हरसिंगार वाले दिन
हरसिंगार वाले दिन माने, मेरे बचपन का हरा उमंगित रंग, उत्सव की समृद्धशाली गमक, माँ का गीला स्नेह, सपनों का मोहक संसार, शाम ढले पखेरुओं की कतारें में पंछिओं को गिनने की खुद से होड़, प्रकृति के सानिध्य की परिकल्पना में निजता पुष्पित होने का प्रतिक है।
आज भी जब हम कंक्रीट के जंगल में समय बिताने के लिए मजबूर हैं तब भी हर वर्ष अश्विन मास की आबोहवा में जो सौंधापन घुलकर मेरे पास तक चला आता है, वह हमारी जड़ों द्वारा सोखी हुई ताजगी है जो कभी सूखती नहीं। यह समय दुर्गा माँ की मर्यादाओं का घंटनाद वातावरण में व्याप्त कर स्त्री की भूमिका को चौमुख दीया जैसा दमका जाता है। बरसाती मन निर्मल पवन की तरह उल्लासित हो स्मृतियों की भूमि पर चुए हरसिंगार चुनने दौड़ पड़ता है। हरसिंगार के फूल रात की आँखों में फूले प्रकृति के सपने होते हैं, जो सूरज की पहली किरण पर पृथ्वी पर बरसकर अरुणोदय को अपना श्वेतवर्णी आह्लाद सौंप देता है और पवन के दुपट्टे पर इत्र की नरम फ़ुहार छिड़क कर अपना जीवन धन्य बना लेता है।
इस मौसम में क्षितज का पसीजना शुरू होना और वनस्पतियों को ओस का मिलना ऋतु आगमन की ख़ासियत बन जाती है। आम बागों में सन्नाटे की चादर पर रात-रात भर ओस का पत्तों के सहारे टपकना, अँधरे के होंठों पर नरमाहट को बिखेरकर सजल करने वाले खिले-खिले दिन भला कौन भूलना चाहेगा ? दूब घास से भरी पगडंडियों के सहारे झुकी-झुकी धान की सुआपंखी फ़सलें रुपहले वातावरण को इतना महकाती की हिलाती-डुलाती हवा के झोंकों में बटलोई में पक रहे चावल जैसी खुशबू फैलना गाँव के जीवन में शुमार हो जाता था।
माँ का सूती दो धोती निकाल लेना, उनका व्रत वाले कुम्हलाए मगर तेजस चेहरे पर लगी लाल सिंदूर की बिंदी, धुले बालों से टपकता बूँद-बूँद पानी, माँ की गीली पीठ से चिपकी उनकी धोती से झाँकते बड़े-बड़े बाल बचपन के मन में एक अद्भुत शांति का पिटारा खोलते थे। पूजाघर से मोंगरा धूपबत्ती की भीनी-भीनी सुगंध का उठाना, हवन में गुग्गल-लोभान के धुंवे का मुस्कुराते हुए लकीर बनाकर जाल के उस पार निकल जाना, पूजा की थाल में जलता प्रेम का दीया और बरसात को पिए खड़ी हरियाली तुलसी का लहलहाना मानो सम्मुख हो उठता है।
अभी से दशहरे और दीवाली आने की खुशी इतनी जोर पकड़ती कि मन का मोर नाच-नाच उठता। बार-बार माँ के द्वारा दीवाली पर बनने वाले पकवानों का हिसाब लगाना, तराजू पर गेहूँ की तरह शक्कर का तौला जाना, रोज़-रोज़ गाय-भेंस के दूध से खोये के लौंदे बना-बनाकर जमा किया जाना, और बच्चों को बहलाने के लिए खोया-शक्कर मिलाकर माँ के द्वारा बच्चों को बाँटना, बड़े-बड़े बटुए और परातों का बड़े संदूकों से खिसक कर रसोई के छोटे-छोटे रोज़ मर्रा के बर्तनों में शामिल हो जाना कितना लुभावना दृश्य होता था, नन्हीं आँखों के लिए। उन बड़े-बड़े बर्तनों को माँ के द्वारा नीबू की दम पर चमका देना, चमकते बर्तनों की अंदरूनी ख़ुशी देख-देख बच्चों के मुँह में लड्डू फूटना, पेड़े, बेसन की बर्फी और जलेबी का स्वाद आ जाना कितना अबोध और ऊर्जावान एहसास होता था। कच्ची-पक्की छतों पर घिया (लौकी) की बेलों में लगे तूमें नुमा घिया को तिल-तिल बढ़ते देखना और बर्फी का काल्पनिक स्वाद लेना बच्चेपन की अबोध निशानियाँ थीं।
सत्तर-अस्सी सन वाले बचपन में ये दिन शॉपिंग के नहीं, बसावट के होते थे, मनमुटाव खत्म कर अपने व्यवहार को लचीला और सुहृदय बनाने के होते थे। जैसा बच्चे अपने बड़ों को करते देखते थे वैसा वे भी करते थे। नेज़ा की कलम, स्याही की टिकिया, बेर, गुन्नी, कैंथा वाली लड़ाइयाँ खत्म कर कट्टी मिट्ठी में बदलने के दिन यही होते थे। तब के बच्चों को चूना से पुता झक्क-मक्क दीवारों वाला अपना घर स्वर्ग से भी सुंदर लगता था। एक कोने में दही मथती माँ यशोदा से कम कभी नहीं लगी। माँ के तन की खुशबू आहा! दुनिया की सबसे मँहगी सुगंध से भी बढ़कर लगती थी। आदिम गंध का दीवाना बचपन निर्लिप्त और अनोखा होता था। जिसे सिर्फ स्नेह और दुलार की आकांक्षा के अलावा कुछ चाहिए, का होश ही नहीं होता था।
घर के बाहर प्रांगण
में लगे अशोक के पेड़ों पर चहकती चिड़ियों का साथी मन रोज भोर के साथ नवा हो उठता था, तो दोपहर के साथ तपता और शाम के साथ फिर से ठंडा हो जाना उस वक्त के भोले बचपन की गहरी पड़ताल थी। कोई लौटा दे मेरे हरसिंगार वाले
दिन!!
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(०३-१० -२०२२ ) को 'तुम ही मेरी हँसी हो'(चर्चा-अंक-४५७१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
ओह! जेहन में बचपन के दिनों की ताजगी फैलाकर रोमांचित कर दिया तन-मन आपने .. बहुत अच्छा लगा उन रंगों में डूबना .
ReplyDeleteएक सुखद अनुभूति हुई पढ़ कर । शब्द-शब्द ओस की बूंदों सरीखा तरोताज़ा करने वाला । मर्मस्पर्शी ।
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