डॉ. कृष्णा श्रीवास्तव से कल्पना मनोरमा की बातचीत


डॉ. कृष्णा श्रीवास्तव के साथ कल्पना मनोरमा 

कल्पना : आपका नाम कृष्णा न होता तो क्या होता ?

कृष्णा : इस पर कभी सोचा नहीं, जो नाम मिला वही अच्छा लग गया। माता-पिता के दिए नाम के सिवा कोई दूसरे नाम का खयाल भी जेहन मे नहीं आया। आखिर नाम में रखा ही क्या, व्यक्ति का काम देखा जाता है सो हमेशा विचारों में रमा रहा।

कल्पना:  आप अपने बचपन, पारिवारिक परिवेश, प्राथमिक शिक्षा और भाई-बहनों के विषय में कुछ बताइए

कृष्णा : बचपन की बातें तो सुनी सुनाई होती हैं। अम्मा बताती, बचपन में बहुत शैतान थी। मौका पाते ही घर से भाग जाती इसलिए मेरी दीदी ने एक रुमाल में बाबूजी का नाम व पता लिखकर मेरी फ्रॉक के साथ लटका दिया था। वही रूमाल फिर हर फ्रॉक के साथ लटका दिया जाता था जिससे उस छोटी जगह में बैंकबाबू की बिटिया देख कर कोई भी बैंक में लाकर मुझे जमा कर देते थे। फिर वहाँ से मेरा घर आना आसान हो जाता था। एक याद और है, बचपन में मैं और मुझसे बड़े भाई बीमार पड़े, चेचक निकली थी, मेरी हालत बिगड़ गई। हकीम कहने लगे, अब यह नहीं बचेगी, इसे जो कुछ खिलाना हो खिला-पिला दो। ठीक  होने पर हकीम साहब ने मुझे अल्ला रक्खी नाम दे दिया था। मुझे बीमारी के बाद भूख बहुत लगती थी। रोटी-दाल में से एक को खत्मकर फिर मांगती, दाल बची है रोटी दे दो या दाल ही दो। मना करने पर रोती-मचलती, छोड़ने को भी तैयार न होती थी। आगे चलकर मैं ठीक  हो गई। भाई  बहुत कम खाता रहा, अच्छा हो रहा था कि अचानक हालत बिगड़ गई थी। वह हमें बिलखता छोड़कर चला गया। उसके हिस्से का प्यार भी मुझे मिला था। बस एक याद सजग है, टॉर्च  जलाकर उसके पेट  की जांच  करने की। बाकी कुछ  याद नहीं कब कैसे चला गया लल्लन भाई। थी तो हमारी 11 बच्चों की पलटन लेकिन समय-समय पर दो बहनें दो भाई चले गए। मुझसे छोटी एक बहन, एक भाई  बचपन में ही चले गये। बचे हम पाँच बहनें और दो भाई। एक बड़े और एक सबसे छोटे लगभग छः साल के। मैं बहनों में सब से छोटी, मुझसे छोटा एक भाई है। उम्र का अन्तर इतना कि मेरी बड़ी बहन की बेटी मुझसे दो महीने बड़ी थी। जन्म  से ही मौसी बन गई थी। हम मध्यम वर्गीय परिवार से थे। उत्तर प्रदेश के ग्राम दतौली के रहने वाले गाँव में घर और खेती-बाड़ी थी। खुशियाँ थीं, बड़े बाबूजी अध्यापक थे। वह बांदा गवर्नमेंट स्कूल में टीचर थे। मेरे बाबूजी जब शहर आने लगे तो छोटे बाबा जी ने उन्हें रोक दिया। बोले मै कुएं में कूदकर मर जाऊँगा अगर तुम गाँव छोड़कर गये। वे कुएं की जगत पर पैर लटका कर बैठ गये थे जिससे बाबूजी वहीं ठहर गए। बड़ी बहन की शादी 14 साल में ही गाँव से तय कर दी गई। छोटे बाबाजी के नहीं रहने पर बाबूजी ने नौकरी की खोजकर बैंक में बाबू बन गए और ट्रांसफर होकर बांदा ही आ गए थे। मेरी प्रारंभिक शिक्षा बांदा में ही शुरू हुई। मेरी दोनों बड़ी बहनें कुसुम दीदी और प्रेम दीदी स्कूल जाती थी, मैं भी जिद करती,मुझे भी स्कूल जाना है। तब स्कूलों में कोई कड़ा प्रतिबंध नहीं होता था इसलिए मुझे भी साथ भेज दिया जाता था। फिर मेरी शैतानियाँ चालू हुईं, मैं दीदी के साथ क्लास में ही बैठना चाहती थी और गुरूजी नाराज होतीं, उन्होंने डांट दिया था कि जाकर इसे घर छोड़ कर आओ। मैं घर चली थी, दीदी रोती हुई क्लास से निकलीं और मुझे घर छोड़ने आई जो पास ही था। संयोग से बाबूजी दफ्तर जाते हुए उसी समय निकले, उन्होंने पूछा तुम क्यों लौट आई। दीदी खूब जोर से रोने लगी, टीचर मना करती है और यह मानती नहीं है तो इसे घर छोड़ने आई थी। बाबू जी ने उन्हें तो भेज दिया और मेरे कान पकड़ कर मुझे घर ले चले पहली बार मुझ सिर चढ़ी ने बाबू का गुस्सा देखा। बड़ी शर्म आ रही थी क्योंकि मैं मुहल्ले में बातूनी लड़की  के नाम  से प्रसिद्ध  थी। बाबू जी ने सबक दिया था , दुलार-प्यार अपनी जगह, बदतमीजी बर्दाश्त नहीं की जाएगी। वह मेरी पहली व आखिरी भूल थी। आगे जब स्कूल में प्रवेश मिला, स्कूल से जब लौटती,बाबू जी पूछते क्या पढ़ा? मैं अपना मुंह खोल कर ब्रम्हांड दर्शन करा देती। वे हँसते और कहते, बड़ी पढ़ाई की है किस्सी (कृष्णा) ने। मैं नौ दस साल तक बाबू के पास ही सोती थी।

कल्पना : अपने लेखन में माता-पिता की भूमिका आप किस प्रकार देखती हैं?

कृष्णा : माँ  मेरी बहुत सीधी सरल थीं। वह बच्चों की देख-भाल, खिलाने-पिलाने की जिम्मेदारी उठातीं। अपनी पूजा-पाठ, रामायण एवं अन्य धार्मिक ग्रंथ पढ़ती थीं। बाबूजी हम लोगों की पढ़ाई और शिक्षा का भार अपने ऊपर लिए थे। किसी भी संतान की बदतमीजी उन्हें बर्दाश्त नहीं थी। एक भी अपशब्द नहीं  बोलने देते थे, फिर मजाक भी बनाते हमारी बेटियाँ तमीजदार हैं, लड़ाई में भी आप  कहकर लड़ती हैं। बाबूजी को हिंदी,अंग्रेजी और उर्दू का अच्छा ज्ञान था। वे उर्दू के नोवेल्स पढ़ते थे और हमें अंग्रेजी  पढ़ाते, हिंदी की अच्छे-अच्छे लेखकों साहित्यकारों की किताबें लाकर देते थे। हमने प्रेमचंद, शरदचंद्र, बंकिमचंद्र, वृंदावनलाल वर्मा, भगवती चरण वर्मा, आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास-कहानियाँ दसवीं  तक पढ़ डाली थीं। बांदा में उस समय कवि सम्मेलन बहुत होते थे। बाबूजी कवि सम्मेलन सुनने जाते तो हम भी साथ चल देते थे। उस समय हरिवंशराय बच्चन (उनकी ससुराल बांदा में थी) नीरज, बालस्वरूप राही, वीरेंद्र मिश्र, बेढब बनारसी (हास्य कवि) आदि जैसे कुशल कवियों का संगम होता था और हम लोग रात रात भर बैठ कर उन्हें सुनते रहते थे। तब न समय का बंधन था और न ही पैसे और टिकट का।अनाथालय  के परिसर में बिछी दरियों पर बाबू जी के साथ मैं आराम से बैठकर कवि सम्मेलन  सुनती थी। आधी रात के बाद जब भीड़ कम हो जाती तब कवि जन अपनी चुनी हुई कविताएं जनता के अनुरोध पर सुनाते थे। मुझे कविता की समझ आते ही मैं अपनी कापी में पेन्सिल से कविताएं लिखती जाती थी। उस समय के नीरज के मृत्युगीत, प्रणयगीत मेरे हाथ से लिखे, आज भी संकलन में हैं। घर में बाबूजी आपस में  अंताक्षरी  खिलाते वे भी रामायण और साकेत  पर आधारित। जिससे हमारे ज्ञान का भंडार सुदृढ  होता चला गया। बाबूजी स्वयं नवदुर्गा  के समय सुबह से रात तक बारह से चौदह घंटे में रामायण  खत्म कर देते थे। जब वे बीच मे फ्रेश होने और नाश्ते के लिए उठते तो पहले दीदी लोग फिर मैं भी रामायण पढ़ने बैठने लगी थी। घर में सुबह-शाम  संयुक्त आरती का भी प्रावधान था। शायद इसीलिए कविता से मैं बहुत जल्दी जुड़ गयी थी। माता-पिता की भूमिका मेरे लेखन में अहम् है।

कल्पना : शानदार! उस समय इस तरह की छूट हर लड़की को नसीब नहीं थी मगर आपके माता-पिता ने आपके प्रति बड़ी सोच रखी। उन्हीं के सहयोग से आप साहित्य में प्रवत्त हुईं। लेकिन गंभीर साहित्य ने आपके जीवन में कब और कैसे दस्तक दी? अपनी पहली रचना के प्रकाशन एवं उससे जुड़े पहलुओं पर प्रकाश डालिए

कृष्णा: हाँ कल्पना, मेरा अतीत ही बार-बार सजग-सहजता से हो या यों कहें कि चैतन्य रूप से, मैं चित्र जरूर बनाने लगी थी जिसकी सब तारीफ करते थे और मुझे हौसला मिलता था। पहली कविता शायद नवमीं कक्षा में लिखी थी– 

"वेदना का क्रम चला है आदि से ही

वेदना ही कवि प्रसूता है जगत में 

वेदना ने ही कर दिया था 

आदिकवि को पुरस्कृत।"

बाकी याद नहीं। हम कभी उस समय अपने मन में उठी भावनाओं को ठीक से व्यक्त नहीं कर पाए थे। शायद मुझमें शर्म थी, भय था, लोग क्या कहेंगे? अपनी पहली रचना किससे कहूँ कल्पना? स्कूल की मैगजीन में लिखी थी। इलेवंथ क्लास में पढ़ते समय कुछ कहानियाँ भी लिखी थीं। वे कहाँ गईं, नहीं पता। डायरी भी लिखना शुरू की लेकिन भय के मारे वह भी बंद कर दी थी। आज अफसोस होता है कि काश वह हमारे पास होती। फिर समय-समय पर मन के भाव जब हृदय में दस्तक देते तो भावनाएं  कागज पर भी उतर जाती थीं। हाँ, कक्षा बारहवीं में एक टीचर ने अंग्रेजी में एक आलेख लिखने को दिया था। विषय था,"एनी इंसीडेंट आफ योर लाइफ" उसमे मैंने अपने भैया के साथ हुए हादसे के विषय में लिखा था। टीचर ने पूरी क्लास के समक्ष कहा था इतना सुंदर आलेख मैंने आज तक नहीं पढ़ा। वही शायद मेरा पहला साहित्यक आलेख था जिसने आगे चलकर "भीगी पलकें" कहानी का रूप लिया और जो आकाशवाणी से1990 में प्रसारित हुई। कविताएं लिखकर मैं संजोती रहती थी। कभी कहीं भेजने की हिम्मत नहीं कर पायी। घर के लोग  भी तब कहाँ उत्साहित करते थे। बाद में एक समय ऐसा आया, जो लिखा रखा था वह प्रकाशित भी हुआ। उसके बाद एक बार जो लेखनी चली तो अभी तक सक्रिय  है। मैंने लगभग  हर विधा में लेखन किया है। खैर,पी.एच.डी करने के बाद से मैंने जब युगधर्म ज्वाइन किया सन 88 में तब से  युगधर्म और नवभारत, लोकमत समाचार, में निरंतर छपती रही।  जिनमें कहानियाँ, कविताएँ, व्यंग्य आदि शामिल थे। संभवतः पहली कहानी "अनचीन्हा सच" सन् 88 में युगधर्म में छपी थी। साथ ही "कवि और कविता" के तहत नवभारत में कविता और व्यंग्य "दद्दू के घर कद्दू" छपा था। उसकी घर-घर में बहुत चर्चा हुई थी और बहुत-से पाठकों के पत्र भी आए थे। उसी दौरान एक महिला मुझे मंदिर में मिली उन्होंने पूछा-आप ही कृष्णा श्रीवास्तव हैं?” मैं जब तक हाँ कहती वे फिर बोल पड़ीं,”आपने ही "दद्दू के घर कद्दू" लिखा है न?” वे हँसते-हँसते लोटपोट हो रही थीं। वे अपनी हँसी नहीं रोक पा रही थी। उन्हें देख मुझे भी हँसी आ रही थी।क्या लिखा है आपने वाह!वे फिर बोलीं और चली गयीं। मुझे लगा मेरा लिखा व्यंग्य  सार्थक  हुआ। आज भी वे बातें- सजीव प्रतिक्रियाएँ और पत्र मेरी थाती हैं।

कल्पना: ये बात आपके विवाह के उपरान्त रही होगी? आपका विवाह किस उम्र में हुआ? जीवनसाथी का सहयोग आपके लेखन में कितना और कैसे सहायक रहा?   

कृष्णा: हाँ बिल्कुल, मेरा विवाह 26 साल की अवस्था में श्री रामकुमार श्रीवास्तव  से 1966 में सम्पन्न  हुआ था। मैं संयुक्त परिवार में ब्याही गयी थी। घर में कोई  महिला न थी सिवा सासू माँ के, इसी कारण मैंने शासकीय स्थाई मुख्यअध्यापिका की नौकरी से इस्तीफा दिया और पूर्ण गृहणी बनकर अपना घर सम्हाला। उसमें परिस्थितियों के साथ मेरी अपनी भी मर्जी थी। उसी बीच मैं तीन पुत्रों की माँ बनी। जब बच्चे स्कूल जाने लगे तब मैंने अपनी आंतरिक इच्छाएं पूर्ण करने के लिए समय निकालना शुरू किया और पी.एच.डी करने की सोची और हाथ-पाँव मारकर नागपुर वि.वि.से रजिस्ट्रेशन करा लिया था। पति के सहयोग बिना और परिवार के सहयोग के बिना यह कार्य बिल्कुल संभव नहीं होता इसलिए जितना हो सकता था उन्होंने  भरसक मेरी मदद की और इस प्रकार मैंने शादी के 14 वर्ष के अंतराल के बाद रजिस्ट्रेशन और 1985 में पी एच डी की डिग्री ली थी। उसके बाद से मेरा बाहर आना-जाना शुरू हुआ। तभी मैंने युगधर्म  दैनिक में  संपादन, विभिन्न  संस्थानों  में  टीचर, लेक्चरार व प्राचार्य रहकर सेवा दी। साथ में सक्रिय  लेखन  में भी रत रहने लगी। पति का अपना अलग  व्यक्तित्व  था। वे ए. डी.आफिस  में नौकरी के दौरान आल इंडिया आडिट अकाउंट के चौदह वर्ष अन अपोज्ड प्रेसिडेंट रहे। उन्होंने कई बार अपने प्रमोशन भी ठुकराए लेकिन हम दोनों एक दूसरे के काम और सोच में कभी बाधा नहीं बने बल्कि सम्मान ही किया। अपने काम से श्रीवास्तव  जी को आल इंडिया घूमना पड़ता था। वे हर माह दिल्ली जाते, मैं अपने बढ़ते बच्चों, भतीजों  और सास को सहेजती और सम्हालती रहती। एकान्त निकालकर कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, उपन्यास  लिखती रहती। हाँ मेरी लिखी हुई पांडुलिपियों की प्रूफ रीडिंग का कार्य मेरे पति सम्हालते थे। वही मेरे पहले सलाहकार और समीक्षक भी रहे हैं।

कल्पना: कितनी सुन्दर बात, जब जीवन साथी, हमराही बन जाता है तो जीवन में सुगमता आना निश्चित हो जाती है। फिर भी नई शादी, घर गृहस्थी, पति, बच्चों की साज-संभाल करते हुए आपकी लेखनी किस प्रकार का सृजनात्मक  लेखन कर रही थी। लेखन विषय कैसे चुनती थीं

कृष्णा: कल्पना ! आपको  पहले ही जैसे बता चुकी हूँ कि मेरा विवाह संयुक्त परिवार में हुआ था। उस  सदी  में पहले के मध्य वर्गीय संयुक्त परिवारों का जो माहौल होता, वही मेरे यहां था। समाज में इधर की बातें उधर  की जाना बड़ी आम बात थी। किसी के लड़के की शादी हुई नहीं कि सबसे पहले उसकी बहू कैसी है, वह घर में कैसे रहती हैघूंघट रखती है या नहीं? आदि चर्चाएं चल पड़ती थीं। मेरे साथ भी वही हुआ। श्रीवास्तव जी बड़ी पढ़ी-लिखी बहू लाए हैं, देखना…..। ऐसी बहुत सारी बातें हमारे इर्दगिर्द समाज में होती रहती थीं। जो लोग घर आते थे उन सब के पैर तो छूना ही था। सुबह से उठकर घर के जितने  बड़े लोग  रहते थे  सबके चरण स्पर्श करना अनिवार्य था। फिर एक दिन अम्मा जी ने ही मना कर दिया,”बस करो,रोज सुबह से पैर छूने की जरूरत नहीं है।मैंने  उन्हे बहू न कहकर अपने नाम से बुलाने का आग्रह किया तो वे मुझे नाम से ही बुलाने लगी थीं। विवाह  के पूर्व  ही सास-ससुर जी ने बाबूजी से कह दिया था कि हमें बहू से नौकरी नहीं करवानी, और  बाबू जी ने सहमति भी दे दी थी। तो फिर उनका मान मुझे रखना ही था। इसलिए जब नौकरी करने और छोड़ने का प्रश्न आया तो मैंने उन्हीं लोगों पर छोड़ दिया जैसा चाहें और इस प्रकार मैं अपनी स्थाई नौकरी से छुट्टी पा गई थी। रम्मी (पति) जी की आंखो  मे कृतग्यता का भाव  था। बिना ना नुकुर  किए  इस्तीफ़ा दिया था। चाहती तो मना कर सकती थी। छब्बीस साल की उम्र तक जो लड़की निरंतर भागदौड़ करती रही हो उसका एकदम घर में बंद हो जाना सच में कठिन  था। लेकिन सबका प्यार था, शायद मैं भी इसीलिए आराम  से रह सकी। बाबू जी (ससुर) जी एडवोकेट थे बड़े शांत स्वभाव डिसिप्लिन पसंद, कभी जोर की आवाज नहीं सुनी। अम्मा जी गृहणी थी। देवर दसवीं में था छोटे भाई  जैसा, थोड़ा गुस्सैल, उसकी मेरी खूब पटती आज भी देवर आदर करते हैं। श्रीमान जी प्रेमी पति, लीडर आदमी, डेढ वर्ष  बाद  ही पहले पुत्र  की  माँ बनी। तो वे अच्छे पिता भी बने। जेठ जी तहसीलदार  थे उन्होंने अपनी बड़ी पुत्री ममता का के.जी में नागपुर  में एडमिशन कराया। घर में  2 बच्चे और 2 साल बाद  मेरा दूसरा बच्चा हुआ।  कुछ साल बाद भाई साहब ने  ममता के भाई  का भी प्रवेश पांचवी कक्षा में करवा कर मेरे पास भेज दिया। इस तरीके से मेरे पास 4 बच्चों का पालन पोषण करते लेखन का विचार भी नहीं आया कपड़े सिलना स्वेटर बुनना बच्चों को पढ़ाना बेशक करती रही। घरेलू  लाइब्रेरी योजनानुसार  हर माह मन चाही पुस्तकें आ जाती थीं। समय मिलते ही मैं उन्हें पढ़ती रहती थी। जो भाव मन में उठते उन्हें लिख भी लेती थी। विषय चुनने चुनाने का वक्त शायद नहीं था मेरे पास। बड़े भाई साहब किडनी की बीमारी  से 39 साल में 4 बच्चों को छोड़कर दुनिया से चले गए। उनके जाने से पूरा परिवार हिलकर रह गया। उनके निधन के 2 महीने बाद मेरा तीसरा पुत्र पैदा हुआ। इस प्रकार जब सब बच्चे स्कूल जाने लगे तब मैंने पीएचडी करना शुरू किया था। मेरा सक्रिय लेखन उसके बाद शुरू हुआ। जो पहले कहीं लिखा रखा था वह भी बाद में ही प्रकाशित हुआ। हाँ इतना ज़रूर रहा जब मेरे बच्चे हुए तो उनके जन्म के बाद सवा महीने तक मुझसे घर का कोई काम नहीं करवाया जाता था। उस समय मैं पेंटिंग करती थी या घर में जो पिसना अनाज वगैरह तैयार करना होता था वह करती थी क्योंकि इनके घर में तब छुआछूत काफी मानी जाती थी। 

कल्पना: आप से बात करते-करते एक बात और याद आती है? एक रचनाकार को लिखते समय अपना सत्य कितना छिपाना और कितना दिखाना चाहिए

कृष्णा: कहते हैं न कल्पना! "साँच को आँच नहीं" लेखक को अपना हो या पराया सत्य को स्पष्ट कहना चाहिए। जब हाथ में कलम उठा ही ली तो क्या छिपाना और क्या दिखाना। लेकिन साथ-साथ उसे ये भी याद रखना चाहिए कि साहित्य की अपनी सीमाएँ होती हैं। साहित्य रोजनामचा नहीं होता है। उसमें यथार्थ के साथ कल्पना, सुख-दुख, हास्य-व्यंग्य, सामाजिक विभीषिकाओं आदि का समावेश होना अति आवश्यक है और लिखने के लिए लेखक के पास सुदृढ़ भाषा और लालित्यपूर्ण संवेदी दृष्टि भी होनी चाहिए। अपने लेखन में  ताज़गी रखने के लिए लेखक को प्रयोग करने पड़ते हैं लेकिन उसे सोच-समझ कर करना चाहिए।

कल्पना: महान साहित्यकारों के फेहरिस्त में आप किसे अपना आदर्श मानती हैं?

कृष्णा: प्रेमचंद, गोरकी, टॉलस्टॉय  लगभग एक ही समय के उपन्यासकार रहे हैं। तीनों ही अपने-अपने देश के महान साहित्यकार हैं। उनकी कहानियाँ-उपन्यास पढ़ने का सौभाग्य मिला मुझे। मैंने हिंदी में ही उनको अधिक पढ़ा है अंग्रेजी में कम। इन सब ने अपने अनुभूत सत्य  को जितनी मार्मिकता से बयान किया है, लगता है हमारे आस-पास  की कहानियाँ हैं। उसमें हम उस समय खुद को जी लेते हैं। उपन्यास सम्राट प्रेमचंद, शरदचंद्र का साहित्य धर्मवीर भारती जी का "गुनाहों का देवता," रश्मि रथी एवं कमलेश्वर का "कितने पाकिस्तान" विष्णु गुप्त जी का "आवारा मसीहा" अपने आप में महान कृतियाँ है। शिवानी जी पर मैंने शोध कार्य  किया है। सच कहूँ तो कल्पना मेरे पसंदीदा लेखकों की लम्बी फेहरिस्त है। भगवती चरण वर्मा की" चित्र लेखा" हो फणीश्वर नाथ रेणु का आंचलिक  उपन्यास "उसने कहा था" कहानी जो हिन्दी साहित्य के कथा साहित्य का स्थान स्थाई स्तंभ है। उसे कैसे भूला जा सकता है? और फिर जिसका भी लेखन मन को छू लेता है वह मेरा आदर्श बन जाता है। किसी एक का नाम लेना संभव नहीं है न किसी एक लीक  पर चलकर मै लिखती हूँ।

कल्पना: अब, जब आप पीछे मुड़कर देखती हैं तो आपके लेखन में कौन से मील के पत्थर आपको ज्यों के त्यों दिखाई पड़ते हैं? 

कृष्णा: मील के पत्थर कहूँ या पड़ाव, विवाह के बाद एकदम घरेलू स्त्री बन गई थी। लोग मुझे पहचानते भी नहीं थे कि मैं कभी हेडमिस्ट्रेस भी रही थी। बच्चों की जिम्मेदारी के संग मैंने अपने आप को फिर से संभाला, मन में लगन थी, जीवन  में कुछ  करना है । नौकरी की और जब पीएच. डी. की डिग्री मिली तो लगा मेरी मेहनत रंग लाई है। पहली बार आकाशवाणी से मेरी कहानी प्रसारित हुई तो वह मेरे जीवन का एक पड़ाव था। उसके बाद 1996 में मुझे अपने कहानी संग्रह "अंजुलि भर धूप" के लिए महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी से अनुदान मिला। वह मेरी खुशी का क्षण था।  बाद में 2006-7 में मेरे पहले उपन्यास "अभिशप्त पुष्प" को जब महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी मुम्बई का प्रेमचंद पुरस्कार मिला जिसका 4 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है, मील का पत्थर साबित हुआ। फिर तो समय-समय पर उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक ,पुरस्कृत  हुए। व्यंग्य, यात्रा वृतांत ,लघु कथाएं रचती रही हूँ। कोई मील का पत्थर बनेगा या नहीं कह नहीं सकती। विदर्भ हिंदी साहित्य सम्मेलन नागपुर का जब विशेष पुरस्कार,श्री राम गोपाल महेश्वरी पुरस्कार मुझे मिला, तो वह मेरे जीवन का एक और बड़ा पड़ाव साबित  हुआ है। बड़ी सच्चाईमेहनत और लगन  से एक मुकाम  मिला है। यह सब मेरे पाठकों  और चाहने वालों के स्नेह का ही परिणाम  है। इच्छा है, जीवन  में कुछ  विशेष  कर पाऊँ, ये सब भविष्य  के गर्भ में है। अभिशप्त पुष्प का वीर नर्वद सूरत गुजरात वि वि  में सिलेबस में आना एक और बड़ा पड़ाव मानती हूँ। अंततः नागपुर  वि वि से एक छात्रा द्वारा मेरे कथा साहित्य  पर शोध कार्य  किए  जाने पर संतोष  होता है कि मेरे सामने ही मेरे साहित्य  को पहचान  मिली है।

कल्पना : आपने अपनी आत्मकथा का नाम "बैंकबाबू की बिटिया " रखा है क्या आप इसे अपनी पहचान मानती हैं?

कृष्णा: अपनी आत्मकथा लिखने के पूर्व दैनिक भास्कर के संपादक प्रकाश दुबे जी का श्रीवास्तव  जी से यह कहने पर 'आपके पास एक कुशल लेखिका हैअपने स॔घर्ष के विषय में कह डालिए। मैंने श्रीमान की आत्मकथा जीवनी "लीडर प्लीडर की संघर्ष गाथा" लिखी थी। वह काफी चर्चित हुई। ऑफिस वालों के बीच विषेश रूप से। अपने जीवन की तमाम स्थितियों को जगह-जगह पर कहानियों, उपन्यासों में वर्णित कर चुकी थी। लेकिन फिर भी मुझे लगा कि बाबूजी की लगन मेहनत और उनका समर्पण भाव बच्चों के प्रति जो था, वह कहीं न कहीं आना चाहिए। बचपन में बैंक बाबू की बिटिया का रुमाल जो मेरे पीठ में लटका रहता था, वही मेरे आत्मकथा का शीर्षक बना। मुझे तो याद नहीं लेकिन जितने प्यार दुलार से मेरी शैतानियों की चर्चा होती, मुझे उसमें अपनी पहचान दिखती थी। बाबू जी की मेहनत लगन टूट कर सम्हालने की कथा, युवा पुत्र को उसके विवाह के चार दिन पूर्व ऐक्सीडेन्ट में खो देने की व्यथा। हम साधारण मध्यम वर्गीय परिवार के लोग थे। बाबूजी की संघर्ष गाथा इस कथा में वर्णित है।  साथ ही मेरा प्यारा-सा जीवन, और उसका संघर्ष  भी लिखा है। यों तो मेरा उपन्यास "केन के सजर" जो लोग मुझे जानते हैं मेरी आत्मकथा मानते हैं जिसमें पात्र काल्पनिक भले हैं पर मेरे जीवन की परछाई  लिये हैं। एक कारण और याद आ रहा है, जिसके कारण मैंने आत्मकथा का नाम "बैंकबाबू की बिटिया" रखा। जब मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी  में सेकेंड ईयर में थी, एनसीसी कैडेट होने के कारण हम लोगों की ड्यूटी कन्वोकेशन के समय लगाई गई थी। लोगों को गाइड करने के लिए मैं यूनिफॉर्म में थी। तभी एक व्यक्ति के रास्ता पूछने पर मैंने बताया तो वह बोले थे। तुम बैंकबाबू की बिटिया हो? मैंने कहा मैं आपको नहीं पहचानती। उन्होंने कहाहम तुम्हार बाबूजी के घर आए रहे, आपको देखा रहामान गए उनकी पारखी नज़र को यूनिफॉर्म में भी पहचान  लिया था।  तो फिर तो बाबूजी से जुड़ी पुस्तक का नामबैकबाबू की बिटियाहोना ही था। 

कल्पना: ये बात सभी जानते हैं कि आप उपन्यास, कहानी, व्यंग्यकविता, निबंध आलोचनानाटक आदि सभी विधाओं मे लिखती हैं तो ऐसे में किस विधा को अपने दिल के करीब  पाती है

कृष्णा:  कल्पना, मुझे लगता है कि जब जो भावना, जो विचार, जो कथानक मन में हावी होते हैं, वही रचना बन जाती है।  चाहे वह कहानी,कविता या फिर उपन्यास ही क्यों न हो। लिखने के लिए लंबे समय की आवश्यकता होती है।  ऐसी बात नाटक के भी  साथ  होती है। एक सेटिंग में नहीं होता। जल्दीबाजी में कविताएं भले बन जाएँ और कहानी भी एक बैठक में अगर लिख भी ली तो उसमें बार-बार सुधार की आवश्यकता होती है। इसलिए जब जिस भाव में जो भी विधा मुकम्मल बनकर मेरे सामने आ जाती है, वही दिल के करीब मान लेती हूँ।

कल्पना: आप एक बेहतरीन लेखक हैं, साथ में आपकी कलाकृतियों (चित्रों) को देखती हूँ तो लगता है, आपकी कूंची भी कलम की तरह चलती है। अपनी चित्रात्मक पहल और समाज में लोक कलाकारों की स्थिति के बारे में आपकी क्या राय है?



कृष्णा:  हम जो चाहते हैं, हमेशा वह नहीं मिलता हमारे भाग्य में जो होता है, वह हमें मिलता है। वास्तव में मैं बनना चित्रकार ही चाहती थी लेकिन स्थितियाँ ऐसी नहीं थी कि मैं चित्रकार बन सकती। मैंने पेंटिंग का इलाहाबाद से दो वर्ष  का डिप्लोमा  कोर्स  बी. ए .के साथ-साथ  किया था। क्षितेंद्रनाथ मजूमदार,डा धूलिया जैसे जाने माने कलाकार मेरे गुरु रहे हैं लेकिन इस विधा में मैं अपना कैरियर नहीं बना सकी। बस शौक  पूरा करती रहती हूँ। रही बात लोक चित्रकला तो ये मुझे बहुत आकर्षित करती है। मधुबनी,वार्ली आर्ट, पहाड़ी कला आदि कलम के चित्र मैंने भी बनाए हैं। अपने समाज में लोक चित्रकार  की स्थित  बहुत  अच्छी नहीं मानी जाती, और न ही सरकार उन्हें समुचित मुद्रा योगदान देती हैं। इसीलिए  वे कलाएँ कलाकार के साथ लुप्त होने की कगार  पर जल्दी चली जाती हैं।  फिर भी इस वैज्ञानिक युग में लोगों का ध्यान लोक चित्रकला की ओर आकर्षित  हुआ  है। अब मैं आदिवासी, वारली, पहाड़ी कलम  के चित्रों से शहर के शहर सजे देखती हूँ। फैब्रिक  पर लोक  चित्रों  से सजे कपड़ों की बढ़ती माँग ने  लोक  चित्रकारों के भविष्य के प्रति एक सफल आस जगाई है। चित्र प्रदर्शनियाँ लोगों का ध्यान आकर्षित  करती हैं। लेकिन अपने देश में कला को पहचानने वाले लोग कम हैं। चाहे ये भी कह सकते हैं कि जब पेट भरा होगा तब आँखें कुछ अच्छा देखने को मचलेंगी। खैर, आज कल बहुत-सी पत्रिकाएँ इस ओर कार्य कर रहीं हैं। बहुपठित ककसाड़ मासिक पत्रिका को ही देख लो, उसके प्रत्येक अंक में जनजातीय चेतना, कला, साहित्य, संस्कृति की सुरक्षा में काफ़ी विषय प्रकाशित होता है। मैं कह सकती हूँ ये पत्रिका तो इस नेक काम में वर्षों  से लीन है।

कल्पना: क्या आप मानती हैं कि सरकारी या गैर सरकारी संगठनों के द्वारा दिए गए साहित्यिक सम्मान, जिनकी आजकल बाढ़ सी आ गई है,लेखन में उत्प्रेरक का काम करते हैं?

कृष्णा: यह सच है कि हर लेखक जो रचता है उसको सम्मानित होते हुए देखना चाहता है। अपनी आंतरिक  भावनाओं को जब एक लेखक कागज  पर उतारता है, उसके बदले वह मैटेलिक सम्मान चाहता है या नहीं, कह नहीं सकती। हां, जो वह कृतियां रचता है, वे पाठकों को पसंद आएं, पढ़ने वालों के बीच उनको सम्मान और सराहना मिले, ये बहुत आवश्यक मानती हूं। उसके बाद साहित्यिक  सम्मान भी लेखन को मिलता है तो सोने पर सुहागा वाली बात होगी। उससे लेखक का हौसला बढ़ता है। लेकिन ये भी सत्य है, अपनी क्षमता से अधिक लेखक कभी भी कुछ व्यक्त नहीं कर पाता। लेखकीय क्षमता लेखक की आन्तरिक ऊर्जा से बढ़ती है, सम्मान से नहीं। ये बात भी सच है जिसे प्रत्येक लेखक को समझना होगा। जब तक मन को कोई बात छूती नहीं, कोई आईडिया या गहरा विचार क्लिक नहीं करता तब तक लेखन जबरन ही कहलाएगा और इस प्रकार का साहित्य सतही, ऊपरी कहलाता है। आजकल इस तरह के लेखन की बाढ़ सी आ गई है। 

मैंने तो ये भी देखा और सुना है, पुराने लेखकों की पंक्तियों को कुछ नया रूप देकर जिस तरीके से आज के लेखक अपनी रचना बताते हैं, वह अच्छा नहीं है। साहित्य  के सागर  से किसने एक-एक कर बूंद  चुराई शायद ये बहस निर्थक है। हां, ये ज़रूर कहूंगी, पुरस्कार भी आजकल बिकाऊ हो गये हैं। सम्मान या पुरस्कार देने वाला देखता है, कौन किसका रिश्तेदार है, बड़े लेखक से जुड़ा है, उसे बड़े पुरस्कार आवंटित कर दिए जाते हैं। यह केवल मैं नहीं कह रही, ये कड़वी सच्चाई है। और ये भी अपरिहार्य है कि हर बार आवंटित होने वाले पुरस्कार कुछ सच्ची कृतियों को भी मिलते है। यह समय का फेर है। आपने जो बात फेसबुक लेखकों के प्रति कही, वह अच्छा भी है और खतरनाक भी। जिस तरीके से फेसबुक पर लिखकर लेखक के लेखन के प्रति सरलता से सर्टिफिकेट देकर चट से उसे बड़ा साहित्यकार घोषित कर दिया जाता है, वह साहित्य के लिए गंभीर विषय बन सकता है। बिना मेहनत किए कुछ नहीं मिलना चाहिए नहीं तो चाहे लेखक हो या संतान आत्ममुग्धता में डूबकर समाप्त हो जायेगी। अच्छे और जिम्मेदार लेखकों  को इस मोहजाल से बचना चाहिए, भले उन्होंने फेसबुक से ही लेखन शुरू क्यों न किया हो। पैसे देकर पुरस्कार  लेना, स्वयं का सम्मान  करवाना केवल दिखावा, सस्ती  आत्मतुष्टी है।   जो कहीं से भी अच्छा नहीं है साहित्य  के लिए।

कल्पना: आज सबसे ज्यादा क्षरण मनुष्यता का हो रहा है। आपका माहौल कैसा था? उस समय के साहित्य, समाज और मनुष्य को आप आज के समय में बांचना चाहें तो क्या कहेंगी? 

कृष्णा: हर समय का अपना एक सच होता है। आज से 70 वर्ष पूर्व के संस्कार,माहौल की आज से तुलना करें तो हम पाते हैं कि आपाद परिवर्तन आया है। पहले लड़कियों की  शिक्षा पर अधिक ध्यान  नहीं दिया जाता था पर संस्कार कुशल गृहणी बनाने के दिए जाने का ध्येय था। एक कविता याद आती है "यह हमने माना कि तुम पढ़े हो, कुछ ना कुछ डिग्री भी लिए हो। पर पहले माता सब सुधरनी चाहिए कि जिनके सांचे में पुत्र ढलें।" मां प्रथम शिक्षिका होती है स्वतंत्रोत्तर भारत में शिक्षा का प्रचार प्रसार तेजी से हुआ।  महिलाएं निरंतर आगे बढ़ीं हालांकि आज भी  पुरुषों की तुलना में उनकी संख्या कम हैं लेकिन जिस तरीके से उन्होंने अपनी योग्यता हर क्षेत्र में प्रदर्शित की है, उससे उनके सुधरे जीवन की अपार संभावनाएं दिखाई  दे रही हैं। स्त्री ने घर-बाहर  दोनों क्षेत्र  सफलता से सम्हाले हैं। ये समय कुछ अलग है, इसके अंतर से संस्कार, संयम  और नैतिक  मूल्य लुप्त हो रहे हैं। संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवारों ने संबंधों की गरिमा को ठेस पहुँचाई है।  एक बच्चा या दो बच्चा होने की वजह से रिश्तों की जो सुगंध बुआ, मौसी, चाचा, मामा, आज का बच्चा वह समझ नहीं पाता। लेकिन बच्चों का उसमें दोष कहां जो उन्होंने देखा नहीं उसे समझे कैसे  इसीलिए सगे संबंधों में नैतिकता खत्म हो रही है।

आज का आदमी अपने सगे संबंधियों पर भी विश्वास नहीं कर पा रहा है। प्रतिदिन  व्यभिचार, हत्या के समाचार  देखकर  मन कांपता है। कैरियर की अंधी दौड़ में पारिवारिक संस्कारों को तिलांजलि दी जा रही है। माता पिता का प्रथम कर्तव्य बच्चे होने चाहिए, पैसा बन गया है। संतान संभालने की जिम्मेदारी आया या नैनी के हाथ में सौंप दी जाती है। संस्कारों के आदान प्रदान की जिम्मेदारी आया पर है वह बच्चे को जैसा सिखा दे। और ये भी सत्य है जो पालन पोषण का पैसा हासिल करेगा वह जीवन मूल्यों का निर्वाह कितना करेगा, उसी पर निर्भर है। 

याद आता है जब हम अकेले बांदा से इलाहाबाद जाते थे। एक बार पूरी मिलिट्री बोगी मे मैं अकेली लड़की बांदा से इलाहाबाद गई। सारे पुरुषों के बीच में अकेली, वह भी 16 साल की। रात भर नींद नहीं आई थी। मेरे बाबूजी ने एक आर्मी ऑफिसर से कह दिया था कि इसे सुरक्षित इलाहाबाद पहुंचा दीजिएगा। वह व्यक्ति इतना सभ्य कि उन्होंने अपनी जिम्मेदारी शालीनता से निभाई थी। आज उस की कल्पना भी नहीं कर सकते। समय को बांचने के लिए ये एक  उदाहरण  ही काफी  है। ऐसा नहीं  कि पहले सबकुछ  अच्छा ही अच्छा थी, पर आज  की  तुलना में ज्यादा थी। मोबाइल, लैपटॉप, इंटरनेट, साइबर अपराध ने तहलका मचा रखा  है। जो चीज़ एक ओर ये  अत्यंत सुविधाजनक है, एक कमरे में विश्व  सिमटा है। वहीं कौन कब क्राइम का शिकार हो जाए पता नहीं। कब कहां क्या घट जाएगा, कहा नहीं जा सकता। कहीं न कहीं इस भागते वक्त पर लगाम लगनी चाहिए।

कल्पना: समाज के पैरोकार जब सामाजिक रूढ़ियां और कुरीतियां सघनता से विकसित कर रिश्तों में रोपते हैं। तो एक लेखक को उन्हें लिखने से क्यों परहेज़ करना चाहिए? भले वह बात उसकी अपनी ही क्यों हो। क्योंकि लेखन में व्यक्ति नहीं मनोवृत्तियां उद्धृत की जाती हैं। आप क्या कहेंगी दीदी?

कृष्णा: सही कहा आपने, साहित्य में और होता ही क्या है? साहित्य से इंसान और उसका परिवेश यदि निकाल दिया जाए तो बचता क्या है? मानवीय रूढ़िगत मनोवृतियों का चित्रण सदैव  से जब जैसा समय रहा साहित्य में होता आया है। भक्ति काल से लेकर आधुनिक काल का साहित्य  इसका गवाह है। राम चरितमानस में कैकेयी इस बात का साक्षात उदाहरण है। अच्छा लगता है, आज सामाजिक कुरीतियों विघटित परिस्थितियों  पर  लेखकों की कलम  सक्रियता से चल रही है। साहित्य  को  यूं ही समाज के दर्पण की संज्ञा नहीं मिली है। हां इतना ज़रूर कहूँगी, इतिहास और साहित्य में जो पतली सी रेख का अंतर रखा जाना चाहिए, उसका लेखकों को ज़रूर ध्यान रखना होगा। वही अंतर साहित्य को इतिहास से अलग करता है।  समाज की नंगी सच्चाई  एवं संभावित कल्पना का समावेश ही साहित्य की उपादेयता है। उसका हमेशा ख्याल साहित्य साधक को रखना चाहिए जो कि वह रखता भी है। अत्यधिक लिजलिजी भावनात्मक और खोखली कल्पनाशीलता साहित्य के लिए मुझे उपयुक्त नहीं लगती।

कल्पना: आप अपने उपन्यास कहानियों के लिए क्या कथ्य की योजना बनाती हैं।

कृष्णा:  कभी-कभी ऐसा होता है कल्पना! कोई

एक स्थिति, एक घटना मन को इतनी प्रभावित करती है कि वह चैन नहीं लेने देती। उस एक घटना   से जुड़ी कथा आपके मन में घर कर जाती है और मन को मथना शुरू कर देती है। जब सत्य घटना मथकर मक्खन बन जाती है तब अपने आप वह कागज़ पर जन्म लेती है। चाहे कविता के रूप में, कहानी के रूप में  या किसी विधा में, कोई बड़ा फलक हो तो उपन्यास के रूप  में भी। फिर चाहे वे  खुशी के पल हों या दुख के। और कभी कभी स्थितियां त्वरित  वेग से रचने को प्रेरित करती हैं। कभी किसी घटना, बात, दृश्य पर योजनानुसार  लेखन  भी होता है। कभी कोई बात भी  मन में घर कर जाती है तो मौका पाकर तुरंत सर्जनात्मक रूप ग्रहण कर लेती है। मेरी पहली कहानी "भीगी पलकें" जी भाई के एक्सीडेंट पर  आधारित  थी। पूरे परिवार को हादसे ने तोड़ कर रखा दिया था। मैं आठवीं कक्षा में थी। बड़े होने पर वही मेरी पहली कहानी बनी। ऐसा ही कुछ  मेरे प्रथम  उपन्यास  "अभिशप्त पुष्प" के संग  हुआ।  मन की स्थित अजब है, जिस  में रुक चाहती सृजित  हो जाती है।

कल्पना: दीदी, लेखक के तौर पर आपकी कोई  अतृप्त कामना या अफ़सोस…..?

कृष्णा: लेखक के तौर पर अब तक निरंतर लेखनरत हूं। फिर भी अभी तक कामना निरंतर मन में बनी हुई है कि अभी जो लिखना था वह बाकी है। लगता है कि मैं अब क्लासिकल  लिखने  की इच्छुक  हूं। अफ़सोस ये कि क्या कुछ अच्छा कर पाऊंगीये सब भविष्य के गर्भ में है। जो लिख  रही हूं पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ आकाशवाणी से प्रसारित और पुरस्कृत  हुआ है। उसका संतोष है।

कल्पना:  किसी लेखक को जब अपने जीवन में  कोई सम्मान या बड़ा पुरस्कार नहीं मिल पाता है तो उसे क्या करना चाहिए ?

कृष्णा: किसी लेखक को कोई पुरस्कार नहीं मिलता तो क्या लेखक पुरस्कार के लिए लिखते हैं? मुझे लगता है कि सृजनात्मक अच्छा लेखन पुरस्कार के लिए सोचकर नहीं लिखा जाता है। मैं पहले भी कह चुकी हूं, उस सृजन की पहचान पाठक वर्ग अपने आप करता है, अगर सम्मान जुटाने जैसी स्थिति आती है तो लेखक को समझ लेना चाहिए कि उसके लेखन में दम नहीं है। जो सम्मान  दिला सके। अच्छे लेखन के लिए लेखक को मेहनत करते रहना चाहिए। एक न एक दिन उसके लेखन में सुधार भी आएगा और वह पाठकों के दिल में स्थान भी बना सकेगा। अच्छे लेखन के अच्छा साहित्य पठन भी बहुत जरूरी है। आजकल के लेखक पढ़ना नहीं चाहते। स्वयंभू कवि और लेखक बनना चाहते हैं। जो कि गलत है मेरी दृष्टि में। पुरस्कार पाने की इच्छुक  लेखक जोड-तोड़कर  प्रशंसा पुरस्कार भले पा लें ,पा भी लेते हैं  बहुत सी ऐसी  संस्थान  खुल गई हैं। जो पैसा लेकर सम्मान  देती हैं। लेकिन  सम्मान प्राप्त रचनाकारों का  मन जानता होगा कि सम्मान लेने के बाद भी वे अंदर से कितने खोखले हैं।

कल्पना: आपने हिंदी में इतना सारा लिखा है। क्या विदेशी साहित्य का आपने अनुवाद किया है? विदेशी साहित्य और भारतीय साहित्य में क्या अंतर  देखती हैं?

टॉलस्टॉय, हेमिग्वे, की कई कहानियों का अनुवाद किया। साथ ही अरेवियन नाइट्स की  कुछ कहानियों का अंग्रेजी से अनुवाद भी मैंने हिंदी में किया था। जो लोकमत समाचार में सीरियली छपी थीं। हर जगह का परिवेश और सभ्यता अलग होती है। यही बेसिक अंतर है भावनाएं तो एक सी ही होती हैं न!

कल्पना: आप अपनी कृतियों में  उपन्यास को अधिक सशक्त मानती हैं या कहानियों को ?

कृष्णा: कुछ कहानियाँ दिल के बहुत  नजदीक  हैं, और कुछ उपन्यास। अपनी तरफ से तो हम अपनी भावनाओं को पूरी शिद्दत से व्यक्त करते हैं, जब पुनः पढ़ते हैं तो कई बार लगता है इसमें कुछ कमी रह गई। जब कृति पाठक के हाथ में जाती हैं तो उनकी प्रतिक्रिया ही यह तय करती है कि कौन सी कहानी या उपन्यास सशक्त है। अपने भाव, अपना लेखन तो सभी को पसंद आता ही है पर हम निश्चित करने वाले नहीं, जैसे तुलसीदास ने लिखा है स्वयं अपने संतोष के लिए लिख रहे हैं। लेकिन उनके मानस  का प्रभाव सारे विश्व पर पड़ा है। यह कहकर मैं अपने को बड़ा लेखक नहीं सिद्ध कर रही। सिर्फ एक उदाहरण के तौर पर यह बात कह रही हूँ।

कल्पना: आप अपने साहित्यकार और इंसान के रूपों में से किसे अधिक सफल मानती हैं?

कृष्णा: बहुत अच्छी बात पूछी  है कल्पना! एक  मनुष्य  के रूप मे अपने आप को सर्वाधिक महत्व देती हूं। साहित्यकार के रूप में सफल असफल  होना पाठकों पर निर्भर करता है। लेखक की प्रसिद्धि और कद उसकी रचनाओं पर टिका होता है जो पाठक तय करते हैं। लेखक की सफलता नापना अपने बस की बात नहीं है। हां, मुझे लगता है कि इंसानियत का तकाजा इंसान पर निर्भर  है। उसके व्यवहार पर टिका होता है। इस नाते कह सकती हूं कि अगर इंसानियत  ही जिंदादिल ना रह सकी तो साहित्यकार होना किस काम का?

कल्पना: आए दिन लेखक, प्रकाशक और रोयल्टी की चर्चाएँ गर्म रहती हैं? नए लेखकों को इस मुद्दे को किस तरह देखना चाहिए?

कृष्णा: यह अत्यंत गंभीर प्रश्न है कल्पना, लेखक लिखता रहता है? अच्छा लिखता है? साधारण लिखता है? लेकिन प्रकाशक नए लेखकों की कीमत पहचानना नहीं चाहता। इस दृष्टि से लेखक बहुत गरीब होता है  जब तक कि उसकी किसी एक कृति को प्रसिद्धि नहीं मिल जाती। वह रायल्टी की तो बात ही नहीं, पैसे देकर छपवाने को मजबूर होता है।  यह आज की ही नहीं पुराने समय से चली आ रही दिक्कत है। अपनी पांडुलिपि लिए लेखक दर दर भटकता रहता है। कुछ बड़े प्रकाशन ही रायल्टी देते हैं। जो पाते है वे भाग्यशाली है, कुछ बिना पैसे लिए भी प्रकाशित  करते हैं। 

कल्पना:  इतनी उम्र पार करने के बाद भी आपमें एक युवा जैसी स्फूर्ति देखती हूं। कृष्णा दीदी इसका क्या राज़ है

कृष्णा: इस विषय में क्या कहूं कल्पना! ईश्वर  की कृपा कहें, पति का स्नेहिल संग साथ या बच्चों का प्रेमिल समर्पण। सभी मेरी ऊर्जा के स्रोत हैं। मेरे उत्साही जीवन बनाए रखने में मेरे पाठकों की प्रतिक्रियाओं का कम असर नहीं मानती हूं।

कल्पना: बहुत सुंदर! आपसे इस प्रकार के उत्तर की ही आशा थी। दीदी चलते चलते अगर पूछना चाहूं तो आपके बहू, बेटों और उनके बच्चों में आपकी लेखकीय विरासत सम्हालने के गुण किस में दिखते हैं?

कृष्णा: मैं कहना चाहूंगी कि बिना उनके सहयोग के मेरा लेखन संभव  न था, तो उसे संभालने की जिम्मेदारी भी उन्हीं पर है। छोटे बेटे ने मेरे उपन्यासों का कॉपीराइट करा दिया है।  घर के सभी सदस्य मुझे उत्साहित  करते रहते हैं। अनायास ही जो खालीपन श्रीवास्तव जी के जीवन  के पचपन वर्ष  का साथ  छूट  जाने से आया है। उस कमी को तो कोई चाह कर भी पूरी नहीं कर सकता है, लेकिन  वे  सब मेरे संग कंधे से कंधा  मिलाकर  खड़े  हैं। इससे अधिक  की कामना भी क्या करूं ?

कल्पना : अपने लेखकीय अनुभव से आप नए लेखकों को क्या संदेश देना चाहेंगी ?

कृष्णा: बस यही कि वे साहित्य  का अध्ययन गंभीरता से करें और खूब लिखें। अभ्यास करते करते रहें और सुजान बनते रहें। ओछी प्रसिद्धि के मोह से अपने को दूर  ही रखें। बस इतना ही कहना चाहती हूँ. धन्यवाद!

***

साक्षात्कार कर्ता: कल्पना मनोरमा 


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