अपना घर पुस्तकालय

 


स्त्री के बेघर होने की बात सदियों से बार-बार सामने आती रही है। जबकि स्त्री मनुष्य है, उसे सिंहावलोकनीय विचार करना क्यों नहीं सिखाया गया?

क्यों बार-बार उसके आगे ये जताया गया कि उसका अपना कोई घर नहीं होता है? क्यों उसे उखाड़ने और रोपने के द्वंद्व ही उसका हासिल हैं? बताया गया।

क्या सबसे पहले स्त्री को उसकी आत्मा का घर "शरीर" की महिमा और गरिमा को बताया गया? जो विशुद्ध रूप से उसका अपना होता है। उसे अपनी खुशी सबसे ऊपर रखना क्यों नहीं सिखाया गया? क्या उसे स्वस्थ्य रखने की कोशिश की गयी? जबकि स्वस्थ्य तन में स्वस्थ्य मन का निवास है, चिंतनशीलों ने सभी का ध्यान आकर्षित कर खूब बताया-जताया है।

क्या वे सारी बातें जो स्त्रियों के लिए डर की पर्याय मानी गईं, उनकी विवेचना स्त्री-हित में की गई? क्या डर जहाँ से उत्पन्न होता है, उसका भेद समझाया गया? डर से उबरने का शऊर उसे सिखाया गया? या फिर पराये शब्द में आबद्ध कर उसे अस्तित्वहीन बनाने की एक गहरी साजिश शिक्षाहीन स्त्री को ही सौंप दी गई

 

क्यों नहीं उसकी रचनाधर्मिता के विशाल फलक की सराहना की गई? जबकि स्त्री आश्रयहीन नहीं अपितु आश्रयदाता है। क्यों नहीं उसके बड़प्पन को स्वीकारा गया? यदि घर ही आश्रय देता होता तो इतिहास गवाह है कोई....दो पल के सुकून के लिए किसी  स्त्री की शरण न जाता। खैर ये एक अलहदा विषय है।

स्त्री पुरुष सहयोगी हैं इस संसार के हित में। दोनों के बीच फांक पैदा किसने की? एक का महिमामंडन और एक को नर्क का द्वार क्यों बनाकर पेश किया गया?

आख़िर कोरे कागज़ स्वरूप शिशु में मनुष्यत्व भरने का काम किसका है? इस बात की गहराई न समझकर उस नवशिशु धारणीय स्त्री को खाली क्यों नहीं छोड़ा गया? जो वह कोरे मन का मानवीय धरातल पूरे मनोयोग से गढ़ पाती? क्यों उसे बेकार के कामों में उलझाया गया? क्यों उसके इर्दगिर्द क्लेश के बाजार लगाये गए? क्यों स्त्रीशिशु को नवजात शिशु मानकर उसका संरक्षण नहीं किया गया?

इसलिए मानव लोक की स्त्री को अपनी दृष्टि सिंहनी की तरह पैनी करनी होगी। भले सिंह को जंगल का राजा कहा जाता हो लेकिन अपने शिशु को शिकारी बनाना उसे आता ही नहीं. उसके लिए वह अपनी मादा पर पूर्णरूप से आश्रित है. क्या मानवीय दुनिया में ये सत्य निहित नहीं है? या उसे भी नजरंदाज करना ही नियति है?

उसी तरह स्त्री को अपने मन के भीतर बालक-बालिका का भेद स्वयं हटाना होगा. स्त्री का घर सकल ब्रम्हांड है. वह पैदा होते ही प्रमुख है, पराई नहीं। बस उसका सबसे पहला अधिकार शिक्षा पर होना चाहिए, उसे बताना होगा। अगर ऐसा सोचना स्त्री शुरू नहीं करती है तो फिर वही लोकोक्ति याद आएगी,"अपना दाम खोटा तो क्या लाग परखा की?"

स्त्री जब समझदार हो जाए तो उसको किसी के बताने की आशा या इन्तजार न करते हुए सबसे पहले अपना घर पुस्तकालय को मनाना होगा.परम्पराएँ यदि बनाई जाती हैं तो उनको पुनर्नवा करने के लिए उन्हें तोड़ना भी जायज होगा. 

 

उसके बाद के घर तो उसके पास स्वत: चले आयेंगे क्योंकि ज्ञान से विज्ञान पैदा हुआ है, विज्ञान से मनुष्य नहीं. जिसे विकास की धुरी बताया जा रहा है. हम स्त्रियों को ये बात प्रमुखता से याद रखनी होगी. परम्पराएँ यदि बनाई जाती हैं तो उन्हें पुनर्नवा करने के लिए यदि तोड़ना पड़े तो ये बात भी जायज कहलाएगी. 

लेखिका : कल्पना मनोरमा 





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