लैटर बॉक्स!


बीसवीं सदी में कभी लैटर बॉक्स! ये डिब्बा सिर्फ़ डिब्बा न होकर सुख और दुःख बाँटने वाला देव दूत माना जाता थ। जब से इसका जन्म हुआ होगा इसने बड़े निर्लिप्त भाव से अपनी ओर लोगों के बढ़ते हुए हाथों को और ताकते हुए हज़ार-हज़ार आँखों को देखा होगा। घुड़सवारों के हाथ संदेश पहुँचाना, कबूतरों के पंजों में चिट्ठियाँ बाँधकर अपने प्रिय तक संदेश पहुँचाना, लैटर बॉक्स वाली प्रक्रिया से निश्चित ही दुरूह रही होगी। तभी किसी ने सही कहा है कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होती है। इस डिब्बे के बारे में कितनी सुंदर कल्पना की होगी किसी ने।

खैर अब अगर डिब्बे की मन की बात कहें तो जब इसका पेट चिट्ठियों से भर जाता था तो कभी-कभी पत्रों के ताप से इसका माथा तपने लगता था। राजनैतिक पत्रों से इसे बदहजमी जैसी शुबा होने लगती और प्रेम पत्रों से जब इसे गुदगुदी होने लगती थी तब ये चाहता था कि कब पोस्टमैन आए और ताला खोलकर इसका मन हल्का कर जाए। वैसे ताला खोलने का इंतज़ार सिर्फ़ इसे ही नहीं, लोगों को भी बड़ी बेसब्री से हुआ करता था। और जैसे ही लाल डिब्बे का दरवाजा खुलता था डाकिया बाबू डाक को काँधे पर लटकाकर चल पड़ते थे। जिसका जो संदेशा हुआ उस तक पहुँचा देना डाकिया बाबू अपना परम कर्तव्य मानते थे। उस दौर में लोगों के संदेशों को कभी कभी डाकिया बाबू को पढ़कर भी सुनाना पड़ जाता था। उसमें किसी का प्रेम पत्र अगर पढ़ने अवसर यदि डाकिया बाबू को प्राप्त हो जाता था तब तो साइकिल के पहिये लहराकर चल पड़ते थे। साथ में सीटियाँ अलग से हवा में तैर जाती थीं। डाकिया की भाव भंगिमा से गाँव में लोगों पता चल जाता था कि किसी गोरी का प्रेम पत्र आया है। कैसे दो जून की रोटी को तरसे किसानों के घर रोज़गार की गमकती चिट्ठियां पहुँचाकर मानों ठिठुरे चेहरों पर पोस्टमैन खुशी पोत आता था और किसी नव ब्याहता का प्रेम पत्र तो किसी के जन्मदिन की बधाई और किसी के घर विवाह का आमंत्रण सौंप मनों में हुलास भर आता था।

उसके बाद संदेशा पाने वालों में जिसने जैसे समाचार इसके माध्यम से पाए होते थे वे लोग निकलते बैठते कोई लैटर बॉक्स! सर पर हाथ फेर देता था तो कोई अपने हृदय में उठती प्रेमिल तरंगों का द्योतक मान प्रेम से इसे निहार लेता था। वहीँ जिसके घर कोई अशुभ सूचक संदेश पहुँचता था वह इसे अग्नेय दृष्टि और अपार घृणा से देखता था मानो अपने क्रोध से डिब्बे को भस्म देगा। लेकिन ये लाल डिब्बा एक कार्तव्य पारायण पुत्र की तरह तटस्थ बनकर लोगों को टुकटुक निहारता रहता था। और मन ही मन मानो कह रहा होता था कि "हे मानव सुख-दुःख इस संसार सागर में उठते गिरते बुलबुले हैं। इन्हें दूर से देखो किन्तु लिप्त मत हो।" तब लगता था कि ये और कोई नहीं जोगिया वस्त्र धारण किए कोई पहुँचा हुआ जोगी है। जो संसार को दूर से देखता है और इसकी क्षणभंगुरता को विशुद्ध रूप से पहचानता है।

खैर, इतना विवेकी डिब्बा भी आजकल सुस्त और उदास देखा जा सकता है। कितनी बार इसकी ओर देखने पर महसूस होता रहा है कि जैसे कुम्हलाए तन-बदन का कोई वृद्ध जिसका परिवार कहीं दूर देश जाकर बस गया है, सड़क के किनारे सन्नाटे से भरे एक कोने में चुपचाप खड़ा रहता है। सन्ध्या सैर के दौरान कई-कई बार मैंने इसकी धड़कनों का कोहराम नजदीक से सुना है। इससे मैंने बातें भी की हैं। बहुत भावुक हो उठता है बेचारा। एक दिन जब मन नहीं माना तो इससे पूछने से पता चला कि उसे ‘मेल’ या ‘एस एम एस’ या संदेशा भेजने की अन्य साधनों से चिढ़ बिल्कुल नहीं हैं और न ही अपनी घटती पूछ से वह हैरान है। बल्कि वह भी अपने कुल को सभ्यता की ओर बढ़ते देख खुश है।

तो फिर तुम्हारी उदासी का कारण क्या है? मैंने प्रश्न पूछा तो बड़ी डूबती आवाज़ में डिब्बा बोला,"तकनीकी कारोबार जो कुछ भी चल रहा है; सब कुछ ठीक है लेकिन मेरी चिंता का विषय, आज़ का मनुष्य है जो बेहद जल्दी में दीखता है। न जाने वह किस धुन में होता है कि न उसे संबोधन ठीक से लिखना पता होता है और न ही अभिवादन कहाँ लिखना उचित होगा जानता है। भाषा के बिगड़ते इस रूप को देखकर मेरा मन कराह उठता है। आख़िर सुख-दुःख लिखने की भी तो अपनी परंपराएं होती हैं। माना की प्रकृति के अनुसार संस्कृति को ढाल लिया जाता है लेकिन क्या ये चिंतन का विषय नहीं कि भाषा अगर बिगड़ी तो भाषण बिगड़ जायेगा और यदि भाषण बिगड़ा तो मनुष्य की प्रस्तुति (प्रेजेंस) बिगड़ जाएगी और यदि ये सब बिगड़ा तो मानवीय संतति सुसंस्कृत कैसे बचेगी?"

वैसे तो लाल डिब्बे से भेंट हुए काफ़ी वक्त गुजर चुका है लेकिन मैं आज तक विचार रही हूँ  क्या लैटर-बॉक्स की चिन्ता जायज थी?

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Comments

  1. वक़्त वक़्त की बात है । वैसे चिंता तो जायज़ ही है ।

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