सूक्ष्म-स्थूल गरीबी क्या है
राष्ट्रवामा : द्रोपदी मुर्मू |
"गरीब पैदा होने में व्यक्ति का दोष नहीं, लेकिन गरीब मरने में दोष व्यक्ति का ही है।" ये
कथन किसी बड़े विचारक का है। इस उक्ति में हो सकता है कि शब्द क्रम इधर-उधर हो गए हों क्योंकि इसे मैंने पढ़ा नहीं, अपितु सुना अनेक बार है। और ये बात सर्वमान्य है कि
सुनी सुनाई बातों में शब्द स्वत: बेरहमी से घट-बढ़ जाते हैं।
खैर,मेरी दृष्टि में उक्त कथन की मारकता तब और बढ़ जाती है जब मैं ये सुनती हूँ कि द्रोपदी मुर्मू आदिवासी महिला देश की प्रथम महिला बन चुकी हैं। ज़रा सोचकर देखिये द्रोपदी मुर्मू का अपने अभी तक के जीवन में कितनी-कितनी कमी और कैसी-कैसी कमी से सावका नहीं पड़ा होगा? लेकिन उनका वैधानिक कार्मिक हौसला देखिये आज देश उन्हें आशीष रहा है।
समाज में गरीबी का जिक्र जब-जब और जहाँ-जहाँ चलता है या चलाया जाता
है, तब-तब दृष्टि में गरीबी के नाम पर सिर्फ धनहीनता
ही उमड़ कर सामने आती हुई दिखती है। जबकि गरीबी का शाब्दिक अर्थ कमी या अभाव से है। इस बात
के मद्दे नज़र संसार में जितने प्रकार की स्थूल और सूक्ष्म असमृद्धता हो सकती है,
उन सब में लिप्त व्यक्ति को गरीबी रेखा के नीचे या उसके अंदर माना
जाना चाहिए। लेकिन नहीं, मानवीय समाज के ठेकेदारों के शब्दकोष में धनहीनता को ही गरीबी की कोटि में रखा गया है।
पता नहीं ये रीति ग्रंथों में लिखी गयी है,या समाज ने इसे
स्थापित किया है।
बहरहाल बहुत सोचने के बाद इतना समझ आता है कि अगर पैसा ही समृद्धि की निशानी होता तो समाज में न जाने कितने ही धनवानों को अत्यधिक भावनात्मक गरीबी और निरीहता में कराहते हुए न देखा जाता। धनहीन व्यक्ति अपनी आंतरिक समृद्धता के सहारे जीवन नैया को सांसारिक महासागर में डगमगाते हुए भले सही, चला लेता है लेकिन संवेदना रहित व्यक्ति तमाम धन के बीच रहकर भी त्राहिमाम पुकारता हुआ देखा जा सकता है। यहाँ फिर से कहा जा सकता है कि हर प्रकार की गरीबी में से वैचारिक गरीबी सर्वोपरि है।
चूँकि मनुष्य में सुधार का बीज बचपन की माटी में रोपने से वह फल और छाया दोनों देने में सक्षम हो जाता है इसलिए प्रत्येक माता-पिता को सूक्ष्म और स्थूल गरीबी में तुलनात्मक अन्तर समझने की अक्ल अपनी संतति को बचपन में ही देना ज़रूरी है। जितना भौतिक गरीबी को ख़त्म करने के उपाय और होशियारी बच्चों को सिखाई जाती है, उससे कहीं ज्यादा भावनात्मक गरीबी से उबरने की युक्ति भी उन्हें बताई जानी चाहिए। क्योंकि अंदरूनी गरीबी मानवीय गरिमा को चाट जाती है। ऐसे धनवानों को समाज में कोई इज्जत नहीं देता जो अपने अहम् को महिमामंडित कर मानवता को चकनाचूर कर देते हैं।
अब यदि कोई ये पूछे की ये दोनों प्रकार की गरीबी का स्रोत क्या है? तो जहाँ स्थूल गरीबी अकर्मण्यता से जन्म लेती है। वहीं सूक्ष्म रूप से व्यक्ति को गरीब बनाने वाला शत्रु "अहम्" है। जो जितना बड़ा "अहमी" वह उतना ही बड़ा गरीब है। और इस बात का ख्याल बराबर रखना होगा-- गरीबी के यहाँ हर प्रकार के क्राइम करने की छूट है।
अभी हाल ही में महामहीम द्रोपदी मुर्मू ने भारत की प्रथम महिला बनकर समाज के प्रत्यक्ष अपने पुरुषार्थ से साबित कर दिया कि जन्म से कर्म ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। कर्म के प्रति सचेत रहना ही शायद सच्ची पूजा है। एक आदिवासी स्त्री के मन में कितना धैर्य रहा होगा? जो समाज की तमाम रूढ़ियों को अपनी जिजीविषा से तोड़कर ताक पर रखने में वह सफ़ल हुई। बेचारगी की गाँठ में बंधा 'नकार' जो स्त्री के काँधे पर उसके जन्म के साथ लटका दिया जाता है, को कितना फटकारा होगा? ये तो वही जाने।
हम इतना जानते हैं कि एक दिन में शिखरजीत कोई नहीं बनता। सूरज को भी पहले भयानक काली रात के घोर अंधेरे से जूझना पड़ता है। उसके बाद कहीं भोर में जाकर उसे प्राची प्राप्त होती है। अस्तु!
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२५-०७ -२०२२ ) को 'झूठी है पर सच दिखती है काया'(चर्चा-अंक ४५०१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२५-०७ -२०२२ ) को 'झूठी है पर सच दिखती है काया'(चर्चा-अंक ४५०१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार(२५-०७ -२०२२ ) को 'झूठी है पर सच दिखती है काया'(चर्चा-अंक ४५०१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
मेहनत और कर्म निष्ठा ही जीतती है हमारी आज की राष्ट्रपति ने यह साबित कर दिया है।
ReplyDeleteबहुत सटीक विश्लेषण अर्थ और विचारों की गरीबी पर।
ReplyDeleteसटीक लेख।
Right, nice article 👍
ReplyDeleteउम्दा प्रस्तुति करण आदरणीय ।
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