कागा सब तन खाइयो

"एक काम बनाने में दूसरा कब बिगड़ जाए, कहा नहीं जा सकता। वैसे ही एक को मनाने में दस रूठ जाएँ और पहले वाला भी न मने तो घाटा पहल करने वाले का ही होगा न? फिर भी मैं करुँगी ।" लवलीन ने नीम पर बैठी चिड़िया से बोला और तार से कपड़े उतारने लगी। पति के साथ वह खुश थी लेकिन नेपथ्य से आते मौन कोहराम उसे जीने नहीं दे रहा था। उसी ठहराव को वह खत्म करना चाहती थी। "क्या एक बहू अपने दोनों घरों में खुशहाली की चाहत नहीं रख सकती?" लवलीन ने कैलेण्डर में बेटे की सालगिरह वाली तारीख पर गोला लगा दिया। शाम गहरा चुकी थी, कपड़े आयरन टेबल पर टिका उसने झटपट मंदिर में दीपक जला दिया। मिल्क फीडर तैयार कर बेटे को पकड़ाते हुए कुशन के सहारे टिका, रसोई में चली गयी। ट्रिन ट्रिन ट्रिन कॉलबेल बजी और बजती रही। गुड्डू दौड़ सकता तो झट से पापा के लिए दरवाज़ा खोल देता। बहुत देर जब गेट नहीं खुला तो प्राकेत ने मोबाइल पर अपने घर आने की सूचना पत्नी को दी। पसीना पोंछते लवलीन ने दौड़कर गेट खोल दिया।

आजकल तुम कहाँ खोई-खोई रहती हो लवी?” 

“.......”

अच्छा चलो एक कप गरमागरम चाय बना दो, मैं हाथ मुँह धोकर आया।" गुड्डू को पुचकारते हुए उसने ऑफिस-बैग टेबल पर टिकाया और गुसलखाने में घुस गया। जब तक वह लौटा लवलीन ने चाय के साथ खाना भी टेबल पर लगा लिया था। ये क्या? कहते हुए पत्नी का मूड देखकर वह डिनर के साथ चाय पीने बैठ गया।  

"ए हेलो! तुमसे ही बात कर रहा हूँ। कटोरी में क्या खोज रही हो? तुम्हारे दिमाग़ में क्या घुस गया है, पत्नी जी?" प्राकेत ने पाँव से लवलीन के पाँव पर हरकत की लेकिन उसका फर्क उस पर कुछ पड़ा नहीं। दोनों ने खाना खाने के बाद अपने छोटे-मोटे काम निबटाये और शयन कक्ष में चले आये। प्राकेत कुछ बात करना चाहता था लेकिन लवलीन बेटे को लेकर अपनी ओर लेटने की तैयारी में लग गई। पहले उसे गुस्सा आया फिर उसका कंधा झटक दिया, कोहनी फिसली वह बिस्तर पर गिर पड़ी।

"प्राकेत...!"लवलीन झुँझलाई।

"तो बताती क्यों नहीं तुम्हें हुआ क्या? आज ही घंटे भर गेट पर खड़ा रहा।"

"तुम जानते हुए भी अंजान बनते हो तब मुझे गुस्सा आता है। मैं चाहती हूँ गुड्डू के पहले जन्मदिन पर हमारी दोनों माएँ अपने घर आयें। लो बता दिया।"

तुम अपने काम से काम रखना सीखो लवी। समय सब ठीक कर देगा।"

"उसी समय का इंतजाम करना चाहती हूँ।"

"नामुमकिन और ये तुम अच्छी तरह जानती हो।“

हाँ पिछली बार जो हुआ मैं जानती हूँ, इस बार सिचुएशन दूसरी है।” 

"तुम गुड्डू की बात कर रही हो?"

"हाँ।" लवलीन ने बेटे को अपनी ओर खींचते हुए लाइट बंद कर दी। प्राकेत बहुत देर सिर धुनता रहा फिर चादर तान कर सो गया। 

क्या सोचा…?”

शांत रहो लवी! नाश्ता शांति से खा लें? आज फारेन डेलिकेट्स के साथ मेरी मीटिंग है। जल्दी ऑफिस पहुँचना है। जिस बात के पीछे तुम पड़ी हो वह टूटे हुए पत्थरों को जोड़ने जैसा है। मैंने कुछ भी नहीं सोचा या फिर कह सकता हूँ बहुत कुछ सोचा लेकिन समझ कुछ नहीं आया। आख़िर उन दो अपोजिट लकीरों का मेल कराऊँ भी तो कैसे?" कहते हुए प्राकेत के चेहरे से निरीहता टपकने लगी। 

मेरा मतलब तुम्हें परेशान करना नहीं था। प्राकेत मेरे पास एक आइडिया है, तुम साथ...!"

"बोलो तो पहले...।" इस बार वह झुंझलाहट से बोला।

"प्राकेत तुम तो कम से कम मत उखड़ो। खैर, सुनो, क्यों न हम एक दूसरे की माँओं को फोन पर इन्वाइट करें! और जब वे आने के लिए हाँ करें तो हम साथ में उन्हें ले आयेंगे।

थोड़ी देर प्राकेत अपना माथा सहलाता रहा फिर आशा रहित मान गया और चुपचाप बैग उठाकर ऑफिस चला गया। लवलीन अन्य कामों में भी इसी बात को सोचते हुए निबटाने लगी। जन्मदिन नजदीक आने वाला था। एक दिन को शुभ मानकर लवलीन ने प्राकेत की माँ उषा को और प्राकेत ने लवलीन की माँ मंजुला को फोन लगाया और मोबाइल लेकर दोनों इतनी दूरी पर बैठ गए कि एक दूसरे का इशारा समझ सकें। बहुत देर इधर-उधर की बातें करने के बाद जल्दी ही दोनों अपनी बात पर आ गए। नन्हें मेहमान की प्यारी-प्यारी हरकतें माताओं को बताई गईं। सुनकर दोनों ओर से आशीर्वाद की मीठी ध्वनि कानों में गूँज उठी। इधर ये दोनों हुलस रहे थे और उधर से वे दोनों।



माहौल अच्छा देख लवलीन ने उषा से कहा,"मम्मी जी आपको आगरा आना पड़ेगा।" प्राकेत ने डिट्टो सासू माँ से दोहराई। फोन पर अचानक सन्नाटा पसर गया। जिससे ये दोनों पति-पत्नी खबरदार तो थे फिर भी दिल धड़क उठे। प्राकेत ने पत्नी की ओर प्रश्नवाचक मुद्रा में देखा। जैसे पूछ रहा हो,"अब क्या होगा?" लवलीन होठों पर ऊँगली रखकर मुस्कुरा दी और जल्दी ही दोनों ने खुद को संयत कर लिया।

दो मिनट सोचने के बाद इधर से फिर आरजू मिन्नतें के स्वर गूँज उठे। ढेर सारी हाँ-ना के बीच बच्चे की दुहाई देते हुए दोनों माताएँ आगरा आने के लिए मान गयीं। गुड्डू अपने माता-पिता के आत्मिक द्वंद्व से अपरिचित पालने में पड़ा चहक रहा था। लवलीन का चेहरा खिल उठा जैसे भारत-पाकिस्तान का मिशन सौहार्द सफल हुआ हो।

लवलीन के पिता का पहनावा-ओढ़ावा देखकर प्राकेत के पिता ने दहेज माँगा नहीं, सोचा मोटा मुर्गा है खुद अपनी बेटी को देगा और वह आएगा तो हमारे ही घर लेकिन शादी की पहली रस्म से उन्हें समझ आ गया  कि लड़की वाले दिखावा पसंद हैं। पहली रस्म के दूसरे दिन किसी को भेज कर दीनानाथ को बुलवा भेजा। घुमा-फिरा कर खूब कहा-सुनी हुई लेकिन हाथी के दांत अंदर जाने से रहे। दोनों ओर त्योरियाँ चढ़ गईं बलि का बकरा बनी लवलीन। लवलीन और प्राकेत के पिताओं  में भयंकर ठन गई। मनमुटाव इतना गाढ़ा होता चला गया था कि दोनों ने बच्चे ब्याहने के बाद कभी एक दूसरे की शक्ल तक नहीं देखनी चाही। किसने किसको ठग कर चोट पहुँचाई थी, ये बात उनके अलावा कोई नहीं जानता था। हाँ, इतना जरूर सब को मालूम था कि दोनों की खिन्नता अटूट है। समय के साथ दोनों परिवारों का मनमुटाव इन दोनों के जीवन का नैराश्य बनता चला गया।

लवलीन अपने बेटे को लेकर ‘पजेसिव’ थी। वह स्कूल में अध्यापिका थी। नई शिक्षा नीति के अनुसार अब सिर्फ पाठ पढ़ा कर रफा-दफा करने का नहीं, बच्चों के अंदर जीवन मूल्यों का विकास हो ऐसी अनेक गतिविधियाँ वह करवाया करती। उस समय उसे गुड्डू की बहुत याद आती। उसी के लिए बार-बार वह दोनों परिवारों को जोड़ना चाहती थी।

दोनों माताएँ एक दूसरे के सामने थीं मगर उनका मौन अभी भी अभीष्ट रूप से बरक़रार था। दस मार्च को प्राकेत और लवलीन ने मिलकर बेटे के प्रथम जन्मोत्सव पर घर को खूब सजाया। सोसायटी के लोगों के मित्रों को भी बुलाया था। उत्सव में जो भी आया, खुश होकर गया लेकिन मजाल माताएँ भी खुश हो जातीं। वे मुँह लटकाए अपना-अपना कोना पकड़े रहीं।

जिस काम के लिए उषा और मंजुला आई थीं, वह निबट चुका था। बच्चों के लाख़ चाहने के बाद भी वे खुलकर एक-दूसरे के सामने हँसी-बोली नहीं थीं। यहाँ तक कि वे लवलीन के बेटे गुड्डू को भी अलग-अलग समय पर खिलाना-पुचकारना ही पसंद कर रही थीं। लवलीन का बेटा ज़रूर कभी-कभी इतना रोने लगता कि दोनों को एक साथ दौड़ना पड़ता। या कि जान-बूझकर लवलीन ही उसको चुटकी काट कर रुला देती, कोई नहीं जानता। इस प्रकार एक महीना बीत चुका था पर लखनऊ-कानपुर जस का तस था।


कभी-कभी भावुक होकर लवलीन अपनी माँ से कहती,"माँ आप ही बात करो न प्राकेत की माता जी से अगर माफ़ी माँगनी पड़े तो माँग लो न! आखिर वे बड़ी हैं।" पर उसकी माँ उसे अलग प्रकार के तर्क देकर चुप करा देती। प्राकेत अपनी माँ की गुस्सा से बाकिफ़ था सो कुछ नहीं कहता। कुल मिलाकर लवलीन ने अपने हथियार डाल दिए थे और दोनों को वापस भेजने के टिकटों की व्यवस्था कर दी। जिस दिन उषा को कानपुर और मंजुला को लखनऊ के लिए निकलना था उसी दिन शहर में क्या! पूरे देश में अनिश्चित कालीन तालाबंदी का आदेश दिल्ली से पारित कर दिया गया। 

 

"कोविड महामारी जो दूसरे देशों में तहलका मचाये थी, भारत में अपने पाँव पूरी तरह से पसार चुकी है। इसलिए जनता से हमारा निवेदन है कि कृपया आप जहाँ हैं, वहीं बने रहें और सरकार का साथ निभाएँ। जय हिन्द, जय भारत!"

लवलीन ने प्रधानमन्त्री की अपील सुनकर राहत की साँस ली। सड़कें सुनसान हो गयीं, लोग ड्राइंग रूम तक सिमट गये। गेंद फिर लवलीन के पाले में आ गिरी, दोनों माताओं के मनों का कसैलापन दूर करने का एक मौका उसे मिल गया था। दोनों महिलाएँ बेहद उदास दिख रही थीं। जैसे जंगली बुलबुलों को पिंजरे में कैद कर लिया था। फिर चालू हुआ महामारी में नरसंहार, लवलीन की स्थिति जो थी सो थी, उषा और मंजुला के रिश्तेदारों में लोग जान गँवाने लगे। दोनों बेहद घबराई हुई उदास रहने लगीं। बिगड़ी हुई परिस्थितियों ने दोनों वृद्ध स्त्रियों को संवेदनात्मक रूप से हिलाकर रख दिया। संसारी नश्वरता इस तरह से उजागर होती चली गयी कि दोनों की अकड़ न चाहते हुए भी टूट गई। साँसों के लिए तड़पती जिंदगियाँ और शमशानों के कोहराम ने दोनों को कई-कई रातों सोने नहीं दिया। 

मंजुला और उषा को अब दौरान ‘लिविंग-एरिया’ में साथ-साथ देखा जा रहा था। कभी उषा अपनी पसंद की किताब पढ़कर मंजुला को सुनाती तो मंजुला अपने घर-परिवार के किस्से उषा को। 

कागा सब तन खाइयो, मेरा चुन-चुन खइयो मास, दो नैना मत खाइयो, मोहे पिया मिलन की आस…।"

सुबह की ठंडी हवा ने उषा की पलकें थपकी तो रेशमी अहसास के साथ उसकी आँखें खुलती चली गयीं। दिन अभी दुधमुहाँ बच्चे-सा पूर्व दिशा से लुढ़कता हुआ चला आ रहा था। उसने सचेत होने की चेष्टा में अँगड़ाई ली ही थी कि बालकनी की ओर से गुनगुनाने की आव़ाज सुनाई पड़ी। उषा ने मंजुला के कमरे में झाँक कर देखा, मंजुला उठ चुकी थी। दो प्याले चाय बनाकर उषा बालकनी में आ गयी। देखा, कोहनी रेलिंग पर टिकाये मंजुला कैलाश खेर का गीत गुनगुना रही थी। 

अच्छा तो आप यहाँ हैं? लगता है आज सपने में लवलीन के पापा आये थे?" उषा ने चुटकी ली।

ना बहन जी, ना! मैं तो बस यूँ ही….।कहते हुए दोनों हँस पड़ी।

"आइए चाय पीते हैं।"

"मुझ से कह देतीं,आपने क्यों तकलीफ़ की।"

"एक ही बात...।"

सुबह की नरमाहट में उषा को खुश देखकर मंजुला ने बेटी की शादी में रह गयी कमी के प्रति कुछ कहना चाहा। मिट्टी पाओ बहन जीउषा ने उसे शांत कर दिया। 

"अच्छा आप ने एक बात नोटिस की?”

कौन-सी बात?” उषा ने मंजुला की ओर देखा।

जो पंछी नाम मात्र के लिए दिखाई पड़ते थे, आजकल बड़ी संख्या में दिखने लगे हैं। क्या इस महामारी की वज़ह से प्रकृति में इतना बड़ा बदलाव हुआ है? कौओं के झुंड देखे जमाना बीत गया, अब देखो कैसे काँव-काँव कर रहे हैं नहीं तो जब से घरों में जाल पड़े बेचारों ने घर त्याग दिए थे।मंजुला हँसते हुए बोली।

"हाँ जी, ये तो आपने सही कहा।

उषा ने सहमति जताई और बातों ही बातों में पंछियों से होते हुए बातें दान-पुन्य और पंछी-चुग्गे तक जा पहुँची। सोसायटी के पार्क में सैर करने जाने की राय बन गयी। उषा ने योजना बेटे से कही तो उसने पंछी चुग्गा वाला अनाज ला कर रख दिया। 

प्रतिदिन दोनों सैर पर जातीं और पंछियों को चुग्गा चुनाते हुए वातावरण में फैली निर्मलता का लुफ्त उठातीं और ख़ुशी-ख़ुशी घर लौट आतीं। उषा ताज़े फूलों के गुच्छे लाकर गुलदान में सजा देती। लवलीन इस बात से बेहद ख़ुश थी कि उसकी माओं में सब कुछ सामान्य हो चला है। 

 

रविवार के दिन सुबह उषा देर से उठी। देर से जागने की वज़ह दोनों देर से पार्क पहुँचीं। 

आज ज्यादा नहीं घूमेंगे, धूप बहुत कड़क है।

उषा ने चुग्गा डालते हुए कहा। थैली से दाने निकालकर उषा ने जगह-जगह बिखरा दिए और छाया में जाकर खड़ी हो गयी। मंजुला अभी भी इधर-उधर देख रही थी किंचित दाना नहीं डाल रही थी।

मंजुला क्या हुआ? चलो।उषा ने ऊँचे स्वर में कहा।

हाँ, मैं भी वही सोच रही हूँ लेकिन पंछी भी तो दिखने चाहिए। माथे पर बल डालते हुए मंजुला बोली।

लो, कर लो बात…कितने सारे कबूतर वे रहे मैदान में। पंछी नहीं…।

गले पर चल रही पसीने को रूमाल से पोंछते हुए उषा ने विस्मय से कहा और हाथ उठा कर मैदान की दूसरी ओर इशारा करने लगी।

उषा जी, उन्हें तो मैंने भी देखा लेकिन वे भी कोई पंछी हैं? गौरैया, मोर, गिलहरी, तोते कहीं दिखें तो बताओ।" मंजुला ने फिक्क से हँस दिया।

क्यों, कबूतर पंछी नहीं होते...?” उषा की त्यौरियाँ चढ़ गईं।

अरे! राम राम इन्हें तो धरती पर बोझ समझो। न सुबह की बांग से मतलब न ही मिट्ठू की तरह राम-राम से वास्ता। अपना वंश बढ़ाना ही इनके जीवन का असली मक़सद है। कबूतर कहीं के।

मंजुला ने होंठ भींचते हुए भौंहें चढ़ा लीं। मानो सारे के सारे कबूतर उड़कर उसके ऊपर ही बैठ गये हों।

"मंजुला जी आप की बात मुझे समझ नहीं आई। आपको दाना डालना है! या राजनीति करना है? जिस बात को आप इतना तूल दे रहीं हैं, क्या उसके बारे में कभी सोचा है? या नेताओं की तरह कभी भी कहीं भी कुछ भी अनाप-शनाप झोंकने लगती हो?" उषा ने झुँझलाकर कहा।

"......"

"जिन अबोले पंछियों को आप अपनी दकियानूसी सोच के साथ बाँध रही हो, वह खेल कितना खतरनाक हो सकता है! आप बिल्कुल नहीं जानतीं? या जान-बूझ कर अंजान बन रही हैं? या फिर आपके पति की घटिया राजनीति ने आपको अंधा बना डाला है? जो भी हो लेकिन इस तरह के बँटवारों ने पहले ही कितनों के जीवन में जहर घोलने का काम किया है। कितने बेघर हो गये जो बचे वे परायों जैसी जिंदगी जी रहे हैं। वैसे भी दुनिया में क्या कम ज़हर नहीं फ़ैला ?” 

"बहन जी, आपको शायद पता नहीं है, भोली हो आप! हमारे  अमीनाबाद में जिधर देखो उधर मुंडेरों पर बस यही-यही तो दिखते हैं। दीवालें का हग हग कर सत्यानाश कर दिया है। मैं तो फिर भी इन्हें कबूतर कहती हूँ वरना वहाँ तो इन्हें कठमुल...कहा जाता है।मंजुला अभी भी अनाज को थैली में लिए बतकही में मग्न थी लेकिन उषा को अग्निबाण छू चुका था।

मैं भोली न होती तो क्या तुम्हारे पति बेटी ब्याह लेते?” 

बहन जी, सही कहती हूँ हमारे लवलीन के पापा जी कहते हैं, जानबूझकर नासमझी का खेल यदि ऐसे ही चलता रहा तो इनके कुनबों के अलावा देश में और कोई पक्षी दिखाई नहीं देगा। बड़े नसुड्डे और ज़ाहिल होते हैं...। जरा अपनी अगली पीढ़ी की चिंता करो, अपने आप आपका खून खौल उठेगा।मंजुला ने उषा की बात को अनसुना कर नहले पे दहला वाली चाल चली।

लोगों को बेवकूफ बनाने में आपके पति खूब माहिर हैं। ज़रा पूछो उनसे, वे क्या कम जाहिल हैं।उषा का अचूक निशाना मंजुला के कलेजे में जा धँसा।

बहन जी एक बात कहें? आप होगी मास्टरनी अपने लिए, मेरे सामने ज्यादा बनिये मत...।” 

समाजशास्त्र की रिटायर्ड प्रोफ़ेसर उषा महतो खिसिया पड़ीं। दोनों के चेहरे तमतमाकर सुर्ख हो चले थे लेकिन बातों का कोई हल नहीं निकल रहा था। पार्क में तमाशा देखने वालों का जमघट लग गया। लोग दोनों स्त्रियों में गुत्थम-गुत्था की कल्पना करने लगे। एक-दो लडकों ने तो ऐलान कर दिया कि अब लड़ाई झोंटा नोंचे बिना टलेगी नहीं। उस वक्त लवलीन वहाँ होती तो शायद दहल उठती। 

"एक लकीर की पीर अभी मिटी नहीं चली हैं लकीरें करने! सबसे पहले उस अनाज से पूछो जो मुट्ठी में दबा पड़ा है, वह क्या चाहता है? बात करती....।

बहन जी ज़रा जबान सम्हाल कर बात करें तो अच्छा रहेगा। समधिन हो इसका मतलब ये नहीं कि मेरे सर पर नाचोगी।

"उरी तेरे की।" भीड़ की तरफ से आवाज़ आई।

उषा तुनक कर पाँव पटकते हुए घर की ओर लौट पड़ी।



हुन्नन्, समझती क्या हैं…मंजुला ने हथियार सम्हाले और उषा के पीछे हो ली।

"प्राकेत, मैं अभी कानपुर लौटना चाहती हूँ। टिकट का तुरंत बंदोबस्त करो।घर में पाँव रखते झनझनाकर उषा ने कहा तो बहू पानी-पानी हो सख्ते में आ गयी।

क्या हुआ मम्मी जी?” लवलीन सासू माँ से पूछ रही थी कि उसकी माँ भी मुँह फुलाए चली आई।  

क्या हुआ माँ! आप ही बताओ?”

“.......”

लवलीन कभी इसके पास कभी उसके पास जाती रही लेकिन किसी ने कुछ भी बताना। उसका चेहरा क्रोध और अपमान से लाल हो गया। अकबकाहट में वह अपनी माँ पर ही भड़क उठी।

दुश्मनियाँ माँ-बाप पैदा करते हैं और भुगतना बच्चों को पड़ता है।

लवलीन ने थोड़ी दूरी पर खड़े पति की ओर बुदबुदाते हुए देखा जिसका चेहरा कागज़ की तरह फक्क हो पड़ चुका था।

ऐसा सोच भी कैसे सकती हो लवी! गलती सिर्फ़ तुम्हारी माँ की होगी?" बाँह पकड़ते हुए उसे बेरूम की ओर धकेल दिया।

क्योंकि मुझे मालूम है न! लेकिन ये बात मेरी प्यारी माँ! नहीं जानती। बेटी बिन माँगे मनमुटाव का बोझ लादे-लादे पक चुकी है। जितना समय मैंने इन परिवारों में सामंजस्य बैठाने में खर्च किया है, उतने में कुछ अच्छा कर सकती थी। बोलने से पहले कम से कम एक बार सोचा भी जाता है। आखिर उन दोनों के झगड़ों में मेरा या मेरे बेटे का क्या कुसूर है? और प्राकेत तुम! तुम्हें भी को परवाह नहीं।“

लवलीन के भीतर सिसकता हुआ ज्वालामुखी फट चुका था जिसे वह अंदर ही अंदर जब्त करना चाहती थी।

"मुझे लगता है, इस फसाद की जड़ मैं हूँ इसलिए इस दुनिया में रहना मेरे लिए ठीक नहीं। कहते हुए लवलीन अचेत हो गयी। किंकर्तव्यविमूढ़ प्राकेत अपना बना बनाया खेल बिगड़ते हुए देख हतप्रभ था। दोनों माताएँ टैक्सी के इंतज़ार में थीं, गुड्डू पालने में अविचल सो रहा था।

***** 

Comments


  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२२-०८ -२०२२ ) को 'साँझ ढलती कह रही है'(चर्चा अंक-१५२९) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    ReplyDelete
  2. मर्म स्पर्शी कहानी

    ReplyDelete
  3. बहुत ही सुन्दर रचना

    ReplyDelete
  4. मन में पड़ी गांठें कभी मिटती नहीं बस थोड़ी सी हवा लगते ही सुलग उठती हैं।
    लवलीन की तपस्या भी कोई हल नहीं बन पाई।
    विचारणीय कथा।

    ReplyDelete
  5. बहुत ही सुन्दर

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

एक नई शुरुआत

तू भी एक सितारा है

संवेदनशील मनुष्य के जीवन की अनंत पीड़ा का कोलाज