आँसू हृदय की अनुशंसा हैं

"हालात कैसे भी हों बहादुर कभी रोया नहीं करते, सीने में जिनके सीखने का जूनून हो वो कभी हिम्मत खोया नहीं करते।" -डॉ. विवेक बिंद्रा 

उक्त कोट को पढ़कर ज़रा-सा भी इसे मानने को दिल नहीं मानता। हालाँकि इस तरह की कोटेशनबाजी हमारी पीढ़ी के बचपन ने खूब सुनी होगी और ये उक्ति खूब चर्चित होते हुए भी देखी गयी होगी।

इस करुणा कलित हृदय में/ अब विकल रागिनी बजती क्यों हाहाकार स्वरों में/ वेदना असीम गरजती?/मानस सागर के तट पर/ क्यों लोल लहर की घातें कल कल ध्वनि से हैं कहती/ कुछ विस्मृत बीती बातें?आती हैं शून्य क्षितिज से/ क्यों लौट प्रतिध्वनि मेरी टकराती बिलखाती-सी/ पगली-सी देती फेरी?

रोना यदि कायरता की निशानी होता तो महाकवि जयशंकर प्रसाद जी अपनी कविता का कथ्य आँसू को क्यों बनाते। क्यों वे आँसू ग्रन्थ लिखते?

खैर, इस बात के इतर भी अगर देखें तो आज़ के समय में हो या बीते हुए वक्त में, ये कहना कितना गलत होगा कि बहादुर रोया नहीं करते
। क्यों भई बहादुरों के पास दिल नहीं होता? या उनकी महसूस करने की क्षमता बहादुरी सीखने में क्षीण हो जाती है? जबकि रोना एक बेहद सहज प्रक्रिया है। इंसान माँ की कोख़ से निकल कर पृथ्वी पर आता है तो सबसे पहले वह रोता है। यदि वह स्वयं नहीं रोया तो किसी के द्वारा उसे रुलाया जाता है। क्योंकि उसके जिंदा होने का सबूत रोने में ही छिपा होता है क्योंकि आँसू हृदय की अनुशंसा हैं। जब-जब हृदय विलगित होगाआँसू आँखों से रिसेगा ही, फिर भावना चाहे जैसी हो, सुख या दुःख की।

वैसे देखा जाए तो रोना सबको आता है और रोना सबको चाहिए भी। मन के गुबार को हल्का करने का ये सबसे बड़ा साधन है। आँसू बहादुर और डरपोक में अंतर नहीं समझते। वे मन को शांत करने का उपाय जानते हैं। कितनी बार हम अपनी बात किसी से नहीं कह पाते तब रोने के लिए एकांत खोजते हैं। एकांत में जब रो लेते हैं तो अपने आप मन दूसरे कार्यों में तत्पर हो जाता है।

आँसुओं से ज्यादा निश्छल भावना भला किसके पास होगी। ज़रा सी पुलक पर झरझर झर पड़ते हैं। कहीं प्रकरण था कि राधा ने कृष्ण को मथुरा के लिए विदा करते हुए पलकें इसलिए नहीं झपकाई कि जो भावनाएँ आँसू बनकर उनकी आँखों में उमड़ आई थीं, कहीं छलक न जाएँ।

पहले या कि आज भी माएँ ख़ास तौर से अपने बेटों को रोने से विमुख करने के लिए उन्सहें सिखाती थीं/ हैं, "तुम क्यों रोते हो,क्या लड़की हो? मेरा बेटा तो बहादुर है।" वहीं किसी लड़की की विदाई में उसके रोने और कलपने के अंदाज से उसके अपनत्व का अंदाजा लगा लिया जाता था/है।

कितने लड़के बहादुरी का चोला पहने-पहने सिसियानी दाल की हंडी की तरह बुदबुदाते रह गए और कितनी लड़कियाँ सिर्फ न रोने की वजह से संवेदनहीन करार दे दी गईं, गिनती नहीं।

जबकि मनुष्य का मन जब भावनाओं के गुबार को संतुलित नहीं कर पाता है तब वह अपना काम आँसुओं की ओर बढ़ा देता है। तो जब रोना आए तो रो खूब लेना चाहिए क्योंकि एक यही क्रिया करके  व्यक्ति अपने शारीरिक और मानसिक संरचना को सुथरा बनाकर साध लेता है। एक बूँद आँसू को अगर सूक्ष्मदर्शी के लैंस के नीचे रखकर परखा जाए तो मानवीय मानसिक जद्दोजहद को शायद सिरे से समझा जा सके।

इस कोट की अंतिम पंक्ति अच्छी है। सीखना सभ्यता का एक पैना टूल है। मनुष्य सीख-सीख कर ही सुंदर बना है और अन्वेषी भी। सीखना सिर्फ विकसित होना नहीं, ज़िंदा रहना भी है। अस्तु!

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