वह चिड़िया क्या गाती होगी
"वह चिड़िया क्या गाती होगी?" प्रतिभा कटियार की नवलोकार्पित कृति Bodhi Prakashan से कुछ समय पूर्व प्रकाशित हुई है।
इस पुस्तक का शीर्षक प्रश्नाकुलता
लिए हुए है। हम में से जो भी अपने बचपन में अति संवेदनशील रहा होगा उसने एक न एक
बार ये प्रश्न हवा में उछाल कर ज़रूर पूछा ही होगा कि दूर नीम की डाल पर या घर की
मुंडेर पर वह जो चिड़िया मटक मटक का चूं चूं चूं कर रही है, आख़िर वह क्या गाती होगी? पंछियों की बोली हम जान पाते तो न जाने प्रकृति
के कितने रहस्यों से रू ब रू हो सकते थे।
खैर, प्रतिभा
जी ने ये पत्र महामारी के घोर त्रासद समय में अपना गुबार उगलने या आसुओं को शब्दों
में समेटने के दौरान लिखे हैं। इस बात को मद्दे नज़र रखते हुए जब सोचती हूं तो
लगता है कि लेखिका ने चिड़िया को जीवन के प्रतीक में लिया होगा क्योंकि जिस समय
लेखिका इस कृति को रच रही होगी उस समय सड़क,
घर, अस्पताल, पगडंडियों और न
जाने कहां कहां जीवन बेकल हो चिचिया रहा था। कहीं चिड़िया की तरह बोलते हुए जीवन
को प्रश्रय भी मिला तो कहीं तड़पते हुए प्राण गंवाते हुए भी देखा गया।
लेकिन
जब जब उस मनहूस समय के चंगुल में जकड़े जीवन को देखा गया था तब तब मन में यही
ध्वनित हुआ कि आख़िर वह जीवन क्या बोल रहा है?
क्या
चाहता है?
इस किताब को पढ़ते हुए मानव मन की
अनंत जिज्ञासाओं और एकांत समय में मन में उठने वाली भावनाओं (जिन्हें शब्द देना
आसान नहीं होता) लेखिका ने अपनी सहजता में वक्त की क्रूरता को गूंथकर दुःख को सहज
ही लिख दिया है। प्रारंभ से अंत तक इस कृति को पढ़ते हुए महसूस होता चला गया कि
जिस प्रकार किसी व्यक्ति की किसी व्यक्ति से मित्रता होती है तो त्वरित प्रगाढ़ता
नहीं बढ़ती। बल्कि धीरे धीरे मित्रतापूर्ण वार्तालाप तीव्र से तीव्रतर होता जाता
है।
लेखिका ने इन पत्रों को उस दौर में
लिखा है जब संसार अवसन्नावस्था में था। मानवीय संवेदनाएं सुन्न पड़ चुकी थीं। इस
विचार को विचारते हुए ये कार्य बेहद कठिन लगता है कि अपनी ठोस होती संवेदनाओं को
आखिर एक रचनाकार कैसे तरलता प्रदान करता है। इसे जानना हो तो प्रतिभा को पढ़िए।
हालांकि पुस्तक के आरंभ से लेखिका
अकेले शब्द सफ़र तय करती है लेकिन मध्य में पहुंचते पहुंचते उसे लेखक मानव कौल और
किशोर चौधरी भी सहयात्री के रूप में मिल जाते हैं। और उनसे बोलते बतियाते हुए
प्रतिभा बेहद सघन विचारधारा में उतरते हुए पाठक को बेचैनियों भरी वैचारिक यात्रा
पर ले जाती हैं। जहां हर वस्तु, विचार, आदतें, अपने, सपने और न जाने क्या क्या इस प्रकार मुखर होते
हैं कि बस शब्द शब्द कहता है कि रुक जाओ मेरे पास कि दुनिया की कठोरता तुम्हें
साबुत न छोड़ेगी।
"तकनीक ने तो हमें जोड़ रखा है लेकिन एक दूसरे से मन से जुड़ने की तकनीक तो हमें खुद ही ईजाद करनी होगी है न!" प्रतिभा जी के इस वाक्य को यदि किताब का धरातल माने तो गलत न होगा। हमें मानव से मानवता की दूरी को ही समेटना है। इस तकनीकी समय में ये कार्य बेहद कठिन ज़रूर है लेकिन नामुमकिन नहीं। अस्तु!!
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प्रतिभा जी को पुस्तक हेतु हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteमनोभावो को समझते हुए बहुत ही बढ़िया लिखा दी आपने।
सराहनीय।