने की टोह में है। वह चाबी के खिलौनों की औक़ात जानती है इसलिए इंसान से इंसान
पैदा होने की टोह में लगी स्त्री को सलाम है।
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जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२४-१० -२०२२ ) को 'दीपावली-पंच पर्वों की शुभकामनाएँ'(चर्चा अंक-४५९०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteअनीता एक संवेदनशील रचनाकार हैं, आपकी दृष्टि समाज में व्याप्त रुढियों को देखती भर नहीं महसूस कर झकझोरती भी है . अनीता की कविताओं का केंद्र संवेदना है . अनेक बधाई टोह कृति के लिए .
ReplyDeleteकल्पना मनोरमा जी ने बोद्धिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से आवरण को देखा है परखा है और सांगोपांग विवेचन किया है, जैसे हर रेखा कुछ कह रही है कवियत्री के सृजन पर, और पारखी मनोरमा जी ने हर भाव को फिर से शब्दों में उकेर दिया ।
ReplyDeleteये एक अभिनव प्रयास है जो की आकर्षक और चिंतन परक है कि हर चित्र बहुत कुछ कहता है, और हमेशा आवरण पुस्तक के मसौदे के अनुरूप होना चाहिए ।
मनोरमा जी को इस शानदार आवरण समीक्षा पर हृदय तल से बधाई एवं साधुवाद।
अनिता जी को अनंत शुभकामनाएं,टोह जल्दी ही हम सब के हाथों में हो और हम भी टोह लेने लगे की टोह की टोह में क्या क्या टोह लगी है।
पुनः अशेष शुभकामनाएं।