"बाँस भर टोकरी" पर निर्देश निधि जी की समीक्षा


अनोखा नाम अनोखा कविता संग्रह

कवर बाँचने वाली कवयित्री के कवर पर चित्र में ही सही,पर मैं भी । यह एक ऐसा काव्य संग्रह है जिसकी रचनाकार अपने द्वारा देखी सुनी, जी हुई ज़िन्दगी की छटपटाहटों को कविताओं में ठीक से निरूपित कर पाने के लिए चिंतित है या किसी मूक उर की वेदना को बिना जजमेंटल हुए होलसेल में कह पाने के लिए व्याकुल है। बहुत ही प्यारी बात कही है कल्पना जी ने।

कल्पना जी अपनी कविता में संकलित अधूरी, बेकार संवेदनाएं, जिन्होंने न जाने कितने पलों का चैन छीनकर उनके उदार मन को सोने नहीं दिया। वे सोचती हैं क्या वे तमाम घायल पलों की भावनाओं को कविता के अंतस में संजो पाई हैं। उनके अनुसार वे नहीं जानतीं कि काल की उजली कलुषता और विपणन कालखंड का आक्रोश, जो शब्द याचिकाओं के रूप में उनके आंतरिक भावनात्मक मलबे तले दबा पड़ा था, क्या उससे पूरा का पूरा छुटकारा मिल सका है उन्हें? इस बात की चिंता में वे रत है। वे कविता की चौहद्दी को बहुत विराट मानती है और अपने कदम को बहुत छोटा चींटी से भी छोटा मानती हैं। परन्तु उनके मानने से आगे उनकी कविताएं उन्हें कहीं बड़ा साबित करती हैं। उनकी अर्थपूर्ण सारगर्भित कविताओं का फलक बहुत बड़ा है।

उनके ही अनुसार वे प्रतिदिन कविता की ओर चलती है तो भी उसके आँगन के एक कोने से दूसरे कोने तक भी नहीं पहुँच पाती। लेकिन जब - जब कविता उनकी ओर आती है विश्वसनीयता का अवमूल्यन होने से बच जाता है और साथ ही कुछ कविता लिख जाता है। कितना सौंदर्य भरा है उनकी इन बातों में । कविता उनके लिये औषधि, सखा, हमराज पंचिंग बैग और सुहृद अर्धांगिनी है। कई - कई बार कविता उन्हें अवसाद में दिल हारने से बचा लेती है तो कई बार खरी - खरी कहने की ताकत भी देती है। शायद यह उपकार तो कविता हम सब पर थोड़ा - थोड़ा ज़रूर ही करती है। इसीलिए कविता विशेष है।

उन्हें लगता है कि इस तकनीकी कीचड़ में जिंदगी को डूबने से अगर कोई बचा सकता है तो वह कविता ही होगी। वे सच कहती हैं कविता ही है जी कोमलता में लपेट कर भावनाओं की सुंदर प्रस्तुति देती है। वे बड़ी सुन्दर बात कहती हैं कि कविता का सांनिध्य उन्हें विसंगतियों का विच्छेदन करने मात्र के लिए नहीं मिला, बल्कि कविता के प्राकृतिक जीवंत रूप ने उन्हें आकर्षित किया है। उठीं पलकों में माँ की पहली झलक, पिता की नाराजगी।

"सुबह की अगुवाई में रविप्रभा में चमकता ओस कण जो गुलाब की पंखुड़ी पर उतना ही दबाव बनाता है जितने में पंखुड़ी को साँस आती रहे"।

कल्पना जी की इस बात ने तो मेरा मन ही मोह लिया ।

ठहरे हुए तालाब में मछली का अपने थूथुन से जल सतह पर जमी काई की परत को फाड़कर, हवा का एक बुलबुला निगल जाना। बसंत की नारंगी संध्या में क्षितिज की ओर उड़ान भरती पखेरुओं की वे भोली कतारें जिनसे पंजों में पृथ्वी का अस्तित्व दबा दिखाई पड़ता है और जंगल में किसी नदी का एक आवारा मदहोश मोड़ भी कविता के दुर्लभ सौंदर्य है और मन को आश्चर्यचकित कर जाता है। कितनी प्यारी बात है यह जब मैं यह सब पढ़ती हूँ तो मुझे लगता है कि मैं उनकी "मन से मन तक..." में ही गोल - गोल घूमती रह जाऊँगी कविताओं तक पहुँचूंगी ही नहीं। वे कभी गीत चतुर्वेदी को उद्धृत करती हुई कहती हैं कि कविता में निहित अनुभूतियाँ हमें वाचाल नहीं अवाक बनाती है।

इस तरह से उनका जो कविता संसार है वह बहुत ही विस्तृत है और बहुत ही संवेदनशील और प्यारा है। वे जीवन को बहुत ही बारीकी से अपनी कविताओं में उड़ेलती है। जो उन्होंने स्वतः अनुभूत किया, वह भी बहुत ही अद्भुत तरीके से इन कविताओं में उपस्थित होता है।

यह कविता संग्रह मेरे लिए वैसे भी विशेष है, क्योंकि इसके आवरण पर मेरा बनाया रेखाचित्र है। कल्पना मनोरमा जी को सौभाग्यवश यह साधारण सा चित्र अकस्मात ही अपनी पुस्तक के आवरण के लिये पसंद आ गया और अब यह वहाँ सजा है । कल्पना मनोरमा जी एक ऐसी रचना रचनाकार हैं जो पुस्तकें तो पुस्तकें, उनके आवरण तक बाँचती हैं। वे आवरण मात्र की बहुत विस्तृत और सटीक समीक्षा कर सकती है, इसलिए उनकी पुस्तक की समीक्षा करना बहुत कठिन कार्य है । अतः मेरी तो यह एक पाठकीय प्रतिक्रिया मात्र ही है समीक्षा तो कतई नहीं।

कल्पना जी एक मंजी हुई रचनाकार हैं । उनकी रचनाएँ विभिन्न विषयों पर लिखी गई है। अर्थात उनका फ़लक बहुत विस्तृत है। मुझे बहुत मार्मिक लगता है जब वे अपनी एक कविता में पिता के विषय में कहती हैं,

हाँ, कभी - कभी तुम मिले भी मुझे

किंतु माँ की बिंदी भर।

कभी किताबों से भरे बस्ता भर

तो कभी दूध का कटोरा भर।

जब ज्यादा जानना चाहा तुम्हें

तो पकड़ा दिए गए ट्रेन की टिकट के साथ चंद पैसे और हिदायतें?

सच कहूं तो मैं जानना चाहता था

तुम्हें पूरे पिता भर।

लेकिन वह जानना अभी भी बाकी है

तुमने तो कर दिया बंद

स्वयं को खोलना मेरे सामने

सबकी नजरों में बन गया मैं अपराधी।

सच बताना पिता,

मैं कौन था जो तुम्हारे हिस्से में?

आ गिरा था

बिना तुम्हारी चाहना के

माँ के अनचाहे गर्भ की तरह।

जीता रहा मैं परायों जैसी जिंदगी

जबकि पिता मेरे साथ थे

कल्पना जी अपनी एक कविता बीज में कहती हैं।

मैंने कहा

रुको, रुको, रुको।

लोगों ने कर दिया अनसुना

इनकार

दौड़ते गए बेतहाशा

चारों ओर हाथ फैलाकर।

लकड़हारे लिए हाथों में कुल्हाडियां

जहाँ - जहाँ थे पेड़

उन्होंने किया अट्टहास

उड़ेल दिया अपना लिबलिबा क्षोभ

अबोले वृक्षों की जड़ों में।

यह उनकी कविता पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए प्रतिबध्द है। यह पूरी कविता बहुत ही सुंदर है

एक अन्य कविता, हम लौटेंगे मैं कल्पना जी कहती हैं कि,

जब पूरी तरह से चले जाएंगे।

बुरे परेशान से दिन

हम लौटेंगे अपनी ओर

दूरियों को जोड़कर सिलेंगे नजदीकियाँ

बनाएंगे बड़े - बड़े थैले

भरेंगे उनमें हँसी के खील - बताशे

यह उनकी बहुत ही सुंदर कल्पना है ? बहुत मार्मिक कविता है यह उनकी। एक और कविता मुझे बहुत अच्छी लगी।

लौटती हूँ मैं

सभी की होती है कुछ जगहें

कुछ जातीय वजहें

वापस लौटने की

जैसे समझदार पंछी लौट जाते हैं

मौसम परिवर्तन के वक्त

अनुकूल ठिकानों पर

मछलियां लौटती है, मुख्य धारा में

छोड़कर अपने अंडे

किनारों पर

नदियाँ, समुद्र में और समुद्र बादलों में

रेत घरों में और घर रेत में

बूढ़ी होकर माँऐं

लौटा करती है

अक्सर अपने बचपन में ही

अंधेरा होने से पहले चिड़ियाँ

घोंसलों में

एक और भी बड़ी सुंदर कविता है

यात्राएं फिर होंगी।

रम चुका है मन पुरुषों का घरों में।

जैसे पिंजरे में रहते - रहते।

कहने लगता है

सुग्गा राम - राम।

वैसे ही रसोई को अपने हिस्से भर

स्वीकार लिया है

घर के मर्दाने हिस्से ने भी

संभवतः यह कविता उन्होंने कोविड काल में पुरुषों द्वारा रसोई संभालने के बारे में लिखी होगी। बाँस पर टोकरी कविता संग्रह की बात हो और "बाँस भर टोकरी" कविता की बात न हो यह तो सम्भव नहीं है। इसलिए मैं उसका जिक्र भी करती हूँ जिस कविता के शीर्षक पर इस कविता संग्रह का शीर्षक है।

बाँस की बाँसुरी हो या हो टोकरी

जब - जब जाती है खरीदी

तब तक बज उठते है मन के तार

एक ओर से दूसरी ओर तक

बाँसुरी जब छूती है होंठ प्रेम के

तो बेखबर राधिका

पहुँच जाती है यमुना के किनारे तक

बाँस छान देता है ज्यों का त्यों

कृष्ण के आकर्षण को

राधिका के अस्तित्व में, बहुत ही सुंदर भावना । इतनी ही प्यारी कविताओं से संग्रह भरा पड़ा है। कल्पना जी की कविताएँ सीधे उनके मर्म से बाहर आई है । जो उन्होंने देखा है, अपने आस-पास या जिसे उन्होंने महसूस किया है, उन्होंने उन्हीं कोमल भावनाओं को सुंदरतम शब्दों में पिरोकर हमारे सामने यह बाँस भर टोकरी नाम का एक सुंदर संग्रह प्रस्तुत किया है, जिसे वनिका पब्लिकेशन ने बहुत सुन्दर तरीके से प्रकाशित किया है।

उनकी लेखनी मुझे बहुत प्रिय है, यह लेखनी बनी रहे स्वस्थ एवं सानन्द रहकर वे खूब लेखन करें और पाठक के हाथों में ऐसे अनेक संग्रह हों और उनके प्रशंसकों को उनकी खूब कविताएं पढ़ने को मिलें यही शुभकामनाएं हैं कवयित्री कल्पना जी के लिए।

निर्देश निधि

 

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