दिन के अँधेरे

प्रयाग शुक्ल जी के चित्र का चरित्र चित्रण(2)

रात के अँधेरों से ज्यादा खतरनाक दिन के अँधेरे होते हैं। कई-कई बार नौजवानों को इन्हीं से मुठभेड़ करते देखा है। दिन के अँधेरों में दिखने वाले तारे टिमटिमाते नहीं और चाँद जादुई रंगत नहीं बिखेरता। रात जैसी आत्मीयता भी दिन के अँधेरों के पास नहीं होती।

निरंतर यात्राएँ मन को थकान से तब भरने लगती हैं जब उनके दृश्य अंदर की ओर न खुलकर, बाहर की ओर खुलते हैं। बाहर के दृश्य इतने उथले और बेजान होते हैं कि धूप से तपे हुए दृश्यों में जमा ठंडापन किसी यातना से कम नहीं लगने लगता।

जीवन की खदान, कोयला खदानों से कम नहीं होती। हाँ, फ़र्क बस इतना हैं कि जीवन की खदानों में इंजीनियर, खल्लासी, टोर्चमैन से लेकर अंतिम मजदूर तक सिर्फ़ हम ही हम होते हैं। चलो हम ये सोच भी लें कि अपने हाथ जगन्नाथ, फल प्राप्ति का महान अवसर है लेकिन इतनी एकाग्रता लाएँ कहाँ से जो अभीष्टता को प्राप्त हो सकें।

अब देखो न! सबसे प्रिय कार्य, संगीत सुनते-सुनते हम कभी भी बच्चों की पेरेंट्स मीटिंग में अध्यापकों से झगड़ने पर पहुँच जाते हैं, पड़ोसियों के झगड़ों में बीचबिचाव कर किसी की सहानुभूति के कारक बनने की चेष्टा में लग जाते हैं।  किसी गरीब को उधार दिए चंद पैसों को वापस लेने की जुगाड़ में इतने उलझ जाते हैं कि अंदरूनी प्रतिवाद सघन हो जाता है और संगीत का राग रस हीन होकर मन छीलने लगता है। फिर भी हम उसे सुन रहे होते हैं। अचंभा इस बात का है।

ईद का चाँद मुबारक है, ये किसे मालूम ? पाक दिल के दामन तार-तार नहीं होते हैं, किसने देखा?

फातिमा की अटारी ओढ़ लेती है चाँद उसी तरह जैसे कुतुबमीनार ओढ़ती है ईद वाला मुबारक चाँद। कुतुब आज़ तक मीनार में जिंदा है मगर फातिमा का गुमान अटारी पर पतंग उड़ाते हुए शोकजदा, मरा सा बैठा है।

गुमान चाँद से परेशान नहीं, उसका माँझा किसी मंदिर के गुम्बद में जा अटका है और उसी की बगल में मस्जिद खड़ी मुस्कराती तो है लेकिन हाथ माँझा की ओर नहीं बढ़ाती। ये दुख उसे खाए जाता है।

"हम गले भी मिलते हैं और हाथ भी मिलाते हैं। फिर भी रोजे क्यों टूट जाते हैं ? फातिमा हर ईद पर पूछती है। मन है तो दुखेगा ही, दिल सिमट जाते हैं छाती के पिंजर में गहराई से और भावनाओं के ज्वारभाटे उमड़ते भी हैं लेकिन कभी  मन की हिलोरें उफनाकर बहें तब भेद-भाव पुराने टापू की तरह शायद बह जाए? तब हम ईद से मिलेंगे हम बेगुमान।"

हरे रंग से पुती दीवारों वाले आँगन में दोनों हाथों को ऊपर की ओर सजदे में जोड़े भावुक फ़ातिमा देती उल्हाना है लेकिन कोई उसे सुनता है? ये भ्रम उसे भी है।

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