गाँव की माटी और पीढ़ियों के दर्द की कहानियाँ
कृति : अलगोजा
लेखक: जयराम सिंह गौर
समीक्षक: कल्पना मनोरमा
प्रकाशक: भावना प्रकाशन
मूल्य: 395 /-
हिंदी कहानी का उद्भव और विकास न हुआ होता तो शायद सामाजिक परम्पराएँ समय की किसी करवट में सो कर विलीन हो जातीं। हम अपनी पीढ़ियों की परम्पराएँ क्या युक्तियां भी अपनी अगली पीढ़ी को न बता पाते। उद्भव और विकास के सूत्र निबन्ध में मधुरेश जी लिखते हैं,”ब्रिटिश शासन के बाद भारतीय समाज की मूल चिंता अपनी परम्परा और संस्कारों के संरक्षण के रूप में दिखाई देती है। विचारों की लड़ाई के लिए गद्य ही उपयुक्त माध्यम बन सकता था।” कहने का तात्पर्य कहानी एक पारम्परिक बोधगम्यता को धीमी गति से पीढ़ी दर पीढ़ी कहती चलती है। जयराम सिंह गौर जी से मेरा परिचय सन २०१९ जून को अपनी पुस्तक ’कबतक सूरजमुखी बनें हम’ के लोकार्पण में हुआ था। आपने अपनी तमाम व्यस्तताओं को नकारते हुए कार्यक्रम में शामिल होकर मेरा मनोबल बढ़ाया था। खैर, मैंने आपको बहुत तो नहीं पढ़ा लेकिन फेसबुक के माध्यम से टुकड़ों में ही सही आपके सृजनात्मक विचारों से अवगत होती रही हूँ। हिन्दी साहित्य की कहानी विधा मेंं साधिकार लेखनी चलाने वाले साहित्यकार श्रीमान जयराम सिंह गौर जी का सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह ‘‘अलगोजा’ को मैंने आद्योपान्त पढ़ा। दिल्ली के भावना प्रकाशन से प्रकाशित 144 पृष्ठीय इस कहानी संग्रह में गौर साहब की 16 कहानियाँँ संग्रहित की गई हैं।
आदि काल से स्त्री अपने घर-परिवार और पति की मौन अनुगामिनी बनकर रहती आ रही है। उनके उचित-अनुचित दबावों तले दबी स्त्री का मानसिक ह्रास हो या शारीरिक, लगातार होता रहता है। जब स्त्री शिक्षा विहीन हो तब तो उसके कष्टों में चार चाँद लग जाते हैं। संग्रह की पहली कहानी ‘नटिन भौजी’ इसी तरह की पीड़ा भोगी नट जाति की स्त्री की मर्मान्तक कहानी है। जिस तरह से कहानी में कथन-प्रकथन आते हैं, उनको यदि कोई स्त्री रचनाकार लिखती तो शायद अचंभा नहीं होता। लेकिन गौर साहब ने पुरुष होते हुए जैसे इस कहानी को लिखने के लिए किसी स्त्री से उसकी करुण दृष्टि उधार माँगी हो या उनका लेखक ही इतना सहज और सजल है कि छोटी-छोटी भंगिमाएँ पढ़ते हुए मन ठिठक जाता है। जैसे— “उसकी आँखें अपनी स्वाभाविक हँसी से भर जातीं।” यह पंक्ति बताती है कि लेखक की नज़र मानवीय क्रिया-कलापों को कितनी बारीकी से पकड़ रखती है। जिस परिवार और बाल-बच्चों के लिए उसने अपना जीवन होम किया, वही बच्चा उसे बदहवास छोड़ जयपुर चला जाता है। समय बदल रहा है क्रूरता मजबूत होती जा रही है। ये बात इसलिए कह रही हूँ कि आगली कहानी ‘आई कांट अफोर्ड’ इसी तरह का सच हमारे सामने रखती है। मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है पर क्या इतना? “इस घटना ने परेश, मुझे अपने बारे में फिर से सोचने को मजबूर कर दिया। मेरी स्थति सागर में एक भटके माँझी और पतवार विहीन नाव की तरह…..।”
‘वहीं के वहीं‘ शीर्षक की कहानी धर्म की आड़ में ठगी और क्रूरता को बयान करती है। जिसे
लेखक ने अपने कोमल मन और सुन्दर भाषा से उसे रचा है।
कितना भयावह होता होगा अपना काम-धंधा, जाति धर्म छोड़कर दूसरे
में शुमार होना. पलटू के जीवन में कुछ ऐसा ही घटित होता है।
‘शाप मुक्ति’ कहानी एक ऐसी स्त्री है जो भविष्यवाणियों से डरती है और उसके जीवन में जो
भी अघटित घटता है वह अपनी सास की बद्दुवाओं का ही असर मानती है। ये रोग आज के
पढ़े-लिखे समाज में भी ज्यों का त्यों दिखाई पड़ता है। पहले की महिलाएँ अपनी दमित
भावनाओं से फ़ारिग होने के लिए किसी का गुस्सा किसी पर निकालती थीं। इस कहानी में
भी एक सास अपनी बहू को निरवंशी बने रहने का शाप दे देती है। जो उसकी बहू अपने जीवन
को ओढ़ते-बिछाते महसूस करती और झेलती रहती है। अंत में उसकी बहू एक बच्चे को जन्म
देती है और अपनी सास की छाती पर रखा शाप का दुःख का शमन करती है। लेखक परिचय
‘अलगोजा’ कहानी को अगर प्रेम कहानी कहा जाए तो गलत न होगा। इस कहानी में ऐसे जोड़े की कहानी है जो अशिक्षित होते, अलग रहते हुए भी आपस का प्रेम सहेजे रहते हैं। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने अंतरजातीय विवाह की बात कही है। जो बीते वक्त में होना अपवाद की शिनाख्त करती है। जबकि कहा ये जाता है कि आज का समाज पढ़ा-लिखा है इसलिए नवयुवा रास्ता छोड़ कुरस्ता चलते हैं। अगली कहानी’और उसने चूड़ियाँ पहन लीं’ भी अलगोजा की तरह प्रेम और समर्पण का बयान है। इसमें कहानी में सगे रिश्तों के बीच जब प्रेम के बीज अँकुरित होते हैं तो वहाँ एक-दो लोग प्रभावित नहीं होते बल्कि पीढ़ियाँ तबाह होती हैं। पहले पंचायत का जमाना था। बिरादरी से बेदखल करने का घोर नियम था। इस माहौल में भी इस कहानी के प्रेमी एक दूसरे के हो जाते है। लेखन ने जो संघर्ष लिखा है, उसे पाठक स्वयं पढ़ें इसलिए कोई उदाहरण पेश नहीं कर रही हूँ।
इसी तरह संग्रह में अन्य कहानियाँ भी अपने पूरे रंग-रुतबे से विद्दमान हैं। जैसे– ‘चौराहा’ कहानी प्रेम की कहानी है जो पुनर्जन्म तक जाती है लेकिन किसी तरह सफल नहीं होती है। ‘वसीयत’ भी एक ऐसी कहानी है जिसमें लेखक ने कुर्सी का मानवीकरण करके एक परिवार की तीन पीढ़ियों का इतिहास कहने की कोशिश की है।
‘स्टेट्स’ कहानी एक ऐसे पिता की कहानी है जो अपने बेटे को अपने जैसा डॉक्टर बनाना
चाहता है। इस कहानी का पिता कितना सफल हुआ कितना असफल पाठक कहानी पढ़कर जानेगे। 'मम्मी प्लीज' और 'समय की दरकार’
में लेखक ने दो वृद्ध जनों की मानवीय मनोदशा के माध्यम ये बताने की
कोशिश की है कि असावधानी से दुर्घटनाएँ सिर्फ सड़क पर ही नहीं घटती हैं बल्कि
स्नेहिल रिश्तों में भी दरारें पड़ जाती हैं।
'खून का रिश्ता' कहानी अपने आप में मार्मिकता का दस्ताबेज है। ये कहानी एक ऐसे निःसंतान दंपति की कहानी कहती है जो अपनी सन्तान न होने के कारण एक नर्स के माध्यम से अस्पताल से एक लड़का गोद लेने में कामयाब हो जाते हैं। उनकी एक ही शर्त है कि बच्चे के पिता से ये बात गुप्त रखी जाए लेकिन नर्स वह राज हजम नहीं कर पाती है और बच्चे का पिता गोद लेने वाले दंपति को ब्लैकमेल करने लगता है।
'एक टुकड़ा जमीन' में स्त्री-पुरुष के जीवन की विसंगतियों को उजागर करती है। 'परंपरा' शीर्षक अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है। परंपरा निभाने में व्यक्ति कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है कि उसे अपने होने का पता नहीं रहता और परंपरा तब भी खुश नहीं होती है। लेखक का जुड़ाव गाँव से रहा है इसलिए गाँव से जुड़ीं लोकोक्तोयाँ और मुहावरे कहानी में खूब मन बाँधते हैं। जब कोई रचनाकार गाँव और शहर दोनों जगहों से जुड़ा होता है तो उसके अनुभव का फ़लक विस्तृत हो जाता है। गौर साहब के साथ यही है। आप के पास अनुभव और कच्चे माल की अकूत दौलत है। जिसका प्रयोग आप अपनी कहानियों में करते हुए दृष्टि गोचर होते हैं।
कुल मिलाकर
जयराम सिंह गौर जी का कहानी संग्रह-‘अलगोजा’ सामाजिक बिसंगतियों, विकृतियों, वृद्धों की पारिवारिक उपेक्षाओं, प्रेम, युवामन की उद्वेलित करती भावनाओं, धर्मान्धता,
कट्टरता और स्त्री के दारुण समर्पण के अविरल सुख-दुःख के प्रवाह से
भरी आदि से अंत तक अपने में ऊहापोह समेटे हुए है। बहुत
से जनमानस को झकझोरने वाले बिषयों को लेकर रची गईं मार्मिक कहानियों का संग्रह
‘अलगोजा’ पठनीयता से भरपूर है। जो यह सिद्ध
करता है, कोई भी व्यक्ति चलते-फिरते लेखक नहीं बन जाता बल्कि
लेखकीय बीज कहीं न कहीं उसके जीवन में गहराई से दबे पड़े होते हैं जो समय मिलते
अँकुआ उठते हैं। गौर साहब ने अपने जीवन में चलते हुए
काफ़ी समय बाद लेखन प्रारम्भ किया है। लेकिन वे साहित्य के रचाव में तल्लीनता से
तत्पर हैं। उनकी कहानी लेखन की शैली आकर्षक है। कहानियों की प्रवाहमयता ऐसी है कि
पढ़ने वाला निरन्तर उत्सुकता के साथ पुस्तक को पढ़ता जाता है। कुछ कहानियाँँ पूर्ण
विस्तार के साथ लिखी गई हैं। पढ़ते हुए कहीं भी शिथिलता या उबाऊपन नजर नहीं आता।
इस पुस्तक को प्रकाशित करने में भावना प्रकाशन ने अच्छा कार्य किया है। कहानियों में मुद्रण की त्रुटियाँँ आजकल आम बात है लेकिन इस संग्रह में ऐसा कुछ भी नहीं दिखा। हिन्दी साहित्य जगत में पुस्तक-‘अलगोजा’ का खूब सुरुचिपूर्ण स्वागत हो, ऐसी आशा है। अस्तु!
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ReplyDeleteजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (१५-०८ -२०२२ ) को 'कहाँ नहीं है प्यार'(चर्चा अंक-४५२३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (१५-०८ -२०२२ ) को 'कहाँ नहीं है प्यार'(चर्चा अंक-४५२३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (१५-०८ -२०२२ ) को 'कहाँ नहीं है प्यार'(चर्चा अंक-४५२३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (१५-०८ -२०२२ ) को 'कहाँ नहीं है प्यार'(चर्चा अंक-४५२३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर