हम किसी भी तरह बच जाना चाहते हैं

  


विदाई के वक्त मन भारी न हो तो वह मन कैसा? मन प्रेम में पिघल कर आँखों के रास्ते बहे नहीं तो वह प्रेम कैसा? जब प्रेम में विरह फूटता है तो प्रेम की जड़ें कानों के आसपास अँखुआती हुईं महसूस होती हैं। हृदय की दीवारों को प्रेम का स्फुरण धीरे-धीरे प्रेमी को भिंगोता हैं--- जैसे बरसात की नरम फुहारें किसी मिट्टी के घर को भिंगोती हैं। मन की डाल पर देखते ही देखते प्रेम का फल नहीं लगता। पहले आँसुओं की लड़ियाँ गालों को भिगोते हुए तसल्ली से किसी एकांत पल में प्रेम के बिरवे को सींचती हैं तब कहीं कोई कली चटखती है। प्रेम की कली कपास की नहीं कमल की तरह होती हैं

 

प्रेम प्रेमी को चीखने कहाँ देता है? अगर प्रेम प्रेम कर कोई चीखता फिरे तो वह प्रेमी कैसा? प्रेम के आँसू गाढ़े होते हैं। वे ज्यादा देर बहते नहीं, आँखों के किनारों पर चिपक जाते हैं मौन। जैसे रात का स्याह अँधेरा किसी की आँख का काजल नहीं बनता पर प्रकृति की ऊँच-नीच छिपाकर समता भर देता है। उसी तरह धूप को कूट-पीटकर गहने में नहीं ढाल सकते पर धूप पिए गेंहू ही हमें पोसते हैं। गगनचुंबी टहनियों पर टांग भले दो मन को पर हवा के झोंके उसे उड़ा नहीं सकते, मौसम उसे पका नहीं सकता और आँधियाँ उसे गिरा नहीं सकती पर मन अपने अनुसार जो चाहे वह कर सकता है।

 

संध्या को संज्ञान है कि सूरज उसका हो नहीं सकता फिर भी प्रतिदिन उतर आती है सागर किनारे गेरुआ दुपट्टा लहराते हुए और सूरज भी देखता है उसे मगर खींचकर दुपट्टा डूब जाता है उसके ही सामने संध्या चाहकर भी उफ तक नहीं कर पाती। उसकी ख़ामोशी पर चाँद का मन पिघलता है वह झुककर उठा लेता है संध्या को बाहों में रात समझ पहर आवाद हो जाता है दोनों की जुगलबंदी में।

जब हम यात्रा पर निकलते हैं तो क्या लगता है कि पटरियों पर सिर्फ़ रेल सरकती है? नहीं, हमारा वक्त भी पीछे और पीछे छूटता जाता है, एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन के मध्य, मगर गाँव लिपटा रहता है उम्रभर पैरों में और हम सोचते हैं कि हम शहरी बन गए हैं...।

हम दुनिया में किसी भी तरह बच जाना चाहते हैं। इसी कमाना को अमर करने की जुगत में हम यहाँ-वहाँ अपने निशान छोड़ते फिरते हैं। जब रेत पर पाँव के निशान छोड़कर हम खुश होते हैं तब लहरें औचक आकर उन्हें समेट ले जाती हैं हमारे तलवों की गुनगुनाहट ठंडक में बदल जाती है और सागर के सीने पर अंकित हो जाती है हमारे पदचिन्ह की प्रतिलिपि जिसे देख पाना असम्भव है।

एक बच्चा मिलता है प्रेम से कि उसके परिवेश पर होता है शक बच्चे का मन पवित्र झरने की तरह झरता है अपने रिश्तों के बीच पर उसी बच्चे के मन को मटमैला बनाने के लिए हम सुनाते हैं मनगढंत अपने ही पोषित किए बैमनस्य के किस्से तब तक, जब तक कि वह भोला-भाला बच्चा मन से क्षुद्र न बन जाए। भर-भर बाल्टी जल से करते रहते हैं स्नान और जूठे मुँह ईश्वर को ताउम्र पुकारते रह जाते हैं। दिखाने के फेर में पड़कर जो प्राप्त होना था शायद उसे नहीं पा पाते और जन्म-मृत्यु की गली में भटकना अपनी नियति लिख लेते हैं।

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