स्त्रीकथा
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२०२२ आज़ादी के अमृत महोत्सव पर |
"अजी हमने सुना है
कि आज़ादी का अमृत महोत्सव बड़े ज़ोर शोर से मनाया जा रहा है?" कुंती बोली।
"दीदी, आज़ादी होती कैसी है?" बेला ने भवें तानते हुए
पूछा।
"हम में से बहुतों
को आज़ादी का 'आ' तक पता नहीं और चली
हैं आज़ादी होती कैसी है? पूछने, हुंह।
कमली ने घूँघट नाक तक सरकाते हुए चिढ़ाने के भाव से कहा और तुनक कर साड़ी दांत से
दबा ली। महिला महफ़िल में शांति छा गयी।
"अरी! सुगना तू तो
अभी-अभी शहर से लौटी है। मुझे भरोसा है कि तू आज़ादी के मायने क्या होते हैं?
बता सकती है। ऐ सुग्गू, बता न! आज़ाद होकर
कैसा-कैसा लगता है।" बिमली ने माहौल को त्वरा देते बोली
और पाँव के अंगूठे से ज़मीन की मिट्टी खुरचने लगी।
"वह देखो?"
"क्या देखें?"
"अरे वही, आज़ादी!" सुगना सगर्व बोली।
"कहाँ है? मुझे तो ये कभी दिखी ही नहीं।" कुन्नू अपने
दुधमुहाँ बच्चे को छाती से हटाते हुए बोली।
"अरे भई! वह जो मचक-मचक झंडा उठाए चली जा रही है, वह आज़ादी ही तो है। कमाल करती हो तुम सब। अब तो आज़ादी खुली क्या बंद आँखों से भी दिखने लगी है। तब भी तुम सबको दिखती क्यों नहीं? आख़िर तुम लोगों को और कितनी दी जाए आज़ादी?" हे हे करते हुए कांता ने खिड़की की ओर इशारा किया ही था कि स्त्रियाँ भरभराकर उसी ओर दौड़ पड़ीं।"
ज़मीन पर पड़ा प्लास्टिक का झंडा उठाया और अपने जूड़े में खोंस लिया। सुगना जब से शहर में रहने लगी थी, पान खाने लगी थी। आज भी उसके रूमाल में मीठा बाँधा था। सबकी नज़र बचाकर वह चबर-चबर चबाने लगी।
***
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15 अगस्त 2022 को नेशनल एक्सप्रेस दैनिक अखबार में प्रकाशित |
समझ नहीं आया की इस लघु कथा का मर्म क्या है ?
ReplyDeleteसंगीता जी एक बार और पढ़िए, मर्म तो बिल्कुल खुला रखा है. शुक्रिया आपने कथा पढ़ी और प्रश्न पूछा .
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