वस्तुएँ भी कुछ कहती हैं...

 


वस्तुएँ भी कुछ कहती हैं... चित्र में जो चाबियाँ दिख रही हैं वे सिर्फ चाबियाँ नहीं, बल्कि सजीव दहकता हुआ गुज़रा एक समूचा ज़माना है, जो अब मौन किसी दराज में पड़ा रहता है। होली-दीपावली ताला चाबी उठाकर मालिक कभी ये,"अरे देखो बेबी! अपना गाँव वाला घर इन्हीं की दम से सुरक्षित रहता था।" बोल देता है, तो उतने से ही ये निर्जीव चाबियाँ संतोष कर लेती हैं।

इस तरह की चाबियाँ मशहूर अलीगढ़ की ताला गली की पूरी शिनाख्त करती हैं। छोटी-छोटी दुकानों में गमकती हुई गरीब जिन्दगी चित्रित हो उठती है। टूटी साइकिल पर सवार होकर एक तालावाला आलीगढ़ से इटावा तक का सफर हौंस में तय कर लेता था। झोले में रखे ताले चाबी उसे हौसला देते चलते थे।

रविंद्रनाथ ठाकुर के काबुलीवाला की तरह मेरे बचपन वाले जहन में अलीगढ़िया तालावाला की एक उजली स्मृति अभी भी शेष है। जो काले चीकट सलवार-कमीज़ के साथ गंदा काली-सफेद चैक वाला तिकोना गमछा गले में लपेटे रहता था। उसके चाम के जूते चुर्चचुर बोलते थे। जो वह पहनकर आता था। इन सबके साथ उसकी आँखों में भरा काजल जो मुझे हैरत में डाल देता था, याद आ जाता है। क्योंकि काजल सिर्फ स्त्रियाँ ही लगाती हैं, तब मुझे मालूम था।

इन जैसी चाबियों का उपयोग अब भले न कोई करता हो लेकिन जब-जब ये सामने आ जाती हैं तो बेरोक-बेलौस मुझसे बतियाने लगती हैं। इन चाबियों ने जिस बोलती हुई संवेदना को देखा और महसूस किया है, आज की चाबियाँ तुलना क्या अंदाजा भी नहीं लगा सकतीं।

काली कलूटी चाबियों के काले कलूटे ताले होते थे। जिनपर चाबी लगाने की जगह पीतल का ढक्कन लगा होता था। काले रंग पर पीला रंग आहा! उतनी-सी पीतल जैसे ताले की जात बन जाती थी। जिससे ताला ताले से तालेराम बन जाता था।

बचपन में मेरा मन बार बार सोचता था, आख़िर लोहे के बड़े से ताले पर ताली लगाने की जगह पीतल का ढक्कन क्यों?  बहुत उधेड़-बुन के बाद जब माँ से पूछा था, तो उन्होंने बताया कि अगर इसे न लगाया होता तो लखैरी (एक कीड़ा) ताले की झड़ में लाख या मिट्टी का अपना घर न बना लेती इसलिए उसे पीतल की पत्ती से ढंक देते हैं। लेकिन अब मुझे लगता है, काला ताला जहाँ जिम्मेदारी का पर्याय था, वहीँ ताले के बीचोंबीच चिपका पीतल का नन्हा-सा टुकड़ा विश्वास और वफादारी का। तभी तो एक झड़ वाले ताले भी आज के पाँच झड़ वाले तालों जितना फर्ज़ अदा कर लेते थे।

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