माँ! तुम मुझमें ज़िन्दा हो

 

ये श्राद्ध वाले पुरखों को स्मरण करने के दिन हैं। मैंने स्वतंत्रता और स्वच्छंदता की महीन विभाजित रेखा को समझने वाली, स्वतंत्रता को संबल देने वाली और अपने सम्पूर्ण स्त्रीत्व को दृढ़ता से सहेजने वाली माँ को याद कर मानो उनकी संगत का सुख ले लिया है। आप जहाँ हों, स्नेह करने वाले लोगों से घिरी हों प्रिय माँ! आपकी सदा ही जय है❤️

आप अगर ये कहते हैं कि आज के समय में ही स्त्री जागरूक हुई है, तो ऐसा भ्रम मत पालिए जनाब! स्त्रियाँ सदियों से जागरूक होती आ रही हैं। हाँ, जागरूक स्त्रियों के प्रतिशत में बढ़ोत्तरी अब दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, जो स्त्री के नाते सुखद मानती हूँ।

मैं अगर अपनी बात करूँ तो सदियों पहले की तो नहीं, लेकिन अपनी तीन पीढ़ी की महिलाओं के बारे में ज़रूर जानती हूँ। दादी और उनकी माँ, नानी और अपनी माँ! इन सबमें मेरी माँ बेहद सजग और जागरूक महिला थीं। वे लोगों की मतलब पुरुष और स्त्रियाँ जो अपने वजूद से अनभिज्ञ होती थीं, उनकी चालाकियाँ, चापलूसियाँ, बातों की हेराफेरी, कार्मिक कुटिलताओं की मुर्कियाँ और पुरुषगत भीरू नियति को चुटकियों में पहचान कर उसके प्रति अपना मौन विद्रोह शुरू कर देती थीं।

मैंने माँ को अपने विचारों में हठी लेकिन सदा न्यायप्रिय और वैचारिक स्वतन्त्रता अपनी साँसों में सहेजे हुए ही देखा। चाहे जितनी शारीरिक और मानसिक टीस उन्हें झेलनी पड़ी हो, वे अपनी नियति और नैतिकता से एक पग भी पीछे नहीं हटीं। जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गई वैसे-वैसे मेरी समझ के अनुसार वे अपने अनुभव मेरे साथ साझा करती गईं। अनुभवों की साझेदारी में उन्होंने कभी परखी नहीं लगाई कि उनके पति से जुड़ी बेहद व्यक्तिगत बातें हैं तो मुझे न बताएँ, टोला-पड़ोस से छनकर आने वाली बातें या अपने मायके के लोगों की बातें मुझे न बाताएँ, ऐसा कभी नहीं हुआ। बल्कि जहाँ-जहाँ उन्हें मानवीयता को रौंदने वाले अनुभव हुए, उन्होंने दोनों पहलुओं से मुझे अवगत कराया।

कितनी बार मैं सामाजिक संदर्भो को समझ नहीं पाती थी। तब उनसे कहती थी, "माँ इसका मतलब क्या होता है? अगर मैं वहाँ होती तो मुझे क्या करना चाहिए था? मेरे प्रश्नों के उत्तर वे बेहद सहज तटस्थता से देती रहीं। ऐसा कभी नहीं मैंने देखा कि रात बिस्तर पर जाते ही माँ सो गयीं हों। वे लगातार चिंतनशीलता में गहरे गोते खाती रहती थीं।

अपनी गलती स्वीकारना मैंने माँ से ही सीखा। वे कहती थीं कि हम मनुष्य हैं तो गलती होना स्वाभाविक है लेकिन उसे अगर सहजता से मान लिया जाए तो व्यक्ति के मन से छूट जाती है। वहीं पर वे ये भी कहती थीं कि जहाँ तुम सही हो तो अडिग बनी रहो। समय सब कुछ आईना कर देगा। माँ के अन्दर गुस्सा बहुत था, जिसे मैं तब उचित मान पायी जब माँ ने दुनिया छोड़ दी। इसका मलाल कभी कमता नहीं है। माँ का गुस्सा उचित अब इसलिए लगता है कि अगर वह न होता तो वे देव ही कहलातीं लेकिन थी तो इंसान ही न! अपने-अपनों के लिए आभिष्ठ प्राप्य के लिए उनको तपते देखा है, अपनी इच्छाओं को स्वाहा करते देखा है। वे इस प्रवृत्ति की वजह से लगातार टूटती या अपनों के द्वारा तोड़ी जाती रहीं लेकिन मजाल उन्होंने स्वाभिमान का अपना एक कण भी कभी नीचे गिरने दिया हो।

खैर, माँ के जीवन अनुभव की साझेदारियों का नतीज़ा है कि आज मानवीय वृत्तियों की सुचाल और कुचाल मुझे पलक झपकते समझ आ जाती है। मेरी रचनाधर्मिता में माँ के सुनाए अनुभवों की धजीरें भर-भर कर आती है। मैं कह सकती हूँ कि मैंने एक सबल स्त्री की कोख से जन्म लिया।

❤️ माँ, तुम मुझमें जिंदा हो❤️

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