हँसो हँसो जल्दी हँसो

 


रात यात्रा पर है और मैं खिड़की में अकेली बैठी टिमटिमाते हुए तारों में से माँ और नानी को ख़ोज रही हूँ। जब से ये दोनों धरती छोड़ आसमान में रहने लगी हैं, मौका मिलते ही ढूंढने बैठ जाती हूँ। लैंप पोस्ट के नीचे शीशम की सूखी टहनियों में लगीं दो फलियाँ रात और मेरे बीच साक्षी हैं। अरे! अरे! दिखा, मुझे एक तारा ज्यादा टिमटिमाता हुआ-सा दिखा। ये माँ नहीं हो सकती, नानी हैं। मेरी नानी बहुत हँसती थीं इन्हीं टिमटिमाते तारों की तरह और इतना हँसने वाली माँ की बेटी, मेरी माँ! बहुत सोच-समझकर हँसती थीं और हर काम भी सोच-समझ कर करती थीं। इसलिए ज्यादा और बेवक्त हँसने पर मुझे डांट भी पिट जाती थी। "नानी की तरह बस सारा दिन हँसती रहती हो, ज़रा तमीज भी सीखो।" लेकिन नानी को मैंने हमेशा हर बात पर हँसते ही देखा था सो हँसना मुझे अच्छा लगने लगा था। 

धीरे-धीरे अनुभव पकता रहा और नानी को हर वक्त हँसते देख, मैंने बचपन में ही समझ लिया था कि उन्हें किसी भी प्रकार का दुख, दुःखी नहीं कर सकता और कैसा भी सुख हँसी से ज्यादा कुछ दे नहीं सकता इसलिए उन्होंने दोनों को हँसी से तौल लिया था।

रात भी हँसती है पर इसकी हँसी कोई योगी,यती सन्यासी ही पकड़ पाता होगा। वैसे आज रात मेरे पास ठीक से मुस्कुराते हुए आई थी मगर नामालूम नींद ने क्यों अपना दामन झटक कर छुड़ा लिया है। खिड़की की नींद में खलल न पड़े, मैं बिस्तर की ओर लौट आई। अरे! आप हँस रहे हैं? आपने सच में नहीं देखा वस्तुओं को हँसते और सोते हुए? अरे भई वस्तुएँ भी सोती और हँसती हैं। मैंने देखा है सर्दियों में सीलिंग फैन को सोते और मुस्कुराते हुए। बड़ा संतोष होता है उसे निश्चित सोया देखकर।

 

खैर, बिस्तर पर मेरी बगल में बहुत समय से किताबें सोती हैं। आज उनमें से कुछ मेरी आहट से जागी हुई हैं, कुछ आलस्य में ऊँघ रही हैं लेकिन मेरी ओर सब देख रही हैं। एक को मैंने उठा लिया तो सब भुनभुनाने हुए सुस्त हो गईं। हो जाने दो, एक साथ एक बार में सभी को महत्व दे पाना सम्भव नहीं। सब मेरे दिल के करीब हैं इसीलिए इतने नजदीक हैं, इन्हें समझना होगा। मैं किताबों की बातों में नहीं उलझती हूँ और कवि रघुबीर सहाय की काव्य कृति 'हँसो हँसो जल्दी हँसो' उठा लेती हूँ। कवि मुझसे भी वही बात दोहराता है। "हँसो हँसो जल्दी हँसो...!" क्यों भई हँसना क्या इतना आसान है जो कभी भी कहीं भी हँस पडूँ? बचपन की बात और थी। अब हमें नहीं आती हँसी किसी के कहने से। सोचते हुए मैं खुद से हँस पड़ी।

हँसने और रोने में कितना अंतर होता है? नानी से पूछा था मैंने एक बार कि वे इतना क्यों हँसती हैं? और कैसे हँसती हैं? जबकि उनके मुँह में एक भी दांत नहीं, जिन्हें देखकर कोई दूसरा भी हँस सकता। इस बात पर वे और तेज़ हँस पड़ी थीं। कहने लगती,"बेटा, रोना सीखना नहीं पड़ता लेकिन हँसना सीखने में उम्र लग जाती है, अब मुझे आ गया है हँसना तो सोचती हूँ हँसती रहूँगी....! कहते -कहते वे रुक गईं और मेरा चेहरा टटोलने लगीं।

नानी को दिखता नहीं था। उनकी आंखों में मोतियाबिंदु पड़ गया था। उसने या ना जाने नौसिखिए डॉक्टर ने ऑपरेशन करते वक्त उनकी दोनों आँखों की पूर्ण रोशनी छीन ली थी। जब नाना उस डॉक्टर से बिगड़े होंगे तो डॉक्टर ने भी हँसकर गलती स्वीकार ली होगी। हँसी बड़े बेतुके तरीके अपनाती है। मेरी बात पर वे थोड़ी-सी रुकी और मुझे अपनी गोद में खींच लिया, गुदगुदी हथेली से मेरा माथा सहलाने लगीं और फिर धीरे-धीरे हँसते हुए खिलखिला कर हँस पड़ीं।

आज नींद नहीं आने का शुक्रिया, कवि की कविता के मायने रातभर समझ आते रहे। हँसो हँसो भई! हँसना बहुत ज़रूरी है।

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