स्वर्ग का अंतिम उतार


 स्वर्ग का अंतिम उतारडॉ. लक्ष्मी शर्मा जी की उपन्यासिक कृति पढ़कर निवृत हुई हूँ। स्वर्ग पाने के नाम पर न जाने हम क्या-क्या करते रहते हैं। प्रत्येक संसारी जीव की ये आकांक्षा रहती है कि उसे कैसे न कैसे स्वर्ग हासिल हो। कभी-कभी जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि स्वर्ग में आख़िर होता क्या होगा? कौन वहाँ का संचालक होगा? कैसी वहाँ की सुख-सुविधाएँ होंगी ? क्या वहाँ भी महामहिम जनों की राजनीत- कूटनीति से लोग शिकार होते होंगे? कितना भी उछल-कूद लो स्वर्ग के छज्जे से झाँकने तक को नहीं मिलता। कोई नहीं जानता वहाँ की व्यवस्था और व्यस्थापक कौन और कैसा है क्योंकि वहाँ जाकर कोई आज तक लौटा नहीं है। क्या वहाँ जाकर जीव की सारी इच्छाएँ भस्म हो जाती हैं? या जीव भ्रामक हो चकरघिन्नी बन वहीं का वहीं डोलता रह जाता है? हालाँकि बड़े-बड़े चिन्तक और विचारक ये भी कहते हैं कि स्वर्ग-नर्क सब कुछ यहीं इसी पृथ्वी लोक पर हैं और हम प्रतिदिन उनसे रूबरू भी होते रहते हैं लेकिन स्वार्गिक स्वाद से अनभिज्ञ होने के कारण अछूते ही रह जाते हैं। इस तरह स्वर्ग पाने की लालसा में फँसा जीव एक पल को भी सुकून से नहीं जी पाता है। 

लेखिका भी कहती हैं कि,” आभारी हूँ बद्री-केदार और गंगोत्री-यमुनोत्री की जिनके दर्शन ने जीवन-मृत्यु को सम भाव से देखना सिखाया और रास्ते में बिखरी उस अतुलनीय चिदम्बरा प्रकृति की जो आत्मसंपन्न मना हो कर देने, सहने, भूलने और क्षमा के जीवंत पाठ के रूप में बिखरी हुई है।तीर्थ यात्रा पर जाने का विधान शायद इसी लिए बनाया गया होगा कि व्यक्ति भोग-विलासी जीवन सरिता में तीर्थ नामक पुन्य की एक कंकड़ी उछाल कर अपने अव्यवस्थित बिखरे बहाव रूपी कर्मों को पुनः सुधार सके।

खैर, इन सब बातों के परे लेखिका ने उपन्यास के लिए जो कथावस्तु चुनी है वह बेहद सूक्ष्म तंतुओं से निर्मित है। ये बात इसलिए कह रही हूँ, जिस प्रकार कृति में पहाड़ी-प्राकृतिक सौन्दर्य को बुना गया है, जिस प्रकार गंगोत्री-यमुनोत्री आदि की छटा और भंगिमाओं को दर्शाया गया है उसी प्रकार मानवीय भावनाओं के अतल में बहते सुख-दुःख, पीड़ा, के सागर की हिलोरें उपन्यास पढ़ते हुए बराबर महसूस होती चलती हैं। सोचो समाज में यदि सभी आभिजात्य वर्ग से संबंधित ही होते या सभी निम्न वर्ग की दैनिक जीवनशैली की रस्साकसी में लिप्त होते तो क्या लोक की कहानियाँ मिल पातीं? लेखिका ने अपनी प्रवाहमान भाषा के द्वारा बेहद मार्मिक और जाग्रत सम्वेदनाओं को इस कृति में लिखा है। जिनको पढ़ते हुए न जाने कितने छिगन और कितने बड़े साहब के गूगल नुमा कुत्ते याद आये।वैसे भी साहित्य का कार्य समाज के हाशिये पर पड़े लोगों को मानवीयता के केंद्र में लाना है। छिगन ऐसा ही एक किरदार है जो तमाम बेबसी और रिक्तताओं भरे जीवन को जीता हुआ वह चाहकर भी अपने माँ-बाप को कहीं छोटे-मोटे तीर्थ स्थान भी नहीं ले जा पाता है और जब वह बड़े साहब के साथ यात्रा पर जाता है तो हर छोटी-बड़ी, कृतिम-अकृतिम वस्तुओं को देखकर भौंचक होता रहता है।

जा न्हाले आराम से और यो कुत्ते ने भी ले जा, इस गरीब के जीव ने भी ठंडक पड़ जागी”  रास्ते में बस रुकती है, वहीं एक बूढ़ा छिगन को अपने साथ कुत्ते को कुँए पर नहाने की सलाह देता है लेकिन छिगन को कुत्ता-स्नान  के वे सारे ठाठ याद आने लगते हैं जो उसने साहब के बंगले पर देखे होते हैं। जहाँ एक पशु के लिए शैम्पू और तौलिया आदि की पूरी व्यवस्था है वहीं छिगन कुँए के किनारे से मिट्टी उठाकर अपने दांत माँजने की बात सोचता है। कितना कारुण्य दृश्य यहाँ लेखिका निर्मित करती हैं कि पढ़ते हुए मन बार-बार सोचने पर विवश हो जाता है।

लेखिका: लक्ष्मी शर्मा जी 

एक व्यक्ति कितना लाचार हो सकता है कि वह अपने परिवार को लेकर तीर्थ यात्रा पर नहीं जा सकता और एक व्यक्ति ऐसा भी होता है कि अपने कुत्ते की रक्षा-सुरक्षा के लिए अलग से एक व्यक्ति का व्यय भी वहन कर लेता है। छिगन गूगल नामक कुत्ते के साज-सम्हार में हर पल लगा रहता लेकिन जब वह साहब के परिवार की उत्फुल्लता और प्रकृति की कोमल सुरमई पुकार सुनता है तो उसे अपनी माँ और पत्नी की याद रह-रह कर सताने लगती है। वह जब-जब कोई रम्य दृश्य को देखता है तो उसे लगता है कि उसका परिवार भी वह देख सकता। छिगन के  जीवन के आलोड़ित अभावों को लेखिका ने जिस कदर अपने भाषाई कौतुक से त्वरा दी है वह देखते और महसूस करते ही बनता है।

इस कृति में पहाड़ी शांत-सहज जीवन और समतल के फरेबी-भौतिकतावादी जीवन की दरारों को रुचि-रुचि दर्शाया गया है। लोक कथाओं के माध्यम से स्त्री जीवन की अवधारणाओं और अभिव्यंजनाओं को जीवंत रूप में लिखा गया है। लेखिका ने बड़े साहब के बच्चों और छिगन के बीच होती गहमागहमी के माध्यम से इस्पाती युग के उन किशोरों की ओर इंगित किया है जो अपने माता-पिता की पद-प्रतिष्ठा के आगे अपने घर में रह रहे सहायकों को कीड़ा-मकौड़ा से कम नहीं समझते हैं। मदांध संस्कृति को जन्म देते माता-पिता को इस कृति को पढ़कर और ठहर कर विचार करने के लिए भी लक्ष्मी शर्मा जी अपनी सुसंस्कृत भाषा में बहुत कुछ कह जाती हैं। उन बच्चों की पीड़ा भी दर्ज इस में है जो अभावों में जीवन यापन करते हैं और उनके माता-पिता अपना जीवन सुख से रन करने के लिए अपने छोटे-छोटे बच्चों को शहर की ओर किसी भी अंजान परिवार के साथ भेज देते हैं।

कृति के अंत में छिगन गूगल के साथ लापता हो जाता है और यहाँ आकर बड़े साहब की यात्रा खंडित हो जाती है। उनकी समस्त श्रद्धा अपने गूगल के लिए तिरोहित हो जाती है और वे पल-पल छिगन लाल सोलंकी को कोसने लगते हैं। यहाँ पर आते-आते लेखिका ने पाँच पाण्डवों को याद करते हुए कहा है कि जिस प्रकार पाँच पांडवों के साथ एक कुत्ता हिमालय पर गया था उसी प्रकार बड़े साहब के परिवार के चार सदस्यों के साथ पाँचवा व्यक्ति छिगन गूगल आया था, उनमें से छिगन और कुत्ता गायब हो जाता है। पाँच पाण्डवों में से सिर्फ धर्मराज युधिष्ठिर अपने कुत्ते के साथ सदेह स्वर्ग को प्राप्त हुए थे। क्या दुखिया छिगन कुत्ते के साथ यात्रा संपन कर स्वर्ग को प्राप्त हो गया है ? इसके आगे और भी बहुत कुछ जानने-समझने के लिए कृति अपने को खोलती है। इन्हीं शब्दों के साथ लेखिका को अनेक बधाइयाँ. अस्तु!

***

लेखिका : लक्ष्मी शर्मा 

कृति : स्वर का अंतिम उतार 

समीक्षक : कल्पना मनोरमा 

प्रकाशक : शिवना प्रकाशन 

मूल्य : 150 /-

 

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