स्वातंत्रय चेता नारी की कविताएँ

डॉ. कृष्णा श्रीवास्तव जी की समीक्षात्मक टिप्पणी 

 

"बाँस भर टोकरी" कविता संग्रह जो वनिका पब्लिकेस से अभी हाल ही में आया है। उस संग्रह की लगाभग कविताएँ स्वातंत्रय चेता नारी की कविताएँ हैं। कल्पना की कविताओं में जहाँ पुरुष और नारी एक दूसरे के पूरक बने रहने की कामनाएँ करते हैं, वहीं स्वतंत्र मगर स्त्री को मर्यादित स्व में लिप्त रहकर उच्च से उच्चतर जीवन जीने की मान मनौअल्ल है।

जैसे बाँस और उससे बनी टोकरी अथवा बाँसुरी दोनों में ही विराट तत्व का समावेश है, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। जैसे— जल में कुंभ, कुंभ में जल है भीतर बाहर पानी। 

कल्पना का मानना है कि जब पुरुष और स्त्री एक ही तत्व से निर्मित हैं तो स्त्री दमित और तुच्छ क्यों है? कविताएँ पढ़ते हुए महसूस होता है, कवयित्री दुनिया को न पूर्ण स्त्रीमय देखना चाहती हैं न पुरुषमय, वह तो स्त्री और पुरुष दोनों को अपने-अपने स्व में जाग्रत रहकर समानांतर चलता हुआ देखने की बात कहती हैं पर किसी के द्वारा किसी की भी छाया को घेरना कवयित्री बहुत गलत मानती है। बस इसी असमानता की खाई में पनपती कई कई कविताएं इस में पढ़ी जा सकती हैं। कविताप्रेम पथकी मौन कराहटें, ‘पहली बारकविता में दुन्नो के दर्द को जब-जब पढ़ो स्त्री वेदना की असीम किरचें पाठक को गढ़ने लगती हैं। 

पुस्तक का आमुख कहूँ या भूमिका में दयानंद पांडे जी ने 'बाँस भर टोकनीको प्रेम और दुख का मिलाजुला संगीत कहा है। वहीँ डॉक्टर इंदीवर पांडे जी ने भूमिका में उनकी कविताओं का स्वरनिश्छल  प्रेम और जिजीविषा की कविताका कहा है। आप दोनों ने विषद रूप से कल्पना की कविताओं की व्याख्या की है। उन्हीं बातों को न दोहराकर मैं भी कल्पना की कविताओं में गुँथे भाव और विमर्श को देखते हुए संग्रह की कवितायें स्त्री की स्वतंत्र मगर विश्वव्यापी चेता नारी की कविताएं कहूंगी।

अपने प्राक्थन "मन से मन तक..में कल्पना बयाँ करती हैं,”लेकिन कभी-कभी पुस्तकों के पन्नों पर स्थितियों के धधकते लावा युक्त ज्वार-भाटों में उत्तेजित शब्द गड्डमड्ड होकर मेरी कोमल भावनाओं के साथ ठेलम-ठेली करने लगते हैं उस वक्त लगता है कि हथेली का सहारा लेकर सारे उद्दंड अभद्र शब्दों को सफे पर से परे धकेल दूँ और किसी वर्तुलाकार अनजानी सुरंग में जा छिपूँ जो निरी अपनी हो। कल्पना आगे कहती हैं, कविता मेरे लिए औषधि, सखा, हमराज, पंचिंग बैग और सहृदय अर्धांगिनी है। कई बार कविता मुझे अवसाद में दिल हारने से बचा लेती है। ये विचार कल्पना के स्वतंत्र मगर संघर्षशील रहते हुए जीवन को पा लेने की हामी हैं। इतना सब लिखते हुए कल्पना अपने को अनभिज्ञ मानती हैं तभी कहती हैं–कविता की चौहद्दी बहुत बड़ी है और मेरे पैर चीटियों से भी छोटे।ये सहजता ही किसी भी रचनाकार को बड़ा बना देती है।

कविताचीटियाँ कतारों मेंलिखकर कल्पना सर्वाइवल आफ द फिटेस्ट के भाव को लेकर आती हैं,जहाँ  मेहनतकश चींटी के कठिन परिश्रम से ढोये गए शक्कर के दाना को पाने के लिए एक चिड़िया उपस्थित हो जाती है। चिड़िया को यहाँ तीन तरह से समझा जा सकता है— पहले वे अवसरवादी लोग हैं जो दूसरे के मुँह से गिरे निवाले को झपटने के लिए सदा तैयार रहते हैं। दूसरे वे, जब भूख सताती है तो किसी की उगल खाने में परहेज नहीं करता भूखा। तीसरे में वे गरीब हैं जिनके मुँह में शक्कर की डली आते-आते भी किसी अन्य का भोज्य बन जाती है।

वे सूँघ रही थीं माथा/ एक दूसरे का.. उड़ान से लौटते हुए पूछा चिड़िया ने/ और जा बैठी वह भी शक्कर के दाने के पास।कितनी मार्मिक पंक्तियाँ हैं।

कविता सिर्फ वर्तमान में कल्पना को आलोड़ित नहीं करती बल्कि पुरानी से पुरानी यादों में खो जाने और जीने को मजबूर भी करती हैं तब "मैं लौटती हूं" कविता का सृजन करती है। कुल मिलाकर "बाँस भर टोकरी" की सारी कविताएँ अपने आप में अलग मूड और कहन की कवितायें हैं जो अपनी छाप पाठक के मन में अलग तरह से छोड़ती हैं। कविताएँ मैंने उद्धृत नहीं की हैं। उसके लिए पाठकों को संग्रह मँगाकर पढ़ना पड़ेगा।

 

समीक्षक : डॉ. कृष्णा श्रीवास्तव 

 


 

Comments

Popular posts from this blog

एक नई शुरुआत

आत्मकथ्य

बोले रे पपिहरा...